नई दिल्ली। देश में आज सद्भावना के साथ बकरीद का त्योहार मनाया जा रहा है। इस त्योहार को ईद-उल अजहा के नाम से भी जाना जाता है। ईद-उल फित्र के बाद मुसलमानों का ये दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है। ईद-उल फित्र में जहां क्षीर बनाने का रिवाज है, वहीं बकरीद पर बकरे या दूसरे जानवरों की कुर्बानी दी जाती है। ऐसे में जानना जरूरी है कि बकरीद पर कुर्बानी का इतिहास क्या है और इसे मनाने की शुरूआत कब और कैसे हुई?
इनके दौर में शुरू हुआ कुर्बानी का सिलसिला
इस्लामी मान्यताओं के हिसाब से आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद हुए। ऐसा कहा जाता है कि इनके समय में ही इस्लाम ने पूर्ण रूप धारण किया। आज इस धर्म में जो भी परंपराएं या तरीके मुसलमान अपनाते हैं वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त के ही हैं। हालांकि, ऐसा नहीं है कि इस्लाम का प्रचार करने वाले केवल पैगंबर मुहम्मद ही थे। इनसे पहले भी बड़ी संख्या में पैगंबर आए और उन्होंने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। इस्लाम में कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबर आए। उनमें से एक थे हज़रत इब्राहिम। इन्हीं के दौर में कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ।
क्यों शुरू हुआ कुर्बानी?
दरअसल, हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे। उन्होंने अपने बेटे का नाम इस्माइल रखा था। वे इस्माइल से बेहद प्यार करते थे। लेकिन एक दिन हजरत इब्राहिम को ख्वाब आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान कीजिए। इस्लामिक जानकार बताते हैं कि ये अल्लाह का हुक्म था। फिर क्या था हजरत इब्राहिम ने अपने प्यारे बेटे को कुर्बान करने का फैसला किया। उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी रख दी। लेकिन तभी इस्माइल की जगह एक दुंबा वहां प्रकट हो गया। जब हजरत इब्राहम ने अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उन्होंने पाया कि उनका बेटा इस्माइल सही-सलामत खड़ा है। ऐसा माना जाता है कि ये महज एक इम्तेहान था। जिसमें हजरत इब्राहिम पास हो गए थे। इसके बाद से इस्लाम धर्म में ईद-उल अजहा के दिन कुर्बानी की परंपरा शुरू हुई।
ईदगाह जाकर क्यों पढ़ा जाता है नमाज
हजरत इब्राहिम के जमाने में इस दिन सिर्फ जानवरों की कर्बानी दी जाती थी। लेकिन आज के दौर में जिस तरह से बकरीद मनाई जाती है। इसकी शुरूआत पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ। लोग बकरीद के दिन अब ईदगाह पर जाकर नमाज पढ़ते हैं और फिर कुर्बानी देते हैं। बतादें कि पैगंबर मोहम्मद के नबी बनने के करीब डेढ़ दशक बाद इस तरीके को अपनाया गया था। जानकारों के अनुसार ऐसा इसलिए किया गया था, ताकि लोग ईदगाह पर नमाज पढ़ने के बाद एक-दूसरे को गले लगाकर बधाई दे सकें।