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World post day 2025
World Post Day 2025: थोड़े दिन पहले डाकघर गया था। वहां पोस्टकार्ड देखे मन डोल गया। बरबस काउंटर पर बैठी क्लर्क से चार पोस्टकार्ड मांग लिया। पोस्टकार्ड का आकर, उसकी खुशबू जैसे मुझे पुराने दिनों की ओर खींच ले गई। कभी धर्मयुग के संपादक गणेश मंत्री के हस्ताक्षर युक्त तो कभी किसी अन्य संपादक के हस्ताक्षर के साथ रचना प्रकाशन के लिए स्वीकृति का पोस्ट कार्ड मिलते ही मैं मुस्करा उठता। पिछले कुछ साल तक दादा बालकवि बैरागी जी एवं विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ के कुलसचिव का नियमित पोस्ट कार्ड मिलता रहा। दादा बैरागी जी के नहीं रहने से यह सिलसिला भी टूट गया।
लिफाफा डालने की लगती थी होड़
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अब हाथ से लिखने का चलन खत्म हो गया। टाइप कीजिए और बना बनाया लेख, समाचार अखबारों को, पत्रिकाओं को भेज दीजिए। लौटती डाक तो छोड़िए, एक संदेशा भी नहीं आता है कि छापा जाएगा या नहीं। वाट्सअप पर आने वाले पीडीएफ फाइल में तलाश कीजिए। छप गया तो मुस्कान और नहीं तो अगले दिन की प्रतीक्षा।
संपादक के नाम पत्र का पोस्टकार्ड से गहरा रिश्ता
थोड़े समय से अखबारों में संपादक के नाम पत्र की आंशिक वापसी हुई है। संपादक के नाम पत्र लिखने के लिए अब पोस्ट कार्ड की जरूरत नहीं होती है। लिखकर वाट्सअप कर दें या ईमेल। राहत यही है कि कुछ तो पीछे लौटे। संपादक के नाम पत्र एवं पोस्टकार्ड का आपस में गहरा रिश्ता है। यह नए लेखकों के लिए लिखने का तरीका सिखाता है। कम शब्दों में अपनी बात कैसे कहना। मैं जब कभी, जहां कहीं मीडिया के स्टूडेंट्स को पढ़ाने गया, वहां पोस्ट कार्ड जरूर लेकर जाता हूं। यह सीखने, बताने के लिए कि सीखने की यह पहली कड़ी है। बहुत सारे स्टूडेंट्स को तो पोस्टकार्ड भी नहीं मालूम। तभी तो सुनिए, पढ़िए जिंदगी का पोस्टकार्ड।
पोस्ट कार्ड: लेखन शैली विकसित करने का माध्यम
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पोस्ट कार्ड केवल संदेश भेजने का साधन नहीं था, बल्कि यह लिखने की कला सिखाने का भी माध्यम था। सीमित स्थान में अपनी बात सटीक और स्पष्ट तरीके से कहना हर लेखक के लिए एक अभ्यास की तरह होता था। कई नए लेखक और पत्रकार इसी से अपने लेखन जीवन की शुरुआत करते थे। यह माध्यम व्यक्ति को शब्दों की मितव्ययता, विचारों की स्पष्टता और भावनाओं को कम शब्दों में अभिव्यक्त करने की कला सिखाता था। पोस्ट कार्ड पर लिखे संदेशों में वह अपनापन झलकता था जो आज के डिजिटल संदेशों में अक्सर खो जाता है।
5 पैसे थी पोस्ट कार्ड की शुरुआती कीमत
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भारतीय डाक विभाग ने पोस्ट कार्ड की शुरुआत 1 जुलाई 1879 को की थी। लंबे समय तक इसकी कीमत मात्र 5 पैसे रही। बाद में यह बढ़कर 15 पैसे और फिर 50 पैसे तक पहुंची। सामान्य पोस्ट कार्ड के अलावा “चित्र पोस्ट कार्ड” और “अंतरराष्ट्रीय पोस्ट कार्ड” भी जारी किए जाते थे, जिनकी कीमत थोड़ी अधिक होती थी। उस दौर में हर घर में कुछ खाली पोस्ट कार्ड रखे रहते थे — कभी किसी मित्र को संदेश भेजने के लिए, तो कभी संपादक को पत्र लिखने के लिए।
अब पोस्ट कार्ड की जगह ईमेल और सोशल मीडिया
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आज के डिजिटल युग में पोस्ट कार्ड का चलन लगभग समाप्त हो चुका है। ईमेल, व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने संवाद के तरीकों को पूरी तरह बदल दिया है। अब संदेश तुरंत पहुंच जाते हैं, लेकिन उनमें वह मानवीय स्पर्श और इंतजार की खुशी नहीं रही जो कभी डाक के जरिये मिलती थी। पहले डाकिया के कदमों की आहट सुनते ही दिल धड़क उठता था।
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