भोपाल। कहते हैं जहां चाह वहां राह… इस लाइन को चरितार्थ कर दिखाया है मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले के एक छोटे से गांव में रहने वाली दुर्गा बाई व्योम ने। जिन्होने अपनी कला के बल पर पद्म श्री पाया है। दुर्गाबाई ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा लेकिन आज वो आदिवासी वर्ग के लिए एक रोल मॉडल हैं। आइए जानते हैं उनके इस सफर की कहानी।
इस कारण से पढ़ नहीं पाई
साल 1974 डिंडोरी जिले के एक छोटे से गांव बुरबासपुर में रहने वाले चमरू सिंह परस्ते के घर दुर्गा बाई व्योम (Durga Bai Vyom) का जन्म हुआ। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए वो पढ़ नहीं पाई। लेकिन बचपन से ही आदिवासी गोंडी भित्ति चित्र बनाने में वो माहिर थीं। उन्होंने इस चित्रकारी को ही अपना मंजिल बनाया और आज पद्म श्री पुरस्कार तक पहुंच गई हैं।
6 साल की उम्र से कर रही हैं चित्रकारी
दुर्गा बाई ने 6 साल की उम्र से ही चित्रकारी शुरू कर दी थी। इसके बाद साल 1996 में वे भोपाल पहुंची। भोपाल में ही उन्हें अपनी पहचान बनाने का मौका मिला। दुर्गा बाई को अपने इस काम में पति सुभाष सिंह का भी साथ मिला। इसके अलावा उन्हें भोपाल स्थित जनजाति संग्रहालय से भी काफी सहयोग मिला। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब उनके पास पैसे नहीं थे और भोपाल आने के बाद घर चलाना कठिन हो गया था। ऐसे में उन्होंने खर्च चलाने के लिए लोगों के घरों में झाडू-पोंछा भी किया।
आर्थिक संकटों से गुजरना पड़ा
दुर्गा बाई कहती है भोपाल आने के बाद हमारा परिवार आर्थिक संकट से गुजरने लगा। ऐसे में हमने सोचा कि कुछ दिन तक मजदूरी करते हैं और जब कुछ पैसे इक्कठे हो जाएंगे तो वापस अपने गांव चले जाएंगे। लेकिन, नियति में तो कुछ और ही लिखा था। यहां उनके काम को धीरे-धीरे पहचान मिलने लगी। दुर्गा बाई ने डॉ. भीमराव अंबेडकर की जीवन कथा को पेंटिंग के माध्य से भी दिखाया है। दुर्गा बाई की यह स्टोरी 11 अलग-अलग भाषाओं में अबतक प्रकाशित हो चुकी है।
उन्हें कई अवार्ड से अब तक नवाजा जा चुका है
दुर्गा बाई को उनके काम के लिए कई अवार्ड से नवाजा गया है। जैसे- दुर्गावती राष्ट्रीय अवार्ड, विक्रम अवार्ड, बेबी अवार्ड और महिला अवार्ड से अब तक सम्मानित हो चुकी हैं। इसके अलावा उन्हें कई राज्य स्तरीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं।