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MP High Court: सहमति से संबंध बने फिर भी रेप केस में काटी सजा, 4 साल जेल में रहा निर्दोष, हाईकोर्ट ने किया न्याय

न्याय में देरी, लेकिन इंसाफ मिला। जबलपुर हाईकोर्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को सभी आरोपों से बरी कर दिया, जिसे निचली अदालत ने बिना पर्याप्त साक्ष्यों और गवाहों के उम्रकैद की सजा सुनाई थी। जानें मामला

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Vikram Jain
MP High Court: सहमति से संबंध बने फिर भी रेप केस में काटी सजा, 4 साल जेल में रहा निर्दोष, हाईकोर्ट ने किया न्याय

हाइलाइट्स

  • युवक को 4 साल बाद मिला न्याय, रिहाई का आदेश।
  • हाईकोर्ट ने कहा- गवाहों और मेडिकल रिपोर्ट की हुई अनदेखी।
  • निचली अदालत ने बिना ठोस सबूतों के सुनाई थी उम्रकैद की सजा।
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Judiciary Wrongful Conviction Jabalpur High Court: न्यायपालिका की एक छोटी सी चूक भी किसी निर्दोष व्यक्ति का जीवन बर्बाद कर सकती है। ऐसा ही एक चौंकाने वाला मामला जबलपुर हाईकोर्ट में सामने आया, जहां निचली अदालत ने पर्याप्त सबूतों और गवाहों की गंभीरता से जांच किए बिना एक व्यक्ति को उम्रकैद की सजा सुना दी थी। चार साल तक जेल में समय बिताने के बाद मनोज कुमार यादव को आखिरकार न्याय मिला। जबलपुर हाईकोर्ट ने उसे सभी आरोपों से बरी करते हुए साफ कहा कि निचली अदालत ने तथ्यों और साक्ष्यों का समुचित परीक्षण नहीं किया था। इस मामले में सबूत और गवाहियों की अनदेखी हुई थी।

जानें क्या है मनोज कुमार के मामला

दरअसल, साल 2023 में जबलपुर की विशेष POCSO अदालत के 18वें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने मनोज कुमार यादव को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। कोर्ट ने उन्हें धारा 376(1) आईपीसी, एससी-एसटी एक्ट की धारा 3(2)(v) के तहत आजीवन कारावास, धारा 506(2) के तहत एक साल, और धारा 450 के तहत पांच साल की सजा सुनाई।

इस पूरे फैसला का मुख्य आधार डीएनए रिपोर्ट रही, जिसमें पीड़िता और आरोपी का मिलान पाया गया था। लेकिन अदालत ने इस दौरान यह नहीं परखा कि केस से जुड़े अन्य जरूरी साक्ष्य बेहद कमजोर थे और गवाहियों में गंभीर खामियां थीं। कई अहम बिंदुओं पर बिना गहराई से विचार किए ही सजा सुना दी गई, जो बाद में हाईकोर्ट में पलट दी गई।

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डिवीजन बेंच ने क्या कहा?

जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस अवनीन्द्र कुमार सिंह की पीठ ने माना कि मामले की जांच में कई गंभीर खामियां थीं, जिसके चलते मनोज को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया। अपील की सुनवाई के दौरान मनोज की ओर से अधिवक्ता सुशील कुमार शर्मा ने कोर्ट के सामने एक-एक कानूनी त्रुटि को तथ्यात्मक रूप से उजागर किया और यह साबित किया कि सजा उचित नहीं थी।

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हाईकोर्ट में सामने आईं ये न्यायिक चूकें

जबलपुर हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने सुनवाई के दौरान पाया कि:

  • जन्म प्रमाण का कोई ठोस दस्तावेज नहीं था।
  • कई अहम बिंदुओं को दरकिनार कर दिया था।
  • मेडिकल रिपोर्ट देने वाली डॉक्टर को गवाही के लिए पेश नहीं किया गया।
  • पीड़िता ने खुद माना कि उसके पास स्कूल की मार्कशीटें थीं, लेकिन अदालत में नहीं दी गईं।
  • शारीरिक चोट या जबरदस्ती का कोई प्रमाण नहीं मिला।

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सहमति से संबंध, नाबालिग होने का प्रमाण नहीं

अधिवक्ता सुशील कुमार शर्मा ने कोर्ट को बताया कि यह मामला सहमति से बने संबंधों का है और अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि पीड़िता घटना के समय नाबालिग थी।

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हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के Sunil बनाम State of Haryana (2010) केस का हवाला देते हुए कहा कि जब तक उम्र और बल प्रयोग का ठोस सबूत न हो, आरोपी को संदेह का लाभ देना होगा।

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चार साल बाद रिहाई का आदेश

कोर्ट ने कहा कि केवल डीएनए रिपोर्ट के आधार पर उम्र, सहमति और गवाही की अनदेखी नहीं की जा सकती। मनोज कुमार यादव को तुरंत रिहा करने का आदेश देते हुए हाईकोर्ट ने निचली अदालत का फैसला रद्द कर दिया।

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न्यायपालिका की जिम्मेदारी पर टिप्पणी

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह हर सबूत और गवाह का गंभीरता से मूल्यांकन करे। अन्यथा निर्दोषों को वर्षों तक जेल में रहना पड़ सकता है, जो न्याय का मखौल है।

इस खबर से जुड़े 5 अहम FAQs

1. मनोज कुमार यादव को किस आधार पर निचली अदालत ने सजा सुनाई थी?

उत्तर: निचली अदालत ने मुख्य रूप से डीएनए रिपोर्ट के आधार पर मनोज कुमार यादव को दोषी ठहराया था, जिसमें पीड़िता और आरोपी का जैविक मिलान पाया गया था। अदालत ने अन्य जरूरी गवाहों और सबूतों की कमजोरी को नजरअंदाज कर दिया।

2. हाईकोर्ट ने मनोज को दोषमुक्त क्यों किया?

उत्तर: जबलपुर हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत ने कई कानूनी प्रक्रियाओं और साक्ष्यों की गंभीर अनदेखी की थी। न तो पीड़िता की उम्र का प्रमाण सही था और न ही मेडिकल रिपोर्ट की पुष्टि गवाही से की गई थी। इसके चलते हाईकोर्ट ने उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया।

3. क्या यह मामला सहमति से बने संबंधों का था?

उत्तर: जी हां, अधिवक्ता सुशील कुमार शर्मा ने कोर्ट में यह तर्क दिया कि यह मामला सहमति से बने संबंधों का था और अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि पीड़िता घटना के समय नाबालिग थी।

4. क्या मेडिकल और दस्तावेजी साक्ष्य पर्याप्त थे?

उत्तर: नहीं, मेडिकल जांच करने वाली डॉक्टर को गवाही के लिए अदालत में पेश नहीं किया गया। इसके अलावा, जन्मतिथि के लिए कोई पुख्ता दस्तावेज (जैसे जन्म प्रमाणपत्र या स्कूल प्रमाणपत्र) भी पेश नहीं किया गया था।

5. इस फैसले का न्यायपालिका पर क्या संदेश है?

उत्तर: यह फैसला एक अहम संदेश देता है कि न्यायपालिका की सतर्कता और निष्पक्षता जरूरी है, वरना निर्दोषों को वर्षों तक जेल की सजा भुगतनी पड़ सकती है। हर केस में सबूतों और गवाहियों का निष्पक्ष परीक्षण जरूरी है, वरना यह न्याय का उल्लंघन होगा।

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