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Teachers Day 2024: शिक्षा जगत में सकारात्मक परिवर्तन जरूरी, अभी अच्छे और अनुशासित नागरिक बनाने में फेल हो रहा एजुकेशन सिस्टम

Teachers Day 2024: शिक्षा जगत में सकारात्मक परिवर्तन आवश्यक हैं। शिक्षक दिवस पर डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र का आर्टिकल पढ़ें।

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Rahul Garhwal
Teachers Day 2024 Positive change necessary in the field of education Dr Krishnagopal Mishra

Teachers Day 2024: आज 'शिक्षा' का अर्थ साक्षरता और सूचनात्मक जानकारियों से समृद्ध होना है और आज की शिक्षा का उद्देश्य किसी शासकीय, अशासकीय कार्यालय का वेतनभोगी अधिकारी-कर्मचारी बनना भर है। इस अर्थ में शिक्षा अपने वास्तविक स्वरूप और उद्देश्य से बहुत दूर है और तथाकथित शिक्षित उत्पन्न कर आधी-अधूरी क्षमताओं वाले बेरोजगारों की भीड़ जुटा रही है।
आधुनिक शिक्षा की इसी अपूर्ण और असफल अवधारणा को लक्ष्य कर कभी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इसके नाश की कामना करते हुए 'भारत भारती' में लिखा था-

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शिक्षे ! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनीं

भारतवर्ष में शिक्षा का यह भ्रामक स्वरूप ब्रिटिशकाल में अस्तित्व में आया। अंग्रेजों का उद्देश्य अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारतीयों में एक ऐसे नए वर्ग का निर्माण करना था जो राजकाज में उनकी सहायता करके ब्रिटिश राज्य की रीतियों-नीतियों को संचालित करने में तथा उनके शासनतंत्र को स्थापित करने में सहायक सिद्ध हो। शिक्षा के माध्यम से आत्मगौरव, मूल्यचेतना, विवेक-बोध आदि आवश्यक उद्देश्यों को प्राप्त करने की न उन्हें आवश्यकता थी और न उन्होंने इसके लिए कोई प्रयत्न किया। उन्हें अपने साम्राज्य-रथ को खींचने के लिए तथाकथित शिक्षित युवाओं के रूप में ऐसे अश्व चाहिए थे जो केवल दाना-पानी और थोड़ी-सी सुविधाओं के लिए अपने सांस्कृतिक मूल्यों से कटकर उनकी चाकरी में ही जीवन की सार्थकता स्वीकार करें। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी शिक्षा का यही छद्म हमारे देश में विकसित हुआ है। परिणामतः शिक्षितों के नाम पर नैतिकमूल्य-विहीन सुविधाजीवियों की ऐसी भारी भीड़ समुपस्थित है, जो कर्तव्य-बोध से बहुत दूर है और अधिकारों की प्राप्ति के लिए हिंसक आंदोलनों पर उतारू है।

अच्छे और अनुशासित नागरिक बनाने में असफल शिक्षा व्यवस्था

एक खबर के अनुसार जैन समाज के लगभग 422 तीर्थ यात्रियों का बड़ा समूह झारखंड के जैनतीर्थ सम्मेद शिखर जी की यात्रा के लिए प्रातः 6 बजे 'इंदौर हावड़ा शिप्रा एक्सप्रेस' से यात्रा करने के लिए गंजबासौदा रेलवे स्टेशन पर पहुंचा किंतु तीर्थ यात्रियों की पहले से आरक्षित सीटों पर अनाधिकृत रूप से कब्जा जमाए बैठे बिहार के लगभग 500 युवकों ने, जो इंदौर से रेलवे की परीक्षा देकर वापस लौट रहे थे, तीर्थयात्रियों को यात्रा नहीं करने दी। झगड़ा, पथराव, चेन पुलिंग जैसी अवांछनीय गतिविधियों द्वारा उन्होंने नियमानुसार यात्रा के लिए पात्र नागरिकों को उनके न्यायोचित अधिकार से वंचित कर दिया और अपनी सुविधा के लिए अपराध के स्तर तक जाकर आज की शिक्षा-व्यवस्था पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। भीड़ में बदलकर युवा-शक्ति का दुरुपयोग करती यह कैसी शिक्षित पीढ़ी है, जिसमें न अपने उत्तरदायित्व का भान है, न अपने कर्तव्य का ज्ञान है, न अपने देश के कानून और नागरिकों के सम्मान की भावना है। ऐसी तथाकथित शिक्षित पीढ़ी से हम किस स्वर्णिम भविष्य की आशा कर सकते हैं ? युवकों की अपनी समस्याएं हो सकती हैं, किंतु इनका यह समाधान कदापि नहीं हो सकता कि वे अन्य नागरिकों के अधिकारों के हनन पर उतारू हो जाएँ। ऐसी अनुत्तरदायित्व पूर्ण मानसिकता की उद्दंड पीढ़ी नौकरी पाकर क्या जनसेवा करेगी ? यह एक बड़ा प्रश्न है! इस प्रकार की यदा-कदा घटने बाली दुर्घटनाएँ इस तथ्य की साक्षी हैं कि हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था अच्छे और अनुशासित नागरिक बनाने में असफल हो रही है।

गिर रहा शिक्षा का स्तर

आए दिन घटने वाली ऐसी दुर्घटनाओं के लिए केवल युवकों को ही दोषी ठहराना उचित नहीं कहा जा सकता। इसके लिए शिक्षा व्यवस्था, शिक्षक, समाज और विफल होती कानून व्यवस्था भी उत्तरदायी है। हम अपने बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने में असफल हो रहे हैं। माता-पिता, परिजन और शिक्षकों की अनुत्तरदायित्व पूर्ण मनमानियां नई पीढ़ी को संस्कारित करने में असमर्थ सिद्ध हो रही हैं और शिक्षा का उद्देश्य पीछे छूट रहा है। शिक्षण संस्थाओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है, किंतु शिक्षा का स्तर गिर रहा है। पाठ्य-सामग्री में मानवीय मूल्यों की उपेक्षा, शिक्षण-संस्थानों में संसाधनों की अनुपलब्धता, शिक्षकों में दायित्व-निष्ठा और शिक्षणकौशल की कमी, शिक्षा-क्षेत्र में राजनीति का अनावश्यक हस्तक्षेप आदि अनेक कारण इसके लिए उत्तरदायी हैं।

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शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला

शिक्षा केवल साक्षरता अथवा सूचनात्मक समृद्धि नहीं है। वह मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला है, मानवीय मूल्यों की पुष्टि का प्रभावी उपादान है, विवेक को विकसित करने का माध्यम है, अधिकारों के प्रति जागरुकता के साथ कर्तव्यों के प्रति निष्ठा और समर्पण का बोध है। शिक्षा का प्रथम तथा अंतिम लक्ष्य देश और समाज के लिए समर्पित सुयोग्य नागरिक रचना है। इसके लिए शिक्षा क्षेत्र में बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है। यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन के लिए अनेक प्रयोग हुए, आयोग बनाए गए, शिक्षा नीतियों में परिवर्तन की दुहाई भी दी गई किन्तु शिक्षा का स्वरूप लगभग पहले जैसा ही बना रहा।

केवल कागजी प्रमाण पत्र योग्यता का मानक नहीं

दो तिहाई असफलता के बाबजूद एक तिहाई सफलता के आधार पर शिक्षार्थी अगले स्तर पर भेजे जाते रहे। केवल कागजी प्रमाण पत्रों को ही योग्यता का मानक मान लेने से वास्तविक योग्यता की परीक्षा संभव नहीं हुई और हर क्षेत्र में अल्पकुशल एवं अल्पयोग्य जन प्रतिष्ठित हुए जिससे लोकसेवा का पथ बाधित हुआ। व्यावहारिक स्तर पर प्रमाण पत्रों और उपाधियों से अधिक योग्यता और गुणवत्ता की आवश्यकता है क्योंकि व्यवहारिक क्षेत्र में कागजी अभिलेख नहीं, कर्म की कुशलता अपेक्षित होती है।

शिक्षा जगत में सकारात्मक परिवर्तन से ही देश का विकास संभव

युवा शक्ति को उचित दिशा दिए बिना हम सशक्त, समृद्ध और सुरक्षित भारत का निर्माण नहीं कर सकते और शिक्षा का विकास रथ युगीन अपेक्षाओं के अनुरूप उचित पथ पर अग्रसर किए बिना चरित्रवान अनुशासित युवकों की पीढ़ी का विकास नहीं किया जा सकता। शिक्षा जगत में होने वाले सकारात्मक भावी परिवर्तनों से ही देश का अपेक्षित विकास संभव है। इसलिए इस दिशा में गंभीर विचार और प्रयत्न अपेक्षित हैं।

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( लेखक नर्मदापुरम के नर्मदा कॉलेज में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं )

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