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हाइलाइट्स
- संपूर्ण क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण की जयंती।
- जनआंदोलन का आह्वान और आपातकाल का विरोध।
- जेपी नारायण का आंदोलन ने बदल दी थी देश की सत्ता।
Jayaprakash Narayan Jayanti JP Revolution India: भारतीय राजनीति में ऐसे विरले ही नेता हुए हैं जिनका नाम इतिहास में एक विचारधारा बनकर दर्ज हो गया हो- जयप्रकाश नारायण, जिन्हें देश ‘लोकनायक’ और ‘जेपी’ के नाम से जानता है, उन्हीं में से एक थे। वे न सिर्फ एक क्रांतिकारी और दार्शनिक नेता थे, बल्कि दूरदर्शी चिंतक भी थे, जिन्होंने देश की राजनीति को नई दिशा दी। उनका जीवन, विचार और आंदोलन आज भी भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की रीढ़ माने जाते हैं।
हर साल 11 अक्टूबर को उनकी जयंती मनाई जाती है, इस वर्ष हम संपूर्ण क्रांति के सूत्रधार की 123वीं जन्म-जयंती मना रहे हैं। न केवल एक श्रद्धांजलि के रूप में, बल्कि लोकतंत्र की उस मशाल को याद करने के लिए जिसे उन्होंने आपातकाल के अंधेरे में जलाकर रखा।
साधारण गांव से असाधारण नेतृत्व तक
जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्टूबर 1902 को बिहार के सिताबदियारा गाँव में हुआ था। पढ़ाई के लिए वे अमेरिका गए, जहाँ उन्होंने खुद मजदूरी कर पढ़ाई की और वहीं मार्क्सवाद से प्रभावित हुए। लेकिन भारत लौटने के बाद गांधीजी और नेहरू के विचारों ने उन्हें गहराई से छुआ और वे आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।
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समाजवादी सोच की नींव
जेपी नारायण ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। उनका सपना था एक ऐसा भारत जो लोकतांत्रिक समाजवाद पर आधारित हो, जहां समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय हो।
गांधीवाद की ओर झुकाव
स्वतंत्रता के बाद जेपी ने सक्रिय राजनीति से दूरी बनाकर खुद को विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में झोंक दिया। इस काल में उन्होंने मार्क्सवाद से दूरी बनाकर गांधीवादी सर्वोदय दर्शन को अपनाया।
1974 की 'संपूर्ण क्रांति' और ऐतिहासिक नारा
1970 के दशक में देश भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और शासकीय असंतोष की चपेट में था। इस असंतोष को स्वर मिला जब जेपी नारायण ने बिहार से छात्र आंदोलन की कमान संभाली। 5 जून 1974 को, पटना के गांधी मैदान में उन्होंने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया- जो सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक बदलाव की मांग थी।
उनका ऐतिहासिक नारा — “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।” रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविता की ये पंक्ति आंदोलन का प्रतीक बन गई।
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आपातकाल में लोकतंत्र की रक्षा का संकल्प
जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की, तो देश का लोकतंत्र एक कठिन परीक्षा से गुजर रहा था। जेपी ने इसे संविधान और जनता की आवाज़ पर हमला कहा और विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर ऐतिहासिक एकता दिखाई। उन्हें तुरंत गिरफ़्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया, लेकिन उनका आंदोलन जेल की दीवारों को पार कर जनता के दिलों तक पहुँच गया।
जेपी आंदोलन: जिसने सत्ता की नींव हिला दी
'संपूर्ण क्रांति' के नायक जयप्रकाश नारायण ने जब आंदोलन का नेतृत्व संभाला, तो उस दौर की सबसे ताकतवर नेता इंदिरा गांधी भी इसे रोक न सकीं। बांग्लादेश बनाने वाली ‘आयरन लेडी’ जेपी को न समझा पाईं, न दबा पाईं और सत्ता जनता के हाथों में चली गई।
जेपी के नेतृत्व में जो जनांदोलन खड़ा हुआ, उसने भारतीय राजनीति को बुनियादी रूप से बदल दिया। उस दौर में जब ‘इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया’ का नारा गूंजता था, जेपी के आह्वान ने उस छवि को ध्वस्त कर दिया। भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ उनका सत्याग्रह इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली नेता के लिए भी चुनौती बन गया
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कैसे शुरू हुआ आंदोलन?
1974 में बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में जनता खासकर छात्र वर्ग उबल रहा था। गुजरात से शुरू हुआ छात्र आंदोलन पुलिस दमन से और भड़क गया। इंदिरा गांधी को वहां की कांग्रेस सरकार हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। यह आंदोलन जल्द ही बिहार पहुंचा, जहां छात्रों ने विधानसभा घेराव की तैयारी की।
जेपी ने पहले इसका समर्थन किया, फिर नेतृत्व संभाल लिया। सरकार ने आंदोलन दबाने के लिए बल प्रयोग किया, लेकिन आंदोलन की आग और भड़क गई।
तीखे तेवर और बिगड़ते रिश्ते
'द ड्रीम ऑफ रेवोल्यूशन' ए बायोग्राफी ऑफ जयप्रकाश नारायण में बिमल प्रसाद और सुजाता प्रसाद लिखते हैं कि जब जयप्रकाश नारायण भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते थे, तो उनका इशारा अक्सर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इंदिरा गांधी की ओर होता था।
जेपी के भाषणों और तीखे तेवरों का इंदिरा गांधी पर भी गहरा असर पड़ रहा था। दोनों के बीच तनाव लगातार बढ़ता जा रहा था, और यह कड़वाहट उस समय और गहरी हो गई, जब भुवनेश्वर की एक जनसभा में इंदिरा गांधी ने अपने विरोधियों पर ‘भ्रष्ट लोगों की उदारता पर पलने’ का आरोप लगाया। इस टिप्पणी को जेपी ने निजी तौर पर लिया और उनके साथ इंदिरा के संबंध और बिगड़ते चले गए।
इंदिरा गांधी के भाषण ने जेपी को झकझोर दिया। यह कोई मामूली टिप्पणी नहीं थी, जिसे यूं ही अनदेखा किया जा सके। दो दिन बाद जारी अपने बयान में जेपी ने इंदिरा पर "नीच स्तर के आरोप" लगाने का आरोप लगाया।
जब इंदिरा को अहसास हुआ कि उनकी बातों से हालात और बिगड़ गए हैं, तो उन्होंने रिश्तों को बचाने की पहल की। इंदिरा ने जेपी को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने पंडित नेहरू और जेपी के बीच की आत्मीयता और प्रभावती जी से जुड़े पारिवारिक रिश्तों का हवाला देकर पुरानी निकटता की याद दिलाई।
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इंदिरा गांधी ने जेपी को लिखी चिट्ठी
इंदिरा ने जेपी को एक भावनात्मक पत्र लिखते हुए नेहरू से उनके पुराने संबंधों और प्रभावती जी से जुड़े पारिवारिक स्नेह का जिक्र किया। उन्होंने लिखा कि आलोचना के बावजूद हमारे बीच कभी व्यक्तिगत कटुता नहीं रही।
लेकिन यह चिट्ठी जेपी को मना नहीं सकी। उन्होंने न सिर्फ जवाब दिया, बल्कि सरकार पर और तीखे आरोप लगाए। अब वे 'इंदु' नहीं, 'इंदिरा जी' हो गई थीं — और जेपी उनके खिलाफ निर्णायक लड़ाई के मूड में थे।
जेपी का संपूर्ण क्रांति आंदोलन और इमरजेंसी
इंदिरा गांधी के पत्र का जेपी पर कोई असर नहीं हुआ इसके बाद जेपी ने 7 जून 1974 को 'संपूर्ण क्रांति' का नारा देते हुए सत्याग्रह की घोषणा की और सरकार को जड़ से हिलाने का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को एक साल के लिए बंद करने, कर न देने का आह्वान किया साथ ही पुलिस को विवेक से काम लेने की अपील की। उनके नेतृत्व में जनता ने जबरदस्त समर्थन दिया।
हालांकि आंदोलन पूरी तरह अहिंसक नहीं रहा। कई जगह दुकानें जबरन बंद कराई गईं, ट्रेनें रोकी गईं और रेलवे ट्रैक जाम किए गए। पुलिस ने भी सख्ती दिखाई—सैकड़ों छात्रों को पीटा गया, गिरफ्तार किया गया और कई जगहों पर फायरिंग में मौतें भी हुईं।
आंदोलन के बीच हुई एक और बड़ी घटना
इसी बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया, जिस पर जेपी ने उनके इस्तीफे की मांग कर दी। बढ़ते जनदबाव और आंदोलन की तीव्रता से घबराकर इंदिरा ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल (Emergency) लागू कर दिया। जेपी समेत करीब 600 विपक्षी नेताओं को जेल भेज दिया गया।
आपातकाल में कैद, हौसला रहा आजाद (1975-77)
आपातकाल के दौरान जेपी को तिहाड़ जेल भेज दिया गया। उस समय वे 73 वर्ष के थे और स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था। लेकिन जेल की सलाखें उनकी सोच को कैद नहीं कर सकीं। एक अधिकारी से उन्होंने कहा: "मैं जेल में हूं, पर मेरे विचार नहीं। जब तक सोच आज़ाद है, तब तक भारत आजाद है।"
जेपी के इसी साहस और विचारधारा ने लाखों युवाओं को झकझोरा, जिनमें आगे चलकर अटल बिहारी वाजपेयी, लालू यादव, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी जैसे बड़े नेता बने।
दो साल बाद, 1977 में जब चुनाव हुए, तो जनता ने इंदिरा को सत्ता से बाहर कर दिया। यह भारतीय लोकतंत्र में पहली बार था जब गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई, जेपी की क्रांति का यह ऐतिहासिक परिणाम था।
पढ़ाई छोड़ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े जेपी
बिहार के सारण जिले के सिताबदियारा गांव में जन्मे जयप्रकाश नारायण प्रतिभाशाली थे। उच्च शिक्षा के लिए वे 1920 के दशक में अमेरिका गए, जहाँ खेतों में काम करके पढ़ाई की और वहीं समाजवाद, नागरिक अधिकारों और सामाजिक न्याय जैसे विचारों से प्रभावित हुए।
लेकिन देश की दयनीय स्थिति ने उन्हें अंदर से झकझोर दिया। भारत लौटने के बाद जब वे महात्मा गांधी से मिले तो उनका एक ही सवाल था—
"मैं अपने देश के लिए क्या कर सकता हूँ?"
गांधीजी ने जवाब दिया— "सत्य और सेवा के रास्ते पर चलो।"
बस यहीं से जयप्रकाश ने विदेशी डिग्री को दरकिनार कर स्वतंत्रता संग्राम को अपनी जीवन-ध्येय बना लिया। वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सह-संस्थापक बने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाई।
जेपी का यह निर्णय केवल उनके जीवन का नहीं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम का भी एक ऐतिहासिक मोड़ बन गया। उन्होंने अपने ज्ञान, ऊर्जा और विचारों को भारत माता की आजादी के लिए समर्पित कर दिया।
मरणोपरांत 1999 में दिया गया भारत रत्न
जयप्रकाश नारायण का निधन 8 अक्टूबर 1979 को हुआ, लेकिन उनकी विचारधारा और संघर्ष की विरासत आज भी हमें मार्गदर्शन देती है। साल 1999 में, उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, जो उनके अद्वितीय योगदान और निष्ठा का प्रतीक है। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि राजनीति का असली आधार नैतिकता और सिद्धांत होना चाहिए।
उनकी 'संपूर्ण क्रांति' का सपना आज भी एक भ्रष्टाचार मुक्त, न्यायपूर्ण और सशक्त लोकतंत्र की दिशा में प्रेरणा देता है। जयप्रकाश नारायण की जयंती हमें उनके आदर्शों को सम्मानित करने और लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और नागरिक अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करने की प्रेरणा देती है।
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