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हिंदी: विविधता की शक्ति या एकता का माध्यम, राष्ट्रीय हिंदी दिवस 2023 पर राजनीतिक रणनीतिकार अतुल मलिकराम के विचार

हिंदी: विविधता की शक्ति या एकता का माध्यम, राष्ट्रीय हिंदी दिवस 2023 पर राजनीतिक रणनीतिकार अतुल मलिकराम के विचार.

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Shyam Nandan
हिंदी: विविधता की शक्ति या एकता का माध्यम, राष्ट्रीय हिंदी दिवस 2023 पर राजनीतिक रणनीतिकार अतुल मलिकराम के विचार

राष्ट्रीय हिंदी दिवस 2023: कुछ दिनों पहले अखबार में हिंदी को लेकर एक आर्टिकल पढ़ा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देना चाहिए। अनायास ही मेरे मुँह से निकला- वाह! यदि ऐसा होना चाहिए, तो जिस भारत की परम्परा विविध सभ्यताओं और भाषाओं वाली है, उसका क्या?

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किसी विशेष क्षेत्र की भाषा, रीति-रिवाज को अन्य क्षेत्रों की भाषा या रीति-रिवाजों से केंद्र द्वारा अधिक महत्व देना, देश की एकता पर आघात करने जैसा है।

भारत अनेकताओं में एकता वाला देश है। हमारे संविधान में कहीं भी राष्ट्रभाषा का जिक्र तक नहीं है। अक्सर लोग ऐसे विचार भावनात्मक या फिर राजनैतिक आधार पर रखते हैं। पर उसके परिणाम के विषय में तनिक भी नहीं सोचते।

राष्ट्रभाषा बनाने से अधिक महत्वपूर्ण है हिंदी का प्रयोग

राष्ट्रभाषा बनाने से अधिक महत्वपूर्ण है हिंदी भाषियों द्वारा हिंदी का प्रयोग। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी भी हिंदी भाषी से आप पूछेंगे कि क्रिकेट को हिंदी में क्या बोलते हैं? तो वह 'गोलगट्टम लकड़ पट्टम दे दनादन प्रतियोगिता' नहीं बता पाएगा।

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इतनी हिंदी, हिंदी भाषी को पता होगी? और मोटरसाइकिल को हिंदी में क्या कहेंगे? 'यंत्र चालक द्वीपथ गामिनी' और पंप को वायु ठूसक यंत्र, अलमारी, रेल इत्यादि।

ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएँगे, जो शब्द हिंदी नहीं हैं, लेकिन हम इन्हें आम बोलचाल में उपयोग करते आ रहे हैं।

हमारा संघर्ष अंग्रेजी से होना चाहिए भारतीय भाषाओं से नहीं

ऐसी परिस्थिति में जब हिंदी भाषियों ने हिंदी पढ़ना या लिखना बंद कर दिया है, और इसके बाद आता है समझना, तो समझ तो हम इतने अच्छे से रहे हैं कि बेकार में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करके देश को तोड़ने का कार्य भी बड़ी कुशलता से कर रहे हैं।

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हम स्वयं तो हिंदी पढ़ेंगे या लिखेंगे नहीं, लेकिन दूसरों को अवश्य पढ़वाएँगे।

हिंदी प्रदेशों में कोर्ट कचहरी, बैंक, मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई, अखबार, सरकारी अनुबंध इत्यादि के काम अंग्रेजी में हो रहे हैं। नौकरी अंग्रेजी से मिल रही है।

तो हमारा संघर्ष अंग्रेजी से होना चाहिए भारतीय भाषाओं से नहीं। मराठी, दक्षिणी भाषी या बंगाली को हिंदी का राष्ट्रभाषा बनना कतई स्वीकार्य नहीं होगा और इसकी आवश्यकता भी क्यों है?

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मेरे हिसाब से तो यह फालतू के मुद्दें हैं, जिन्हें उठाना ही नहीं चाहिए।

राष्ट्रभाषा क्या, विश्वभाषा की सोचिए

#2030 के भारत के रूप में अगर हम हिंदी को बढ़ते हुए देखना चाहते हैं, तो हमें हिंदी विशेषज्ञों को बैठाकर आसान और उच्च स्तर के शब्द ईजाद करने होंगे।

जब तक हम आसान शब्दकोश नहीं लाएँगे, तब तक हिंदी को विस्तृत नहीं कर पाएँगे।

हिंदी को कई भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करना होगा और सबसे महत्वपूर्ण बात कि पहले हिंदी राज्यों में ठीक से हिंदी का प्रयोग हो।

हमारे अपने जीवन में हिन्दी का प्रयोग हो, फिर राष्ट्रभाषा क्या, विश्वभाषा की सोचिए।

अतुल मलिकराम के बारे में:

मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में जन्मे अतुल मलिकराम राजनीतिक रणनीतिकार, जनसंपर्क सलाहकार, लेखक और समाजसेवी हैं.

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डिस्क्लेमर: विचार मंथन में प्रस्तुत आर्टिकल में व्यक्त/उल्लिखित विचार लेखक के निजी विचार और अभिव्यक्ति हैं। बंसल न्यूज न तो उसका विरोध करता है और न ही समर्थन।

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