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भोपाल। मध्य प्रदेश की राजनीति में सिंधिया राज परिवार (Scindia royal family) का दबदबा आज भी उसी तरह से कायम हैं, जैसे राजमाता विजयाराजे सिंधिया (Vijaya Raje Scindia) के समय में हुआ करता था। आज उनकी 20 वीं पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 25 जनवरी 2001 को राजमाता का निधन हुआ था। वो सिंधिया राज परिवार से पहली महिला थीं जिन्होंने राजसी ठाठ बाठ को छोड़कर जनसेवा में अपना हाथ आगे बढ़ाया था। उन्होंने ग्वालियर में शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किए। अपने निजी भवन को स्कूल और कॉलेज बनाने के लिए दान तक कर दिया था।
पुत्र और धर्मपुत्र के बीच फंस गई थीं राजमाता
राजमाता ने अपने करियर में उसूल के साथ राजनीति की थी। उनका अपने बेटे के साथ जीवन के अंत तक विवाद कायम रहा। उन्होंने अपने वसीयतनामे में भी लिख दिया था कि मेरे जाने के बाद अंतिम संस्कार में मेरा बेटा शामिल नहीं होगा। हालांकि जब वो इस दुनिया को छोड़कर चली गईं तो उनका अंतिम संस्कार उनके बेटे माधवराव सिंधया (Madhavrao Scindia) ने ही किया था। उन दोनों के बीच विवाद ऐसा था कि साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की हत्या के बाद जब लोकसभा के चुनाव हुए, तो कांग्रेस ने ग्वालियर सीट से उनके बेटे माधवराव सिंधिया को चुनावी मैदान में उतार दिया। वहीं भाजपा ने अपने तरफ से अटल बिहारी वाजपेयी को उम्मीदवार बनाया था। राजमाता के सामने धर्म संकट खड़ा हो गया। लोग कहने लगे की राजमाता के लिए ये चुनाव आसान नहीं होने वाला है वो अपने बटे के खिलाफ चुनाव प्रचार नहीं करेंगी।
विजयाराजे सिंधिया ज्यादा कुछ सोच पाती उससे पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) ने अपने आप को उनका धर्मपुत्र बता दिया। राजमाता अब अपने बेटे और धर्मपुत्र के बीच में फंस चुकीं थीं। आखिरकार उन्होंने फैसला किया कि वो अपने पार्टी के साथ जाएंगी और उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के लिए प्रचार करना शुरू कर दिया। लेकिन इस चुनाव में वाजपेयी जीत नहीं पाये। दूसरे तरफ सहानुभूती लहर पर सवार कांग्रेस ने ग्वालियर के किले को फतह कर दिया। माधवराव सिंधिया ने अटल बिहारी वाजपेयी को बड़े अंतर से हरा दिया था।
लेखा दिव्येश्वरी से विजयाराजे सिंधिया बनने की कहानी
विजयराजे सिंधिया का जन्म सागर जिले में 12 अक्टूबर सन् 1919 में राणा परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम महेंद्र सिंह ठाकुर था। जो जालौन जिले में डिप्टी कलेक्टर के पद पे तैनात थे। राजमाता को बचपन में उनकी मां देवेश्वरी देवी लेखा दिव्येश्वरी के नाम से बुलाती थीं। राजमाता अपने जीवन के शुरूआती दिनों में सागर के नेपाल हाउस में पली बढ़ी थी। लेकिन जब वो मुंबई पहुंची तो उनकी मुलाकात ताज होटल (Taj Hotel) में ग्वालियर राजघराने के राजा जीवाजी राव सिंधिया (Jiwajirao Scindia) से हुई। महाराजा को लेखा दिव्येश्वरी पहली ही नजर में पसंद आ गईं थी। उन्होंने देखते ही उन्हें राजकुमारी कहकर पुकारा था। जीवाजी राव ने लेखा से पहली ही मुलाकात में उन्हें अगले दिन परिवार के साथ मुंबई के समुद्र महल में आमंत्रित कर दिया। जब लेखा वहां पहुंची तो उनका स्वागत परम्परागत तरीके से महारानी की तरह किया गया। जीवाजी राव पहले ही मुलाकात में मन बना चुके थे कि उन्हें शादी लेखा से ही करनी है और हुआ भी कुछ ऐसा ही। उन्होंने कुछ दिन बाद ही शादी का प्रस्ताव नेपाल हाउस भिजवा दिया। जल्द ही दोनों की शादी हो गई और उसी दिन से लेखा दिव्येश्वरी, महारानी विजयाराजे सिंधिया हो गईं।
इस कारण से कांग्रेस से दूर हो गई थीं राजमाता सिंधिया
विजयाराजे सिंधिया और जीवाजी राव की शादी को लेकर सिंधिया राज परिवार खुश नहीं था। साथ ही मराठा सरदारों ने भी इस शादी का विरोध किया था। लेकिन जैसे जैसे दिन बीते विजयाराजे सिंधिया ने अपने काबिलियत और व्यवहार के दम सबका विश्वास एवं सम्मान जीत लिया। आजादी के बाद जब देश से राज-राजबाड़े खत्म होने लगे तो उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया। 1957 में उन्होंने गुना संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और वो जीत गईं। लेकिन एक दशक बाद ही उनका कांग्रेस से विवाद शरू हो गया। दरअसल, हुआ ये कि साल 1966 में मध्य प्रदेश में भीषण सूखा पड़ा था। लोग यहां सरकार के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन करने लगे। इस बात से नाराज होकर सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवा दी। पहले मार्च 1966 में बस्तर में गोली चली। जिसमें 11 लोग मारे गए। वहीं दूसरी बार सितंबर 1966 में ग्वालियर पुलिस ने दो प्रदर्शनकारी छात्रों पर गोली चला दी जिसमें उनकी जान चली गई। इस बात से विजयाराजे कांग्रेस से खिन्न गईं और आखिरकार उन्होंने कांग्रेस (Congress) को छोड़ने का फैसला कर लिया।