जगदलपुर से रजत वाजपेयी की रिपोर्ट। बस्तर में धूमधाम के साथ दशहर पर्व मनाया जा रहा है। इस पर्व में 75 दिनों तक विभिन्न रस्में अदा करने की परंपरा है।
इसी कड़ी में रविवार रात नगर में निशा जात्रा रस्म निभाई गई। बता दें कि यह रात देवी-देवताओं की संतुष्टि के लिए बलि देने की रात होती है।
ऐसे तैयार होता है भोग
इस रस्म के लिए मावली मंदिर में 12 गांवों के यदुवंशी देवी- देवताओं और उनके गणों के लिए पवित्रता से भोग तैयार करते हैं, जिसमें चावल, खीर और उड़द की दाल तथा उड़द से बने बड़े बनाकर मिट्टी की खाली 24 हंडियों के मुंह में कपड़े बांधकर रखा जाता है।
भोग सामग्री वाली हंडियों को निशागुड़ी तक ले जाने के लिए राऊत जाति के लोगों की कांवड़ यात्रा जनसमूह के साथ जुलूस के रूप में निकाली जाती है।
पूजा के बाद फोड़ देते हैं हंडियां
निशागुड़ी में राजपरिवार, राजगुरु और देवी दंतेश्वरी के पुजारी के साथ पूजा-अर्चना करते हैं। पूजा के बाद भोग सामग्री की खाली हंडियों को फोड़ दिया जाता है ताकि इनका दुरुपयोग न हो।
क्यों देते हैं बकरों की बलि?
इसके बाद 12 बकरों की बलि दी जाती है ताकि देवी-देवता संतुष्ट रहें और बस्तर में खुशहाली हो। साथ ही क्षेत्र की जनाता पर बुरी आत्माओं का कोई प्रभाव ना पड़े।
बलि से पहले राजगुरु बकरों के कान में मंत्र फूंककर देवी-देवताओं को समर्पित करने और हत्या का दोष किसी पर न लगे, इसकी घोषणा करते हैं।
1408 ई. में शुरू हुई थी रस्में
चालुक्य नरेश पुरुषोत्तम देव द्वारा 1408 ई. में शुरू किए गए बस्तर दशहरे की रस्मों में बदलाव आया है, जैसे पशु बलि कम हो गई है।
राजा का स्थान किसी-किसी प्रथा में पुजारी ने ले लिया, तो कहीं बिना राजा के ही काम चलाया जाने लगा और किसी में राजवंश के सदस्य द्वारा आवश्यक रस्म अदायगी होने लगी।
राजा के न होने से अन्य पदवीदार भी महत्त्वहीन हो गए। राजतिलक करने वाले पुरोहित अब निशा जात्रा की भोग सामग्री अपनी देख-रेख में तैयार करवाते हैं।
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