नई दिल्ली। हम सभी जानते हैं कि आजादी के बाद देश के सभी रियासतों को भारत में विलय करवाया गया था। लेकिन उस दौरान ज्यादातर राजा ऐसे थे जो अपनी रियासत को किसी भी कीमत पर विलय नहीं कराना चाहते थे। देश जब 1947 में आजद हुआ, तो मुगल और अंग्रेजों की शासन पर पकड़ खत्म हो चुकी थी। ऐसे में देशी रिसायतों ने फिर से ताकत जुटाना शुरू कर दिया था।
कुछ मुस्लिम शासक पाकिस्तान में चाहते थे विलय
राजाओं का कहना था कि उन्होंने आजादी के लिए संघर्ष किया है और उन्हें शासन चलाने का अच्छा तजुर्बा है। ऐसे में उन्हें स्वतंत्र राज्य ही रहने दिया जाए। वहीं कुछ मुस्लिम राजा ऐसे थे जो चाहते थे कि उनके सियासत का विलय पाकिस्तान में हो। भोपाल भी उसमें से एक था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत का एक ऐसा हिंदू राजा भी था जो चाहता था कि उसकी रियासत का विलय पाकिस्तान में हो। इस बारे में ज्यादातर लोगों को पता नहीं होगा तो आइए आज हम आपको बताते हैं इस राजा की कहानी।
इस किताब में विस्तार से किया गया है जिक्र
दरअसल, राजस्थान में आजादी के वक्त 22 रियासतें थी, जिनमें से एक अजमेर (मेरवाड़ा) ब्रिटिश शासन के कब्जे में था। बाकी 21 रियासतें भारतीय शासकों के अधीन थी। भारत की स्वतंत्रता के बाद अजमेर रियासत स्वतः ही देश में विलय हो गया। लेकिन शेष बचे 21 रियासतों के ज्यादातर राजा खुद को स्वतंत्र रखना चाहते थे। लेकिन एक हिंदू राजा ऐसे थे जो अपने रियासत को पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे। इस वाक्ये को कॉलिंस और डोमिनिक लेपियर की किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।
जिन्ना चाहते थे पाकिस्तान में मिलाना
वहीं दूसरी तरफ मोहम्मद अली जिन्ना भी जोधपुर (मारवाड़) को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे। इधर, जोधपुर के शासक हनवंत सिंह कांग्रेस के विरोध और अपनी सत्ता स्वतंत्र अस्तित्व की महत्वाकांक्षा में पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे। अगस्त 1947 में हनवंत सिंह धौलपुर के महाराजा तथा भोपाल के नवाब की मदद से जिन्ना से मिले। हनवंत सिंह की जिन्ना से बंदरगाह की सुविधा, रेलवे का अधिकार, अनाज तथा शस्रों के आयात आदि के विषय में बातचीत हुई। जिन्ना ने उन्हे हर तरह की शर्तों को पूरा करने का आश्वासन दिया।
उदयपुर के महाराजा ने ठुकरा दिया था प्रस्ताव
भोपाल के नवाब के प्रभाव में आकर हनवंत सिंह ने उदयपुर के महाराजा से भी पाकिस्तान में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन उदयपुर ने हनवंत सिंह के प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि एक हिंदू शासक हिंदू रियासत के साथ मुसलमानों के देश में शामिल नहीं होगा।
जनता इसके खिलाफ थी
इस बात ने हनवंत सिंह को भी प्रभावित किया और पाकिस्तान में मिलने के सवाल पर फिर से सोचने को मजबूर कर दिया। बतादें कि पाकिस्तान में मिलने के मुद्दे पर जोधपुर उस समय माहौल तनावपूर्ण हो चुका था। जोधपुर के ज्यादातर जागीरदार और जनता पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ थे। माउंटबेटन ने भी हनवंत सिंह को समझाया कि धर्म के आधार पर बंटे देश में मुस्लिम रियासत न होते हुए भी पाकिस्तान में मिलने के उनके फैसले से सांप्रदायिक भावनाएं भड़क सकती हैं।
आखिरकार भारत में ही हुआ विलय
वहीं दूसरी तरफ सरदार पटेल किसी भी कीमत पर जोधपुर को पाकिस्तान में मिलते हुए नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने जोधपुर के महाराज को आश्वासन दिया कि भारत में उन्हें वे सभी सुविधाएं दी जाएंगी, जिनकी मांग पाकिस्तान से की गई थी। जिसमें शस्रों का, अकालग्रस्त इलाकों में खाद्यानों की आपूर्ति, जोधपुर रेलवे लाइन का कच्छ तक विस्तार आदि शामिल था। हालांकि, मारवाड़ के कुछ जागीरदार भारत में भी विलय के विरोधी थे। वे मारवाड़ को एक स्वतंत्र राज्य के रुप में देखना चाहते थे, लेकिन महाराजा हनवंत सिंह ने समय को पहचानते हुए भारत-संघ के विलय पत्र पर 1 अगस्त 1949 को हस्ताक्षर कर अपने रियासत को भारत में विलय कर दिया।