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छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने शिक्षक को दी राहत
CG High Court: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने शिक्षा विभाग के रवैये पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है कि किसी अधिकारी या कर्मचारी को सभी पात्रताएं पूरी करने के बावजूद पदोन्नति से वंचित रखना न सिर्फ अन्यायपूर्ण बल्कि भेदभावपूर्ण भी है। जस्टिस संजय जायसवाल की एकलपीठ ने प्रमोशन से वंचित शिक्षक के पक्ष में फैसला सुनाते हुए शिक्षा विभाग (CG Education Department) के उस आदेश को निरस्त कर दिया, जिसमें स्नातकोत्तर उपाधि न होने का हवाला देकर पदोन्नति से इनकार किया गया था।
1989 में नियुक्ति, फिर भी प्रमोशन में अड़चन
मामला शिक्षक दिनेश कुमार राठौर से जुड़ा है, जिनकी पहली नियुक्ति 26 अप्रैल 1989 को हुई थी। लंबे समय तक सेवा देने के बाद उन्हें 2 फरवरी 2009 को उच्च वर्ग शिक्षक के पद पर पदोन्नति (Teacher Promotion Case) दी गई। इसके बाद 18 अगस्त 2008 से वरिष्ठता भी प्रदान की गई थी। नियमों के अनुसार, पांच वर्ष की सेवा पूर्ण करने के बाद वे व्याख्याता पद के लिए पूरी तरह पात्र थे।
सीनियर को नजरअंदाज कर जूनियर को किया प्रमोट
छत्तीसगढ़ स्कूल शिक्षा राजपत्रित सेवा (स्कूल स्तर सेवा) भर्ती एवं पदोन्नति नियम, 2008 के तहत व्याख्याता के सभी पद पदोन्नति से भरे जाने हैं। इसके बावजूद विभागीय पदोन्नति समिति ने 19 जून 2012 को जारी आदेश में याचिकाकर्ता से जूनियर कर्मचारियों को प्रमोशन दे दिया, जबकि उनके प्रकरण पर विचार तक नहीं किया गया।
डिग्री थी, फिर भी दावा किया खारिज
शिक्षा विभाग ने यह कहकर याचिकाकर्ता का दावा खारिज कर दिया कि 1 अप्रैल 2010 को उनके पास स्नातकोत्तर उपाधि नहीं थी। जबकि सच्चाई यह थी कि उन्होंने 16 अप्रैल 2012 को पीजी डिग्री हासिल कर ली थी और प्रमोशन आदेश इसके बाद 19 जून 2012 को जारी हुआ था। यानी पदोन्नति की तारीख पर वे पूरी तरह योग्य थे।
हाईकोर्ट की शरण और न्याय की जीत
प्रशासनिक स्तर पर राहत न मिलने के बाद शिक्षक ने वर्ष 2015 में हाईकोर्ट का रुख किया। कोर्ट के निर्देशों के बावजूद विभाग ने 2016 में दोबारा दावा खारिज कर दिया। अंततः हाईकोर्ट ने इसे भेदभावपूर्ण करार देते हुए आदेश निरस्त किया और सक्षम प्राधिकारी को 90 दिनों के भीतर नियमों के अनुसार निर्णय लेने के निर्देश दिए।
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शिक्षा विभाग को स्पष्ट संदेश
हालांकि, याचिकाकर्ता को 1 जून 2017 को व्याख्याता पद पर पदोन्नति मिल चुकी थी, लेकिन कोर्ट ने मामले के गुण-दोष पर फैसला देकर शिक्षा विभाग को स्पष्ट संदेश दिया कि पात्र कर्मचारियों के अधिकारों से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
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