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Dilip Kumar Passes Away: दिलीप कुमार नहीं रहे, जानिए कैसे मोहम्मद यूसुफ खान को वह स्क्रीन नेम मिला जिसने उन्हें दुनिया में पहचान दिलाई

Dilip Kumar Passes Away: दिलीप कुमार नहीं रहे, जानिए कैसे मोहम्मद यूसुफ खान को वह स्क्रीन नेम मिला जिसने उन्हें दुनिया में पहचान दिलाईDilip Kumar Passes Away: Dilip Kumar is no more, know how Mohammad Yusuf Khan got the screen name that made him known to the world nkp

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Bansal Digital Desk
Dilip Kumar Passes Away: दिलीप कुमार नहीं रहे, जानिए कैसे मोहम्मद यूसुफ खान को वह स्क्रीन नेम मिला जिसने उन्हें दुनिया में पहचान दिलाई

मुंबई।  बॉलीवुड के दिग्गज कलाकार दिलीप कुमार का 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया है। आज सुबह 7 बजकर 30 मिनट पर उन्होंने आखिरी सांस ली। दिलीप कुमार को सांस लेने में दिक्कत के चलते 29 जून को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। जहां उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।

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उन्हें इंडस्ट्री में कई नाम से पुकारा जाता था

दिग्गज वेटरन एक्टर दिलीप कुमार को फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद कई नामों से पुकारा जाने लगा। इनमें ट्रेजडी किंग, देश के पहले मेथड एक्टर जैसे नाम प्रमुख हैं। इन उपाधियों सहित उनका स्क्रीन नेम दिलीप कुमार रहा, लेकिन उनका असली नाम 'मोहम्मद यूसुफ खान' था। फिल्मों में आने के बाद उनका असली नाम बदला गया और दिलीप कुमार रखा गया। इस नाम बदलने के पीछे भी एक कहानी है। आइए जानते हैं क्या है वो दिलचस्प कहानी—

ऐसा शुरू हुआ था फिल्मी सफर

फिल्मों में आने से पहले दिलीप कुमार मुंबई में अपने पिता मोहम्मद सरवर खान के फलों के कारोबार में हाथ बंटाते थे। एक दिन पिता से किसी बात को लेकर उनका झगड़ा हो गया और वे मुंबई से पुणे आ गए। यहां ब्रिटिश आर्मी कैंटीन में सहायक की नौकरी करने लगे। कैंटीन में उन्होंने सैंडविच बनाने का काम किया, ये कारोबार उनका चल पड़ा। लेकिन तभी एक दिन कैंटीन में आजादी के समर्थन में नारे लगने लगे और इसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल से छुटने के बाद मोहम्मद यूसुफ खान मुंबई वापस आ गए। इस वापसी ने उनकी किस्मत बदल दी।

ऐसे पहुंचे बॉम्बे टॉकीज

दरअसल, एक दिन जब वे चर्चगेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तो उनके पहचान वाले साइकोलॉजिस्ट डॉ. मसानी मिल गए। डॉ. मसानी 'बॉम्बे टॉकीज' की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे, उन्होंने साथ में उन्हें भी ले लिया। अपनी आत्मकथा 'द सबस्टैंस एंड द शैडो' में दिलीप कुमार लिखते हैं कि, वैसे तो उनका जाने का मन नहीं था, लेकिन मूवी स्टूडियो देखने का लालच उन्हें वहां ले गया। वहां पहुंचने पर देविका रानी ने उन्हें 1250 रुपए की नौकरी का प्रस्ताव दिया। साथ ही एक्टर बनने की इच्छा के बारे में पूछा। इसी 1250 रुपए मासिक की तनख्वाह के आकर्षण ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज का एक्टर बना दिया। यहां उनकी ट्रेनिंग शुरू हो गई।

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देविका रानी ने सुझाया स्क्रीन नेम

एक दिन देविका रानी ने उनसे कहा,' यूसुफ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं। ऐसे में मैं तुम्हारा स्क्रीन नेम बदलना चाहती हूं। एक ऐसा नाम जिससे दुनिया तुम्हें जानेगी और ऑडियंस तुम्हारी रोमांटिक इमेज को उससे जोड़कर देखेगी। मेरे ख्याल से 'दिलीप कुमार' एक अच्छा नाम है। जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग़ में आया। तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?' देविका के इस नाम बदलने के विचार से दिलीप कुमार सहमत नहीं थे।

नाम पर विचार करने का समय मांगा

लेकिन फिर भी उन्होंने कहा कि नाम तो बहुत अच्छा है, लेकिन क्या ऐसा करना आवश्यक है? इस पर देविका ने कहा कि वे फिल्मों में उनका उज्ज्वल भविष्य देखती रही हैं। ऐसे में स्क्रीन नेम अच्छा रहेगा और इसमें एक सेक्यूलर अपील भी होगी। दिलीप ने इस आइडिया पर विचार का समय मांगा। अपने साथी से इस बारे में चर्चा की और नाम बदलने को सहमत हो गए। इस नाम के साथ वर्ष 1944 में उनकी पहली फिल्म 'ज्वार भाटा' रिलीज हुई। हालांकि उनकी ये पहली फिल्म कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई, लेकिन इसके बाद उनको जो सफलता मिली, उससे साबित हो गया कि देविका रानी ने उनके बारे में सही आंकलन किया था।

आज दिलीप साहब हम सब के बीच नहीं हैं। लेकिन एक महान अभिनेता के रूप में उनकी यादें हम सभी के बीच हमेशा जीवित रहेंगी।

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