भोपाल। भोपाल हमेशा से शेरो शायरी के लिए जाना जाता है। यहां कई नामचीन शायर हुए। जिनमें ताज भोपाली, कैफ भोपाली, मंज़र भोपाली और शेरी भोपाली का नाम प्रमुखता से आता है। आज हम आपको ‘शेरी भोपाली’ के बारे में बताएंगे। क्योंकि आज ही के दिन 9 जुलाई 1991 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।
उनका जन्म आगरा में हुआ था
शेरी भोपाली का जन्म भोपाल में नहीं बल्कि आगरा में वर्ष 1914 में हुआ था। लेकिन असल में वे भोपाल से ताल्लुक रखते थे। उनका असली नाम मोहम्मद असगर खान था। उन्होंने शायरी में शेरी तखल्लुस उपयोग करना शुरू किया था। शेरी भोपाली मेल संदेलवी के शिष्य रहे। साथ ही उन्होंने ज़की वारसी का भी अपनी शायरी में अनुशरण किया।
दिल्ली शायरी की मां है
शेरी भोपाली का मानना था कि शायरी का हुनर दिल्ली की आबो-हवा की देन है और दिल्ली शायरी की मां है। शेरी भोपाली की प्रकाशित गजल संग्रहों में शब्-ऐ-गजल प्रमुख है जो कि इदारा-इ-ईशात-कुरआन से उर्दु में छपा था। शेरी भोपाली ने साल 1991 में भोपाल में अंतिम सांस ली थी। ऐसे में आज हम उन्हें याद करते हुए उनकी एक मशहूर ग़ज़ल को शब्दों में बयां करने की कोशिश कर रहे हैं।
शेरी भोपाली की शायरी
ग़ज़ब है जुस्तजू-ए-दिल का ये अंजाम हो जाए
कि मंज़िल दूर हो और रास्ते में शाम हो जाए
वही नाला वही नग़्मा बस इक तफ़रीक़-ए-लफ़्ज़ी है
क़फ़स को मुंतशिर कर दो नशेमन नाम हो जाए
तसद्दुक़ इस्मत-ए-कौनैन उस मज्ज़ूब-ए-उल्फ़त पर
जो उन का ग़म छुपाए और ख़ुद बद-नाम हो जाए
ये आलम हो तो उन को बे-हिजाबी की ज़रूरत क्या
नक़ाब उठने न पाए और जल्वा आम हो जाए
ये मेरा फ़ैसला है आप मेरे हो नहीं सकते
मैं जब जानूँ कि ये जज़्बा मिरा नाकाम हो जाए
अभी तो दिल में हल्की सी ख़लिश महसूस होती है
बहुत मुमकिन है कल इस का मोहब्बत नाम हो जाए
जो मेरा दिल न हो ‘शेरी’ हरीफ़ उन की निगाहों का
तो दुनिया भर में बरपा इंक़लाब-ए-आम हो जाए – शेरी भोपाली