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Pakistan-Taliban Tension: क्या पाकिस्तान के दबाव में आ गया तालिबान? जानें काबुल विश्वविद्यालय से जारी फतवे के मायने

काबुल विश्वविद्यालय से जारी फतवे में अफगान नागरिकों को विदेशी जमीन पर युद्ध से रोका गया है। इसे पाकिस्तान के बढ़ते दबाव से जोड़कर देखा जा रहा है। यह फैसला तालिबान की रणनीतिक मजबूरी, क्षेत्रीय सुरक्षा और जिहादी संतुलन को दर्शाता है।

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Shashank Kumar
Pakistan-Taliban Tension

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Pakistan-Taliban Tension: काबुल विश्वविद्यालय के मुख्य हॉल में तकरीबन एक हजार से अधिक अफगान विद्वानों,धर्मगुरुओं,मौलवियों और राजनीतिक हस्तियों की एक बड़ी सभा आयोजित की गई और एक फतवा जारी कर अफगान नागरिकों के विदेशी जमीन पर जाकर युद्द न करने को कहा है। इस घोषणा में तालिबान सरकार के प्रति पूर्ण समर्थन व्यक्त किया गया और यह स्पष्ट किया गया कि सर्वोच्च नेता (अमीर-उल-मोमिनीन) के आदेश के आधार पर किसी भी अफ़ग़ान नागरिक को सैन्य उद्देश्यों के लिए विदेश यात्रा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

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पाकिस्तान के आरोप और क्षेत्रीय तनाव की पृष्ठभूमि

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पाकिस्तान के आरोप और क्षेत्रीय तनाव की पृष्ठभूमि

गौरतलब है की पाकिस्तान अपने यहां होने वाले आतंकी हमलों  के लिए अफगान जमीन के इस्तेमाल का आरोप लगाता रहा है। पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान और तालिबान के बीच बढ़ते तनाव को रोकने के लिए कई इस्लामिक देशों ने परोक्ष कूटनीतिक प्रयास किए हैं।

सऊदी अरब, क़तर और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश इस्लामी एकता और क्षेत्रीय स्थिरता के नाम पर मध्यस्थता की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं। क़तर, जहां तालिबान का राजनीतिक कार्यालय है, वह संवाद के लिए सुरक्षित मंच उपलब्ध करा रहा है।

इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) भी हिंसा से बचने, सीमापार आतंकवाद रोकने और इस्लामी भाईचारे के सिद्धांतों के तहत समाधान पर ज़ोर दे रहा है। लेकिन ये प्रयास विफल दिखाई पड़ रहे थे की इस बीच धर्मगुरुओं की एक सभा और फतवे से पाकिस्तान के हावी होने और दबाव में आने के संकेत मिल रहे है। वहीं यह समूचा घटनाक्रम  पाकिस्तान के बढ़ते दबाव और क्षेत्रीय सुरक्षा चिंताओं से गहराई से जुड़ा हुआ दिखाई देता है। 

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फतवा: पाकिस्तान के दबाव का वैचारिक उत्तर?

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तहरीक-ए-तालिबान

पाकिस्तान लंबे समय से यह आरोप लगाता रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की धरती का उपयोग तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे आतंकी संगठन कर रहे हैं। इस्लामाबाद का दबाव यही रहा है कि तालिबान इन समूहों की गतिविधियों पर नियंत्रण करे और उन्हें वैचारिक और सैन्य समर्थन से भी वंचित करे। काबुल विश्वविद्यालय से जारी फतवा (Taliban fatwa) इसी दबाव का संस्थागत और वैचारिक उत्तर माना जा सकता है। 

यह पहली बार है जब तालिबान समर्थित धार्मिक-राजनीतिक मंच से इतनी स्पष्ट भाषा में यह कहा गया हो कि अफ़ग़ान नागरिकों को सैन्य उद्देश्यों के लिए विदेश जाने की अनुमति नहीं होगी। इसका सीधा संकेत तहरीक-ए-तालिबान और अन्य सीमापार जिहादी नेटवर्क की ओर जाता है,जिन पर पाकिस्तान लगातार उंगली उठाता रहा है।

तालिबान की रणनीतिक मजबूरी

यह फतवा तालिबान की रणनीतिक मजबूरी को भी दर्शाता है। एक ओर तालिबान अपनी वैचारिक सख़्ती और इस्लामी शासन मॉडल से पीछे नहीं हटना चाहता,वहीं दूसरी ओर वह पाकिस्तान के साथ खुले टकराव की स्थिति में भी नहीं जाना चाहता। 

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पाकिस्तान अभी भी अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग,मानवीय सहायता चैनल और क्षेत्रीय प्रभाव केंद्र बना हुआ है। ऐसा लगता है की आर्थिक नुकसान से बचने के लिए तालिबान ने सैन्य कार्रवाई के बजाय धार्मिक और वैचारिक प्रतिबंध का रास्ता चुना है।

अमल पर संदेह और जमीनी हकीकत

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अमल पर संदेह और जमीनी हकीकत

यह संभावना काफ़ी हद तक यथार्थवादी है कि तालिबान ने पाकिस्तान के दबाव में आकर यह फैसला लिया हो, लेकिन इसे पूरी निष्ठा से लागू किया जाएगा। इस पर संदेह बना हुआ है। तालिबान की अब तक की कार्यशैली बताती है कि वह कई बार औपचारिक घोषणाएं करके अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय दबाव को कम करने की कोशिश करता है,जबकि ज़मीनी स्तर पर आधे-अधूरे मन से क्रियान्वयन करता है। 

यह फैसला पाकिस्तान को यह संदेश देता है कि तालिबान उसकी सुरक्षा चिंताओं को पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं कर रहा। लेकिन दूसरी ओर तालिबान वैचारिक और जातीय कारणों से तहरीक-ए-तालिबान जैसे समूहों के खिलाफ खुली कार्रवाई से बचना चाहता है। 

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आंतरिक संतुलन और जिहादी नैरेटिव

यह भी दिलचस्प है की इस्लामिक अमीरात के मौजूदा ढांचे में तालिबान खुद को मजबूत रखने के लिए किसी भी प्रभावशाली जमात या संगठन को पूरी तरह नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकता। तालिबान की सत्ता केवल सैन्य बल पर नहीं,बल्कि धार्मिक वैधता,कबीलाई समर्थन और जिहादी नेटवर्कों के बीच संतुलन पर टिकी है। तालिबान के भीतर भी विभिन्न धड़े,क्षेत्रीय कमांडर और वैचारिक समूह मौजूद हैं। 

ऐसे में यदि वह किसी जमात, तहरीक-ए-तालिबान या उससे जुड़े नेटवर्क के खिलाफ कठोर कार्रवाई करता है तो आंतरिक असंतोष और विभाजन का खतरा बढ़ सकता है। यही कारण है कि तालिबान अक्सर स्पष्ट टकराव के बजाय नियंत्रण,समायोजन और मौन सहमति की नीति अपनाता है।

तालिबान यह भी जानता है कि इस्लामिक अमीरात की वैधता केवल बंदूक से नहीं,बल्कि जिहादी एकता और इस्लामी भाईचारे के नैरेटिव से भी आती है। किसी संगठन को खुलकर नाराज़ करना इस नैरेटिव को कमजोर कर सकता है।

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तनाव पर विराम तय नहीं

हालांकि इससे पाकिस्तान और तालिबान के बीच दीर्घकालीन रूप से युद्ध रुक ही जाएं, इसकी कोई गारंटी नहीं है। तालिबान की रणनीति अक्सर टाइम-गेनिंग और डैमे-कंट्रोल की रही है यानी बयान सख़्त, लेकिन अमल सीमित।

यदि पाकिस्तान का दबाव कम होता है या तालिबान को वैकल्पिक क्षेत्रीय समर्थन चीन,ईरान और रूस से मिलता है,तो इस फैसले का पालन और भी ढीला पड़ सकता है। वहीं भारत के सहयोग से तालिबान के हौंसले बुलंद है और पाकिस्तान इससे आशंकित ही रहेगा।

( लेखक विदेशी मामलों के जानकार हैं )

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