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3 दिसंबर का सच: वह 'अदृश्य' मलबा जिसके नीचे दबे रहे राजधानी के स्वर्णिम दशक, त्रासदी के 40 साल बाद अपनी शर्तों पर खड़ी होती राजधानी भोपाल

2-3 दिसंबर की दरमियानी रात को भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस का रिसाव हुआ। हजारों लोगों ने जान गंवाई थी और कई प्रभावित हुए।

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Rahul Garhwal
Bhopal Gas Tragedy CREDAI President Manoj Meek Kamal ka Bhopal hindi news

तीन दिसंबर की तारीख आते ही भोपाल की हवा में एक भारीपन तैरने लगता है। सायरन की वो आवाजें, वो भागती हुई रात और वो अंतहीन सन्नाटा... हम सब उसे याद करते हैं। हममें से कइयों ने उस दौर से आज तक के भोपाल को जिया है, त्रासदियों की श्रंखला को भोगा है। लेकिन एक कॉलमिस्ट और इस शहर का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते, आज मैं उस रसायनिक धुंध से परे देखने का साहस कर रहा हूं। हम 'कमाल का भोपाल' बनाने का सपना देख रहे हैं, लेकिन हमें उस कड़वे आर्थिक सच को स्वीकारना होगा जो पिछले चार दशकों से सदमे और भावनाओं की आड़ में छिपा रहा। सच यह है कि भोपाल ने केवल अपने लोग नहीं खोए, उसने अपना 'समय' और 'संसाधन' खोया है।

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दृश्य विनाश बनाम अदृश्य त्रासदी - वैश्विक दोहरेपन का शिकार

विश्व इतिहास में औद्योगिक और युद्धजन्य आपदाओं का अध्ययन एक क्रूर विरोधाभास सामने लाता है। जब हम 1945 के हिरोशिमा-नागासाकी या 2011 के फुकुशिमा को देखते हैं, तो वहां विनाश 'दृश्य' था। मलबे में तब्दील शहर पूरी दुनिया को दिखे, इसलिए वहां तत्काल राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के मिशन बने। फुकुशिमा आपदा के बाद जापान सरकार ने पुनर्निर्माण और सफाई के लिए लगभग 187 बिलियन डॉलर का भारी-भरकम निवेश किया।  

इसके ठीक विपरीत, भोपाल की 'केमिकल ट्रेजेडी' में 'जहर' हवा में था - अदृश्य। इमारतें नहीं गिरीं, कारखाने खड़े रहे, लेकिन इंसानी पीढ़ियां ढह गईं। चूंकि यह विनाश 'दिखाई' नहीं दे रहा था, इसलिए दिल्ली और दुनिया ने माना कि शहर तो खड़ा है।

नतीजा ? जहां फुकुशिमा और हिरोशिमा को 'पुनर्निर्माण' मिला, भोपाल को केवल एक लंबी 'कानूनी लड़ाई' और 1989 का 470 मिलियन डॉलर का अपर्याप्त समझौता मिला। यही वह ऐतिहासिक भूल थी जिसने भोपाल की अर्थव्यवस्था को कोमा में डाल दिया। 

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खोया हुआ दशक और आर्थिक नाकाबंदी

Bhopal Gas Tragedy

जरा आंकड़ों के आईने में देखें। 1984 में भोपाल एक उभरता हुआ इंडस्ट्रियल हब था। फिर 1990 का दशक आया। भारत में आर्थिक सुधारों और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की आंधी आई। बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों ने इस मौके को लपका। आज बेंगलुरु की जीडीपी लगभग 110 बिलियन डॉलर और हैदराबाद की 75 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुकी है।

लेकिन भोपाल ? भोपाल उस वक्त अपनी सांसें गिन रहा था। जब दूसरे शहर 'सॉफ्टवेयर कोड' लिख रहे थे, भोपाल 'मेडिकल रिपोर्ट' पढ़ रहा था। बीएमजे ओपन 2023 का शोध चीखकर कहता है कि गैस पीड़ितों की दूसरी पीढ़ी में भी रोजगार क्षमता कम हुई है और वे विकलांगता के शिकार हुए हैं। यह केवल स्वास्थ्य संकट नहीं था, यह भोपाल के खिलाफ एक अघोषित 'आर्थिक नाकाबंदी' थी जिसने हमारी ह्यूमन कैपिटल को तोड़ दिया। 

केव से कोड तक भोपाल का पुनर्जागरण

लेकिन, भोपाल की मिट्टी में एक अद्भुत जीवटता है। राख के नीचे दबी चिंगारी बुझी नहीं है। आज चार दशक बाद, भोपाल दुनिया की आंखों में आंखें डालकर कह रहा है - हम तैयार हैं।

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'कमाल का भोपाल' नागरिक अभियान इसका जीवंत प्रमाण है। भोपाल दुनिया का एकमात्र शहर है जो 'केव से कोड' की यात्रा तय कर रहा है।

Bhopal Gas Tragedy kamal ka bhopal

केव : हमारे पास भीमबेटका की 30 हजार साल पुरानी रॉक आर्ट है जो मानव सभ्यता का आदिम दस्तावेज है। 

कोड : हम भौंरी के 3707 एकड़ में 'नेक्स्ट जनरेशन नॉलेज एंड एआई सिटी' की नींव रख रहे हैं। भेल टाउनशिप की रिक्त भूमि का स्मार्ट इंडस्ट्रीज के लिए समुचित पुनर्प्रयोजन प्रक्रियाधीन है।

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सरकार को सौंपी गई 'कमाल का भोपाल' रिपोर्ट महज एक रिसर्च नहीं, यह भोपाल के भविष्य का 'रनवे' है।

लॉजिस्टिक्स का हृदय और ग्रीन कैपिटल

कर्क रेखा पर स्थित भोपाल भारत का 'दिल' है। क्रेडाई के गूगल अर्थ आधारित अध्ययन के अनुसार, भोपाल का 500 किलोमीटर का दायरा भारत का सबसे बड़ा लैंडलॉक्ड अर्बन जोन है। जहां से देश के 50% से अधिक अर्बन फुटप्रिंट्स तक मात्र 10 घंटे में पहुंचा जा सकता है। लॉजिस्टिक्स और सप्लाई चेन के लिए जो लोकेशन एडवांटेज हमारे पास है, वह किसी के पास नहीं।

राजधानी क्षेत्र में दो यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स हैं। हमारे पास राजा भोज का दिया हुआ जल-प्रबंधन और स्थापत्य आधारित नगर योजना है जो आज भी क्लाइमेट चेंज के दौर में दुनिया के लिए मॉडल है। हमारे पास नेशनल पार्क, टाइगर रिजर्व और रामसर साइट्स का ग्रीन कवर है जो इसे देश की सबसे 'लिवेबल' राजधानी बनाता है। 

अब हमें क्या चाहिए ? विशेष पैकेज, दया नहीं

भोपाल अब सहानुभूति नहीं मांगता। हम 'दान' नहीं, 'निवेश' और 'साझेदारी' मांग रहे हैं। केन्द्र और राज्य सरकार को समझना होगा कि भोपाल का समग्र विकास केवल एक शहर का विकास नहीं, बल्कि भारत के 'हार्ट-लैंड' को पुनर्जीवित करना है। हमें जापान या यूरोप की तर्ज पर एक 'विशेष री-डेवलपमेंट पैकेज' की आवश्यकता है - मुआवजे के लिए नहीं, बल्कि:  

1.वर्ल्ड क्लास इन्फ्रास्ट्रक्चर और स्मार्ट इंडस्ट्रीज के लिए।

2.क्वांटम लैब्स, AI फैक्टरी, रिसर्च सेंटर्स और स्किल डेवलपमेंट के लिए।

3.स्वास्थ्य और उत्पादकता को वापस लाने के लिए।  

4.उस खोए हुए वक्त की भरपाई के लिए जो हमने कोर्ट-कचहरी में गंवाया।

दुनिया के टेक-लीडर्स, इन्वेस्टर्स और पॉलिसी मेकर्स के लिए संदेश साफ है:

आपने बेंगलुरु को उभरते देखा, गुरुग्राम और हैदराबाद की रफ्तार देखी। अब आइए, भारत के सबसे खूबसूरत, शांत और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण शहर में भविष्य का निर्माण कीजिए।

भोपाल के पिछले पन्ने पर भले ही त्रासदी का दाग था, लेकिन इसका अगला पन्ना 'सिलिकॉन' की चमक और 'कमाल' की उम्मीद से लिखा जा रहा है।

वह शहर, जो कभी अपनी 'सिसकियों' के लिए जाना गया, अब अपनी 'सक्षमताओं' के लिए जाना जाएगा। यही 3 दिसंबर का असली सबक है और यही 'कमाल का भोपाल' अभियान का संकल्प है।

( लेखक मनोज मीक 'कमाल का भोपाल' अभियान के फाउंडर और क्रेडाई के अध्यक्ष हैं )

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