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Vinod Kumar Shukla
Vinod Kumar Shukla Death: आखिरकार ‘ज्ञानपीठ’ विनोद कुमार शुक्ल जीवन संघर्ष में पराजित होकर अलविदा कह गए। उनका जाना नियति की स्वीकृति हो सकती है, लेकिन समाज और साहित्य को यह बिल्कुल भी गंवारा नहीं था। उनकी एक-एक धड़कन समाज के लिए धरोहर थी। कहते हैं, सरल होना कठिन नहीं है, लेकिन सरल बने रहना कठिन है। विनोदजी ने ‘सरल बने रहना’ को सच कर दिखाया था।
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एक कस्बे से विश्व साहित्य तक की ओर
अविभाजित मध्यप्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में पढ़ाते हुए वे रचना किया करते थे। उनके जानने वाले जानते थे कि विनोद जी किस मिट्टी के बने हुए हैं- बेहद सरल और सहज। अपनों से छोटे हों, हमउम्र हों या उम्रदराज, उनके पास जाकर किसी ने खुद को छोटा नहीं पाया।
यह बहुत कम होता है कि किसी को श्रेष्ठ सम्मान से नवाज़ा जाए और पूरा समाज स्वयं को सम्मानित महसूस करे। विनोदजी को जब ‘ज्ञानपीठ’ मिलने का ऐलान हुआ, तो यह भी उन अपवाद वाले पल-छिन में था। रायपुर से दिल्ली तक स्वागत और उत्साह का माहौल था।
पहली कविता-संग्रह से आ गए चर्चा में
‘वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह’ अपनी इस पहली कविता-संग्रह से वे चर्चा में आ गए। यह प्रयोगधर्मी शीर्षक पढ़कर-सुनकर साहित्य प्रेमी चौंक गए थे। तब उस दौर में ऐसा प्रयोग न के बराबर था। वे इस बात के कभी हामी नहीं रहे कि कविता को नारे की तरह गढ़ा जाए।
उनकी रचनाओं में लोक की छाप दिखती है, तो आधुनिक समाज में हो रहे परिवर्तन और आकांक्षाओं के साथ उनकी संवेदनशीलता भी झलकती है। सही मायने में देखा जाए तो उनका लेखन सुप्रतिष्ठित कवि भवानी प्रसाद मिश्र की बातों को आगे बढ़ाता हुआ दिखता है, जिसमें भवानी भाई कहते हैं-
“जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।”
सादगी जो उन्हें और बड़ा बनाती है
विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर के थे, लेकिन उनकी कविताएँ और कथा संसार सारी भौगोलिक सीमाओं को लांघ जाते हैं। ज्ञानपीठ सम्मान (Vinod Kumar Shukla Jnanpith Award) का ऐलान हो जाने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा- “मेरे पास शब्द नहीं हैं कहने के लिए, क्योंकि बहुत मीठा लगा कहूँगा तो मैं शुगर का पेशेंट हूँ। मैं इसको कैसे कह दूँ कि बहुत मीठा लगा। बस अच्छा लग रहा है।” यह सादगी उन्हें और बड़ा बनाती है।
जीवन, लेखन और आत्मसंघर्ष
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एक जनवरी 1937 को विनोद कुमार शुक्ल का जन्म साहित्य से रचे-बसे शहर राजनांदगांव में हुआ। वे अध्यापक रहे और पूरा समय साहित्य को समर्पित कर दिया। उम्र के 88वें पड़ाव पर खड़े विनोद कुमार शुक्ल वैसे ही सहज और सरल रहे, जैसा कि छत्तीसगढ़ का एक व्यक्ति होता है। वे ज्ञानपीठ सम्मान को केवल सम्मान नहीं मानते थे, बल्कि अपनी जवाबदारी के रूप में देखते थे।
बकौल विनोद कुमार शुक्ल-
“मुझे लिखना बहुत था, बहुत कम लिख पाया। मैंने देखा बहुत, सुना भी मैंने बहुत, महसूस भी किया बहुत, लेकिन लिखने में थोड़ा ही लिखा। कितना कुछ लिखना बाकी है, जब सोचता हूँ तो लगता है बहुत बाकी है। इस बचे हुए को मैं लिख लेना चाहता हूँ। अपने बचे होने तक मैं अपने बचे लेखक को शायद लिख नहीं पाऊँगा, तो मैं क्या करूँ? मैं बड़ी दुविधा में रहता हूँ। मैं अपनी जिंदगी का पीछा अपने लेखन से करना चाहता हूँ। लेकिन मेरी जिंदगी कम होने के रास्ते पर तेजी से बढ़ती है और मैं लेखन को उतनी तेजी से बढ़ा नहीं पाता, तो कुछ अफसोस भी है।” ऐसे थे विनोद जी।
सिनेमा और रंगमंच में साहित्य की उपस्थिति
विनोद जी के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ पर सुपरिचित फिल्मकार मणि कौल फिल्म बना चुके हैं। उनकी कहानियाँ ‘आदमी की औरत’ एवं ‘पेड़ पर कमरा’ पर राष्ट्रीय फिल्म संस्थान, पुणे द्वारा अमित दत्ता के निर्देशन में निर्मित फिल्म को वेनिस अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह 2009 में ‘स्पेशल मेंशन अवॉर्ड’ मिला। उनके उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ पर प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक मोहन महर्षि सहित अन्य रचनाओं पर निर्देशकों द्वारा नाट्य मंचन भी हो चुका है।
सम्मान और स्वीकृतियाँ
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ज्ञानपीठ से पहले उन्हें मध्यप्रदेश शासन का गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, मध्यप्रदेश कला परिषद का रज़ा पुरस्कार, मध्यप्रदेश शासन का शिखर सम्मान, राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, मोदी फाउंडेशन का दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, भारत सरकार का साहित्य अकादमी सम्मान, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का हिंदी गौरव सम्मान, अंग्रेजी कहानी संग्रह के लिए मातृभूमि सम्मान प्राप्त हुआ। साथ ही साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के सर्वोच्च सम्मान ‘महत्तर सदस्य’ के रूप में उन्हें मनोनीत किया गया।
आलोचकीय दृष्टि में विनोद कुमार शुक्ल
विशिष्ट भाषिक बनावट, संवेदनात्मक गहराई और उत्कृष्ट सृजनशीलता से उन्होंने भारतीय भाषा साहित्य को समृद्ध किया है। इसलिए कहा जाता है कि विनोद कुमार शुक्ल हो जाना आसान नहीं है। तभी तो 59वें ज्ञानपीठ सम्मान के लिए चयनित होने की सूचना के बाद हिंदी के वरिष्ठ कवि-चिंतक अशोक वाजपेयी ने कहा- “यह सम्मान एक ऐसे व्यक्ति को दिया गया है, जिसने अपनी रचनाधर्मिता को निपट साधारण और नायकत्व से निरपेक्ष व्यक्ति को समर्पित किया है।” वे समाज की नब्ज को जानते थे और उस पर उनका गहरा दखल भी था।
शुक्ल के साहित्यिक संसार
विनोद कुमार शुक्ल के कविता-संग्रह हैं- लगभग जयहिंद (1971), वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह (1981), सब कुछ होना बचा रहेगा (1992), अतिरिक्त नहीं (2000), कविता से लंबी कविता (2001), आकाश धरती को खटखटाता है (2006), पचास कविताएँ (2011), कभी के बाद अभी (2012), कवि ने कहा- चुनी हुई कविताएँ (2012), प्रतिनिधि कविताएँ (2013)।
उनके उपन्यास हैं- नौकर की कमीज़ (1979), खिलेगा तो देखेंगे (1996), दीवार में एक खिड़की रहती थी (1997), हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़ (2011), यासिरासा (2017), एक चुप्पी जगह (2018)।
शुक्ल के कहानी-संग्रहों में- पेड़ पर कमरा (1988), महाविद्यालय (1996), एक कहानी (2021), घोड़ा और अन्य कहानियाँ (2021) शामिल हैं। साथ ही कहानी/कविता पर पुस्तकें ‘गोदाम’ (2020) और ‘गमले में जंगल’ (2021) भी प्रकाशित हुईं। उनकी अनेक कृतियों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
साहित्य, संस्कृति और मनुष्यत्व के ‘ज्ञानपीठ’ विनोद जी के चले जाने से उनके पीछे जो रिक्तता आई है, उसे भर पाना लगभग कठिन सा होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)
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