नई दिल्ली । आज देशभर में ईद उल अजहा यानि (बकरीद) का त्योहार मनाया जा रहा है। सुबह से ही मस्जिदों और दरगाहों में नमाजियों की भीड़ जुटने लगी है। भोपाल के जामा मस्जिद, फतेहपुर मस्जिद समेत कई जगहों पर बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक, बड़ी संख्या में लोग नमाज अदा करते दिखे। साथ ही इस पवित्र मौक पर लोगों ने एक दूसरे को गले लगाकर बकरीद की शुभकामनाएं दी।
सुरक्षा की दिखी कड़ी व्यवस्था
इस दौरान मस्जिद के आसपास सुरक्षा की भी कड़ी व्यवस्था दिखी। वहीं मुंबई में भी दरगाह से नमाज अदा करने की तस्वीरें सामने आई हैं, जहां इकट्ठा हुए सैकड़ों लोगों ने सिर झुकाकर इबादत करते और एक दूसरे को बधाईयां देते नजर आएं।
अन्य राज्यों में भी मस्जिदों में दिखी भारी भीड़
देशभर में बकरीद के त्योहार के मौके पर दिल्ली के जामा मस्जिद में हजारों नमाजियों ने बकरीद की नमाज अदा की। साथ ही मुंबई, भोपाल और अन्य राज्यों में भी मस्जिदों में भारी भीड़ दिखी।
करीब रहने वाली वस्तु की दी जाती कुर्बान
ईद उल अजहा का महत्व ईद उल अजहा का दिन फर्ज ए कुर्बानी का दिन होता है। इसके जरिए पैगाम दिया जाता है कि मुस्लिम अपने दिल के करीब रहने वाली वस्तु भी दूसरों की बेहतरी के लिए अल्लाह की राह में कुर्बान कर देते हैं।
कुर्बानी के गोश्त बांटा जाता है गरीबों को
मुस्लिम धर्म में गरीबों और जरूरतमंदों का बहुत ध्यान रखने की परंपरा है। ईद उल अजहा के दिन कुर्बानी के गोश्त को गरीबों और रिश्तेदारों में बांटा जाता है। गोश्त का तीन भाग किया जाता है इसमें एक हिस्सा स्वयं के लिए,एक हिस्सा पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए और एक हिस्सा गरीबों और जरूरतमंद को बांट दिया जाता है।
क्यों दी जाती है कुर्बानी
इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, इस्लाम के पैगंबर हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे। उनके बेटे का नाम इस्माइल था। इस्माइल से पिता हजरत इब्राहिम को बहुत ज्यादा प्यार था।
इसी दौरान हजरत इब्राहिम को एक रात ख्वाब आया कि उन्हें अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करना होगा।
हजरत इब्राहिम ने बेटे को कुर्बान करने का लिया था फैसला
इस्लामिक जानकार बताते हैं कि हजरत इब्राहिम के लिए ये अल्लाह का हुक्म था, जिसके बाद हजरत इब्राहिम ने बेटे को कुर्बान करने का फैसला कर लिया। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, अल्लाह के हुक्म पर बेटे इस्लाइन की कुर्बानी देने से पहले हजरत इब्राहिम ने कड़ा दिल करते हुए आंखों पर पट्टी बांध ली और उसकी गर्दन पर छुरी रख दी।
हालांकि, उन्होंने जैसे ही छुरी चलाई तो वहां अचानक उनके बेटे इस्माइल की जगह एक दुंबा (बकरा) आ गया। हजरत इब्राहिम ने आंखों से पट्टी हटाई तो उनके बेटे इस्माइल सही-सलामत थे।
इस्लामिक मान्यता है अल्लाह का इम्तिहान था
इस्लामिक मान्यता है कि ये सिर्फ अल्लाह का एक इम्तिहान था। अल्लाह के हुकुम पर हजरत इब्राहिम बेटे को भी कुर्बान करने के लिए तैयार हो गए। इस तरह जानवरों की कुर्बानी की यह परंपरा शुरू हुई।
बता दें कि हर साल बकरीद की तारीख धुल हिज्जा महीने के चांद के दिखने पर ही निर्भर करती है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, धुल हिज्जा महीना इस्लाम का 12वां महीना होता है।
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