Shri Hanuman Chalisa Path Ke Niyam: हमारे धर्म शास्त्र में संकटमोचन श्री हनुमान की आराधना करने से सारे कष्ट दूर होते हैं। पर कई बार भक्त इनके पाठ को गलत तरीके से करते हैं। जिससे उन्हें लाभ होने की बजाए नुकसान झेलने पड़ सकते हैं।
ऐसे में यदि आप भी श्रीहनुमान चालीसा (Hanuman Chalisa) करते हैं तो आपको इसके नियम जान लेने चाहिए। आज हम बात करेंगे श्लोक नंबर तीन की। तो चलिए जानते हैं इसके बारे में सब कुछ पंडित अनिल पांडे (8959594400)से।
महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥
अर्थ-
श्री हनुमान जी आप एक महान वीर और सबसे अधिक बलवान हैं। आपके अंग वज्र के समान मजबूत हैं। आपकी आराधना करके नकारात्मक बुद्धि और सोच का नाश होता है। सद्बुद्धि आती है। आपका रंग कंचन अर्थात सोने जैसा चमकदार है। आपके कानों में पड़े कुंडल और घुंघराले केश आपकी शोभा को बढ़ाते हैं।
भावार्थ-
अगर आपको किसी को प्रसन्न करना है तो सबसे पहले उसके गुणों का वर्णन करना पड़ेगा। श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए तुलसीदास जी उनके गुणों का बखान कर रहे हैं। महावीर हनुमान जी दया, त्याग, विद्या की खान हैं।
हनुमान जी का वीरता में कोई मुकाबला नहीं है, इसीलिए उनको महावीर कहा जाता है। अत्यंत पराक्रमी और अजेय होने के कारण हनुमान जी विक्रम और बजरंगी भी हैं। प्राणी मात्र के परम हितेषी होने के कारण उन्हें बचाने के लिए प्राणियों के मस्तिष्क से खराब विचार हटाकर अच्छे विचारों को डालते हैं।
इस चौपाई में हनुमान जी के सुंदर स्वरूप का वर्णन हुआ है।
उनके एक हाथ में वज्र के समान गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म का विजय ध्वज है। उनके कंधे पर मूंज का जनेऊ विराजमान है। यह उनके ब्रह्मचारी एवं ज्ञानी होने का प्रतीक है। सभी प्रकार के अच्छे गुणों से श्री हनुमान जी सुसज्जित हैं।
संदेश-
अगर आप श्री हनुमान जी के स्वरूप का स्मरण करते हैं तो आपकी बुद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह शुद्ध हो जाती है।
इन चौपाईयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ-
1-महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।
2-कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से बुरी संगत से छुटकारा, अच्छे लोगो का साथ, आर्थिक समृद्धि, अच्छा खानपान, अच्छा संस्कार और अच्छा पहनावा प्राप्त होगा।
विवेचना
हनुमान चालीसा (Shri Hanuman Chalisa Path Ke Niyam) में इस चौपाई में मुख्य रूप से हनुमान जी के भौतिक शरीर का वर्णन है। हनुमान जी को महावीर, विक्रम बजरंगी, कंचन वर्ण वाले, अच्छे कपड़े पहनने वाले, कानों में कुंडल धारण वाले, घुंघराले केश वाले बताया गया है, परंतु सबसे पहले उनको महावीर (Mahaveer) कहा गया है। सच्चे वीर पुरुष में धैर्य, गम्भीरता, स्वाभिमान, साहस आदि गुण होते हैं।
उनमें उच्च मनोबल, पवित्रता और सबके प्रति प्रेम की भावना होती है। महावीर के अंदर इन गुणों की मात्रा अनंत होती है। अनंत का अर्थ होता है जिसकी कोई सीमा न हो, जिसको नापा ना जा सके, जिसकी कोई तुलना ना हो सके आदि।
ईशावास्य उपनिषद के अनुसार अनंत को पूर्ण भी कहते हैं। कहां गया है:-
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्, पूर्ण मुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।
ॐ शांति: शांति: शांतिः।।
वह अनंत है और यह (ब्रह्मांड) अनंत है। अनंत से अनंत की प्राप्ति होती है। (तब) अनंत (ब्रह्मांड) की अनंतता लेते हुए, वह अनंत के रूप में अकेला रहता है। ओम्! शांति! शांति! शांति!
इसी प्रकार महावीर हनुमान जी की शक्तियां भी अनंत हैं। हनुमान जी का एक नाम महावीर भी प्रचलित है। महावीर वह होता है जो सभी की सभी तरफ से सभी दुखों एवं कष्टों से रक्षा कर सके और रक्षा करता हो। क्योंकि हनुमान जी यह सब करने में सक्षम है तथा सब की रक्षा करते हैं अतः उनको महावीर कहा गया है।
कवि उनके विक्रम बलशाली महावीर रूप की आराधना सबसे पहले करना चाहता है, जिससे सभी की रक्षा हो सके।
हनुमान जी को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए और इस चौपाई में दिए गए वर्णन को सिद्ध करने के लिए रामचरितमानस के सुंदरकांड की तीसरा श्लोक पर्याप्त है-
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।
श्री हनुमान जी अतुलित बल के स्वामी हैं। वे स्वर्ण पर्वत, सुमेरु के समान प्रकाशित हैं। श्री हनुमान दानवों के जंगल को समाप्त करने के लिए अग्नि रूप में हैं। वे ज्ञानियों में अग्रणी रहते हैं। श्री हनुमान जी समस्त गुणों के स्वामी हैं और वानरों के प्रमुख हैं। श्री हनुमान रघुपति श्री राम के प्रिय और वायु पुत्र हैं।
हनुमान जी महावीर हैं इस बात को श्री रामचंद्र जी ने, अगस्त मुनि ने, सीता जी ने और अंत में रावण ने भी कहा है। हनुमान जी के ताकत का अनुमान देवताओं के राजा इंद्र और सूर्य देव को भी है। जिन्होंने हनुमान जी के ताकत का स्वाद चखा था। हनुमान जी के बल का अनुमान भगवान कृष्ण को भी है, जिन्होंने भीम के घमंड को तोड़ने के लिए हनुमान जी को चुना था।
अब चौपाई के अगले चरण पर आते हैं जिसमें कहा गया है “कुमति निवार सुमति के संगी”।
हमको यह समझना पड़ेगा सुमति और कुमति में क्या अंतर है। अगर हम साधारण अर्थ में समझना चाहें तो कुमति का अर्थ है, नकारात्मक विचार और सुमति का अर्थ है सकारात्मक विचार।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है-
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है।
व्यक्ति को सुख-समृद्धि पाने के लिए, प्रगति एवं विकास के लिए हमेशा सुबुद्धि से काम लेकर सुविचारित ढंग से अपना प्रत्येक कार्य निष्पादित करना चाहिए। सुमति का मार्ग ही मानव के कल्याण का मार्ग है।
हनुमान जी आपके बुद्धि से कुमति को हटा करके सुमति को लाते हैं। इसके कारण आप कल्याण के मार्ग पर चलने लगते हैं और बुद्धि अच्छे कार्य करने के योग्य बन जाती है।
कुमति के मार्ग से हटाकर सुमित के मार्ग पर लाने का सबसे अच्छा उदाहरण सुग्रीव के मानसिक स्थिति के परिवर्तन का है। सुग्रीम जी जब बाली के वध के बाद किष्किंधा के राजा हो गए थे। इसके उपरांत वे अपनी पत्नी रमा और बाली की पत्नी तारा के साथ मिलकर आमोद प्रमोद में मग्न हो गये थे। कुमति पूरी तरह से उनके दिमाग पर छा गई थी। अपने मित्र श्री रामचंद्र जी के कार्य को पूरी तरह से भूल गए थे।
हनुमान जी ने सुग्रीव की स्थिति को समझा । संभाषण के उपरोक्त गुणों से संपन्न हनुमान जी ने उचित अवसर जानकर उपयुक्त परामर्श देते हुए वानर राज सुग्रीव से कहा कि हे राजा यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के बाद उन्हें मित्र (अर्थात श्री रामचंद्र जी)का बाकी कार्य पूर्ण करना चाहिए।
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥
अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥
यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया।
हनुमान्जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानर रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो। इस प्रकार हनुमान जी ने सुग्रीव को कुमति से सुमति के रास्ते पर लाए और रामचंद्र जी के कोप से उनको बचाया।
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥
इस लाइन में तुलसीदास जी ने हनुमान जी के काया का शरीर का वर्णन किया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के शरीर का रंग कंचन वरन अर्थात सोने के समान है या सोने के रंग जैसा हनुमान जी का रंग है। इन दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है। सोने के समान रंग होना या सोने के रंग जैसा होना दोनों बातें बिल्कुल अलग अलग है। हमारे समाज में हम हर अच्छी चीज को सोने जैसा बोल देते हैं। जैसे कि आपकी लेखनी सोने जैसी सुंदर है।
यहां पर आपकी लेखनी सोने की नहीं है वरन जिस प्रकार सोना महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार आपकी लेखनी भी महत्वपूर्ण है। सोना चमकता और एक बलशाली पुरुष का शरीर भी चमकता है। शरीर की मांसपेशियां उसकी ताकत को बताती है। सोने का रंग पीला होता है।
भारतवर्ष में गोरे लोग दो तरह के होते हैं। कुछ गोरे लोगों में लाल रंग की छाया होती है और कुछ गोरे लोगों में पीले रंग की। अगर हम सोने के शाब्दिक अर्थ को लें तो हनुमान जी का रंग गोरा कहा जाएगा, जिस पर पीले रंग की छाया होनी चाहिए।
यह संभव भी है क्योंकि हनुमान जी पवन देव के पुत्र थे और देवताओं का रंग गोरा माना जाता है। यह गोरा रंग तो और ज्यादा दिखाई देता है जब आदमी व्यायाम करके उठा हो या उत्तेजित अवस्था में हो।
श्री देवदत्त पटनायक जी ने अपनी किताब “मेरी हनुमान चालीसा” जिसका अनुवाद श्री भरत तिवारी जी ने किया है उसके पृष्ठ क्रमांक 35 पर बताते हैं कि “सुनहरे रंग का होना हमें याद दिलाता है कि हनुमान सुनहरे बालों वाले वानर हैं। लेकिन कान का बुंदा और घुंघराले बाल उनकी मानव जाति को दर्शाते हैं, क्योंकि गहना मानव ही पहनता है और मानव के सर पर बाल होते हैं।”
हनुमान जी के वानर या मानव होने के विबाद में पटनायक जी नहीं उलझे हैं। उन्होंने शायद इसको विचार योग्य विषय नहीं पाया है। महाकाव्य रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में दिखाया जाता है।
उनके कंधे पर जनेऊ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभुषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पूँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।
परंतु आइए हम इस पर विचार करते हैं। सामान्य जन मानते हैं कि हनुमान जी वन्दर समूह के थे, परंतु कोई भी वन्दर स्वर्ण के रंग का नहीं हो सकता है। कानों में कुंडल, सज धज के बैठना घुंघराले बाल और कानों में बंदा किसी भी वन्दर के लक्षण नहीं हो सकते हैं। हनुमान चालीसा की यह चौपाई बता रही है कि हनुमान जी बंदर नहीं बल्कि मानव थे। फिर यह वानर किस प्रकार का है जिसके पूछ भी थी और क्या अब तक की मान्यता गलत थी। आइए इस पर विचार करते हैं।
अगर हम हनुमान जी को बंदर नहीं बल्कि वानर कुल का मानते हैं तो इसका प्रमाण क्या है। बहुत प्राचीनकाल में आर्य लोग हिमालय के आसपास ही रहते थे। वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, मानव, दानव, राक्षस, वानर, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्याधर।
देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। देवता गण कश्यप ऋषि और अदिति की संताने हैं और ये सभी हिमालय के नंदनकानन वन में रहते थे। गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां देवताओं के साथ ही हिमालय के भूभाग पर रहा करती थी।
असुरों को दैत्य कहा जाता है। दैत्यों की उत्पत्ति कश्यप ऋषि और इनकी दूसरी पत्नी दिति से हुई थी। इसी प्रकार ऋषि कश्यप के अन्य पत्नियों से दानव एवं राक्षस तथा अन्य जातियों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार वानरों की कई प्रजातियं प्राचीनकाल में भारत में रहती थी। हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम ‘कपि’ था। भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में वानरों और असुरों का राज था। हालांकि दक्षिण में मलय पर्वत और ऋष्यमूक पर्वत के आसपास भी वानरों का राज था। इसके अलावा जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, मलेशिया, माली, थाईलैंड जैसे द्वीपों के कुछ हिस्सों पर भी वानर जाति का राज था।
ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। उल्लेखनीय है कि उरांव आदिवासी से संबद्ध लोगों द्वारा बोली जाने वाली कुरुख भाषा में ‘टिग्गा’ एक गोत्र है जिसका अर्थ वानर होता है। कंवार आदिवासियों में एक गोत्र है जिसे हनुमान कहा जाता है। इसी प्रकार, गिद्ध कई अनुसूचित जनजातियों में एक गोत्र है। ओराँव या उराँव वर्तमान में छोटा नागपुर क्षेत्र का एक आदिवासी समूह है। ओराँव अथवा उराँव नाम इस समूह को दूसरे लोगों ने दिया है। अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको ‘कुरुख’ नाम से वर्णित करता है।
उराँव भाषा द्रविड़ परिवार की है जो समीपवर्ती आदिवासी समूहों की मुंडा भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। उराँव भाषा और कन्नड में अनेक समताएं हैं। संभवत: इन्हें ही ध्यान में रखते हुए, श्री गेट ने 1901 की अपनी जनगणना की रिपोर्ट में यह संभावना व्यक्त की थी कि उराँव मूलत: कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। शरच्चंद्र राय जी ने अपनी पुस्तक दि ओराँव और धीरेंद्रनाथ मजूमदार ने अपनी पुस्तक रेसेज़ ऐंड कल्चर्स ऑफ इंडिया में इसका विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।
अगर हम ध्यान दें तो कपि कुल के पुरुषों के पास लांगूलम् होता था, परंतु स्त्रियों के पास नहीं। वर्तमान बंदरों में पूछ नर और मादा दोनों प्रकार के बंदरों में होती है। अतः यह कहना क्योंकि हनुमान जी के पास पूछं थी अतः वे बंदर थे सही प्रतीत नहीं होता है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी समस्त उपनिषदों और व्याकरण इत्यादि के ज्ञाता थे। अलौकिक ब्रह्मचारी महावीर चतुर और बुद्धिमान रामचंद्र जी के परम सेवक हनुमान जी बंदर नहीं हो सकते हैं। हमारे कई विद्वानों ने हनुमान जी को बंदर मानकर उनके साथ एक बहुत बड़ा अन्याय किया है, हम नादान स्वयं ही अपनी छवि खराब करते हैं।
जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। सुग्रीव के डर को देखकर हनुमान जी तत्काल श्री राम और लक्ष्मण जी से मिलने के लिए चल पड़े। उन्होंने अपना रूप बदलकर ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया। श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया।
तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक 28 )
अर्थात- जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अनुश्रवण नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश दितम्।।
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक 29 )
अर्थ- निश्चय ही इन्होंने व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।। (वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक 30 )
अर्थ- बोलने के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।
क्या किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने?
व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे? रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर सीता माता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः। मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक 29 )
अर्थ-
हे वीरवर! तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो।
इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे, परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में ही तीसरा प्रमाण भी है। जब हनुमान जी लंका के अंदर प्रवेश करने के उपरांत सीता माता का पता नहीं लगा पाए, तब वह सोचने लगे-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।। (वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग )
अर्थ- मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा।
वानप्रस्थ जाने के बारे में कोई मनुष्य की सोच सकता है बंदर नहीं। मेरा अपने पौराणिक भाई बहनों से निवेदन है कि वह अपना हक त्याग कर हनुमान जी को भगवान शिव के अवतार के रूप में मानव शरीर धारण किए हुए देवता माने।
हनुमान चालीसा में भी कहा गया है-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे
कांधे मूंज जनेऊ साजे
किंचित हम चौपाई से यह अर्थ से निकाल लेते कि जनेऊ धारण करने वाला बंदर नहीं हो सकता मनुष्य ही होगा।
वाल्मीकि जी ने बाली की पत्नी तारा को आर्य पुत्री कहा है। इससे यह स्पष्ट है की बाली और बाकी वानर भी आर्य पुत्र ही थे अर्थात मनुष्य थे। तारा को आर्य पुत्री घोषित करते हुए बाल्मीकि रामायण का यह श्लोक दृष्टव्य है।
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।। (वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक 29 )
अर्थ- ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर श्री राम के पास गई।
आज भी हमारे भारतवर्ष में नाग, सिंह, गिरी, हाथी, मोर सरनेम के लोग मिलते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं उस समय हनुमान जी और उनके कुल के लोगों का सरनेम वानर रहा होगा।
आगे तुलसीदास जी कहते हैं “विराज सुवेशा।” इसका अर्थ है कि हनुमानजी सज धज कर बैठे हुए हैं। हनुमान जी के सर पर मुकुट है, कंधे पर जनेऊ है और गदा है। लंगोट बांधे हुए हैं। एक वीर और बहुत ही ताकतवर पुरुष की आकृति दिखाई देती है। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है उनके कानों में कुंडल है और उनके जो बाल हैं वे घुंघराले हैं। किसी भी वानर का बाल घुंघराले नहीं होते हैं, यह भी इस बात को सिद्ध करता है कि हनुमान जी एक मानव थे।
वर्तमान में जितनी भी प्रमाण उपलब्ध हैं, उन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि हनुमानजी बंदर नहीं थे। वे मानव थे और उनका कुल वानर था। पूंछ संभवत अलग से जोड़ा जाने वाला कोई कोड़े टाइप का अस्त्र था, जिससे वानर कुल के लोग पूंछ की भांति बांधकर अपने पास रखते थे और वह उनके कुल का परिचायक था।