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देश के गुमनाम नायक सतीश धवन की कहानी, जिनसे इंदिरा गांधी ने भारत लौटने का अनुरोध किया था

Bansal Digital Desk by Bansal Digital Desk
September 5, 2024
in भारत
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नई दिल्ली। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो आज जहां है वहां तक पहुंचाने में भारत के दो वैज्ञानिकों का अहम योगदान माना जा रहा है। विक्रम ए साराभाई (Vikram A Sarabhai) और सतीश धवन (Satish Dhawan), दोनों ही भारत के महान रॉकेट साइंटिस्ट थे जिनके प्रयासों की बदौलत ही इसरों आज NASA के बाद स्पेस साइंस के क्षेत्र में सबसे बड़ी और विश्वसनीय एजेंसी है। विक्रम ए सारा भाई को तो ज्यादातर लोग जानते हैं लेकिन सतीश धवन गुमनाम नायकों में से एक हैं। आज उनका जन्मदिन है तो हमने सोचा क्यों न आज हम आपको उनकी निजी जिंदगी के बारे में बताए। तो चलिए जानते हैं गुमनाम नायक सतीश धवन के बारे में।

इसरो को विश्व-स्तर पर ले जाने का श्रेय धवन को जाता है

बेशक भारतीय स्पेस प्रोग्राम के जन्म का श्रेय विक्रम साराभाई को जाता है, जिन्होंने यह सपना देखा और इसकी नींव रखी। पर इस सपने को सींचने वाले वैज्ञानिक थें प्रोफेसर धवन, जिन्होंने इसरो की स्थापना करके उसे विश्व-स्तर पर ला खड़ा किया। 25 सितंबर, 1920 को श्रीनगर में पैदा हुए सतीश धवन ने पंजाब विश्वविद्यालय से अलग-अलग विषयों में स्नातक की डिग्री प्राप्त की, जिसमें गणित में बीए, अंग्रेजी साहित्य में एमए और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीई शामिल है।

पढ़ाई के लिए अमेरिका गए

इसके बाद धवन अपनी आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए। उन्होंने अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में एम.एस की डिग्री पूरी की। इसके बाद वे एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल करने के लिए कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (कैल्टेक) गए। इसके बाद धवन ने कैल्टेक से ही साल 1954 में एरोनॉटिक्स और गणित में प्रमुख एयरोस्पेस वैज्ञानिक प्रोफेसर हंस डब्ल्यू लिपमैन के मार्गदर्शन में अपनी पीएचडी की पढ़ाई पूरी की। इसी दौरान उन्होंने फ्लूएड डायनामिक्स क्षेत्र में अपना रिसर्च करियर शुरू किया।

बंगलुरू में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए

इसके तुरंत बाद वे बंगलुरू के भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए। कुछ साल बाद, उन्हें एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख पद पर पदोन्नत किया गया। उनके मार्गदर्शन में यह विभाग जल्द ही फ्लूएड डायनामिक्स के क्षेत्र में शोध का केंद्र बन गया। वास्तव में यह धवन द्वारा आयोजित किया गया पायलट प्रोजेक्ट ही था जिसने बंगलुरु की नेशनल एयरोस्पेस प्रयोगशालाओं में (NAL) में विश्व स्तरीय विंड टनल फसिलिटी (एयरक्राफ्ट, मिसाइलों और अंतरिक्ष वाहनों के एरोडायनेमिक परीक्षण के लिए) के निर्माण के लिए रास्ते खोले।

सबसे कम उम्र के निदेशक बने

साल 1962 में उन्हें आईआईएससी के निदेशक के तौर पर नियुक्त किया गया। इस पद पर नियुक्त होने वाले वे सबसे कम उम्र के वैज्ञानिक थे साथ ही सबसे ज्यादा समय तक कार्यरत रहने वाले निदेशक भी रहे। उन्होंने 9 वर्षों तक IISC के निदेशक के रूप में कार्य किया। इसके बाद साल 1971 में वे एक साल के लिए कैल्टेक चले गए। एक दिन उन्हें भारतीय दूतावास से फोन आया कि प्रधानमंत्री इंदिया गांधी ने अनुरोध किया है कि वे भारत लौट आए और इंडियन स्पेस प्रोग्राम का कार्यभार संभाल लें। बतादें कि यह फैसला 30 दिसंबर 1971 को विक्रम साराभाई की अचानक हुई मृत्यु के बाद लिया गया था।

IISC उनका पहला और आखिरी प्यार था

ऐसे में धवन ने देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम के मुख्य पदभार को संभालने का फैसला किया, लेकिन उनकी दो शर्ती थीं। पहला- अंतरिक्ष कार्यक्रम का मुख्यालय बंगलुरू में बनाया जाए और दूसरा उन्हें इस पद के साथ-साथ आईआईएससी के निदेशक के पद का कार्यभार भी संभालने की अनुमति दी जाए। क्यों कि उनके लिए आईआईएससी ही पहला और आखिरी प्यार था। सरकार ने उनकी दोनों शर्तें मान लीं और धवन कैल्टेक से भारत लौट आए।

उन्होंने गतिशील प्रबंधन संरचना की शुरूआत की

भारत लौटते ही सतीश धवन ने सभी विषयों पर काम, प्रोग्राम्स की फंडिंग और समय पर सभी टेक्नोलॉजी प्रोडक्ट का निर्माण, यह सभी कुछ उन्होंने सुनिश्चित किया। इसरो में उन्होंने एक ऐसे गतिशील प्रबंधन संरचना की शुरूआत की, जो इनोवेशन को प्रोत्साहित करता था। उन्हें धीरे-धीरे इसके परिणाम भी मिलने शुरू हो गए। धवन ने इसरो प्रोजेक्ट्स में स्वदेशी उद्योग की महत्वपूर् भूमिका पर जोर दिया।

इसरो में काम करने वाले कर्मचारियों को उन्होंने खुद चुना था

धवन ने खुद इसरों में काम करने वाले युवा, बुद्धिमान और समर्पित कर्मचारियों को चुना। उन्होंने युवाओं को प्रोत्साहित किया, सफल होने पर इन युवा वैज्ञानिकों को उनके काम का श्रेय देते, तो कभी उनकी असफलताओं की जिम्मेदारी भी वे ले लेते। रिटायर होने के बाद भी उन्होंने विज्ञान और प्रोद्योगिकी पर अपना ध्यान बनाये रखा। वे अंतरिक्ष में सैन्यीकरण पर काफी चिंतित रहते थे। 3 जनवरी, 2002 को भारत ने अपने सबसे काबिल वैज्ञानिकों में से एक को खो दिया।

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