नई दिल्ली। तालिबान के कारण अफगानिस्तान में एक बार फिर से हालात बेकाबू होने लगे हैं। पिछले एक हफ्ते में तालिबान ने कई शहरों पर कब्जा कर लिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की वजह से तालिबान एक बार फिर मजबूत हो गया है। पाकिस्तान ने 20 हजार लड़ाके तालिबान की मदद के लिए भेजे हैं। साथ ही ISI का भी उसे भरपूर साथ मिल रहा है। पाकिस्तानी सेना और ISI आतंकियों को ट्रेनिंग के साथ-साथ तालिबानी लड़ाकों को हथियार मुहैया करवा रही है।
तालिबान को 90 के दशक में काफी ताकतवर माना जाता था, लेकिन 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने उसे पूरी तरह से तोड़ दिया और सत्ता से भी बेदखल कर दिया। ऐसे में आज हम आपको तालिबान के बनने की कहानी बताएंगे।
तालिबान की शुरुआत
तालिबान जो एक बार फिर अफगानिस्तान में सिर उठा रहा है। उसे पूरे मध्य एशिया के लिए खतरा माना जाता है। इसकी शुरुआत साल 1994 में दक्षिणी अफगानिस्तान में सुन्नी इस्लामिक आंदोलन से हुआ था। पश्तो भाषा में ‘तालिबान’ का अर्थ है स्टूडेंट यानी वह छात्र जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा में यकीन करते हैं। तालिबान को एक राजनीतिक आंदोलने के तौर पर बनाया गया था। जिसमें अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्र शामिल थे।
इन देशों ने तालिबान को दी थी मान्यता
साल 1996 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान मुल्ला उमर इसका प्रमुख लीडर था। मुल्ला उमर ने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था। तालिबान वह आंदोलन था जिसे पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने मान्यता दी थी। तालिबान सबसे ज्यादा ताकतवर साल 1990 में नॉर्थ पाकिस्तान में हुआ। दरअसल, उस समय अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी हो रही थी। ऐसे में पश्तूनों के नेतृत्व में तालिबान और ज्यादा ताकतवर हुआ।
शुरूआत में इसे अच्छा माना जाता था
1980 का दशक खत्म होते-होते सोवियत संघ के अफगानिस्तान के जाने के बाद वहां पर कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था। इसके अलावा मुजाहिद्दीनों से भी लोग परेशान थे। ऐसे में जब तालिबान सामने आया तो अफगानिस्तान के लोगों ने उसका स्वागत किया। शुरूआत में तालिबान ने अफगानिस्तान में मौजूद भ्रष्टाचार को काबू भी किया और अव्यवस्था पर नियंत्रण लगाया। ताकि लोग सुरक्षित तरिके से अपना व्यवसाय कर सकें।
यहां से शुरू हुई आतंक की कहानी
लेकिन बाद में इसने दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाया। सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान के बॉर्डर से लगे हेरात प्रांत पर कब्जा कर लिया। इसके एक साल बाद तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। 1998 तक तो इसने अफगानिस्तान के 90 प्रतिशत हिस्से पर अपना कब्जा कर लिया था। यहीं से तालिबान आतंक का दूसरा नाम बनता गया। उस पर मानवाधिकार उल्लंघन और संस्कृतियों को खत्म करने के आरोप लगने लगे।
तालिबान ने लोगों पर कहर बरपाना शुरू किया
पाक-अफगानिस्तान सीमा का इलाका पश्तूनों की आबादी वाला था। तालिबान ने कहा था कि वो यहां पर शांति और सुरक्षा का माहौल लाएगा और सत्ता में आने के बाद शरिया लागू करेगा। पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों जगह तालिबान ने या तो इस्लामिक कानून के तहत सजा लागू करवाई या खुद ही लागू की- जैसे हत्या के दोषियों को सबके सामने फांसी देना और चोरी के दोषियों के हाथ-पैर काट डालना। इसके अलावा पुरुषों को दाढ़ी रखने का फरमान जारी किया और महिलाओं को बुर्का पहनने के लिए मजबूर किया। इतना ही नहीं तालिबान ने टीवी, सिनेमा और संगीत के लिए भी सख्ती बरती। 10 साल से ज्यादा की उम्र वाली लड़कियों के स्कूल जाने पर भी रोक लगा दी।
इस हमले ने पहली बार दुनिया का ध्यान तालिबान की ओर खींचा
इसी बीच साल 2001 में अमेरिका में आतंकी हमला हुआ। सारी दुनिया का ध्यान पहली बार तालिबान की तरफ गया। अफगानिस्तान की तरफ से तालिबान को अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन और आतंकी संगठन को पनाह देने का दोषी ठहराया गया। ऐसे में सात अक्टूबर 2001 को अमेरिकी नेतृत्व में गठबंधन की सेनाओं ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। करीब 20 साल तक अमेरिकी सैनिकों और अल कायदा के बीच गृहयुद्ध चलता रहा।अल कायदा कुछ साल पहले ही सत्ता से बेदखल हुआ था और अब एक बार फिर यह अफगानिस्तान में तेजी से पैर पसार रहा है।