American Independence Day: हर साल 4 जुलाई को अमेरिका अपना स्वतंत्रता दिवस मनाता है और ये बड़े आश्चर्य की बात है कि खास इसी रोज देखी जाने वाली फिल्मों की लिस्ट में ‘फॉरेस्ट गम्प’ का भी नाम होता है। कहाँ पर राष्ट्रभक्ति का छाती फुला देने वाला भाव और कहाँ एक असामान्य व्यक्ति के द्वारा किये गए असाधारण कारनामों की गाथा। दोनों में कोई मेल ही समझ नहीं आता, लेकिन स्वतंत्रता का ये महान उत्सव मनाने के लिए अमेरिकियों को सुझाई गई कुछ अच्छी फिल्मों की सूची में अभिनेता टॉम हैंक्स की इस अद्भुत फिल्म को हमेशा शामिल किया जाता है। शायद इस फिल्म का मूल संदेश ही “मेक अमेरिका ग्रेट” जैसे विचार को मजबूत करता है। इसी विचार की नई सीढ़ी पर चढ़कर डोनाल्ड ट्रम्प सत्ता के शिखर पर पहुंच गए। राष्ट्र को महान बनाने का विचार असल में अलादीन का चिराग है, जिसे सब अपने लाभ के लिए घिसते रहते है, फिर भी चिराग जस का तस रहता है।
ग्राम तो सबको ही प्रिय है लेकिन…
इससे उलट हिंदी सिने दर्शकों के लिए तो ‘क्रांतिवीर’ और ‘तिरंगा’ के टीवी पर आए बिना स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस सफल माना ही नहीं जा सकता। भावनाओं का ये अतिरेक और तड़क-भड़क भारतीय रक्त की विशेषता है। निर्देशक आशुतोष गोवारिकर द्वारा ‘स्वदेस’ जैसी महान फिल्म में शालीनता से बयाँ किया गया देशप्रेम तो हमको तपा ही नहीं सकता। वैसे भी गांवों का कायाकल्प करने आये एक सफल अमेरिकी बन चुके युवा की वापसी को यहाँ का डॉलर प्रेमी समाज पचा नहीं पाया था। ग्राम तो सबको ही प्रिय है, लेकिन सोशल मीडिया पर डाली गई तस्वीरों में भर।
स्वतंत्रता दिवस अपना मूल्यांकन करने का दिन
स्वतंत्रता दिवस महज जोश जगाने का बहाना भर नहीं है, ये नागरिक के तौर पर अपना मूल्यांकन भी करने का दिन है और मूल्यांकन से बचने के कोई पचास बहाने हम लोग बचपन में ही ढूंढ लाते हैं। जय जयकार कर देने से राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल गई समझ लेना कहीं ज्यादा आसान है। जिस देश में अपने पाप धोने के लिए भी एक महान नदी की व्यवस्था बनी हुई है, वहां से ऐसे भाव निकलना सहज है। व्यवस्था ही हमें चला रही है, हम व्यवस्था चला रहे हैं ये महज एक भ्रम है, जिसका बना रहना भी हमारी प्रसन्नता के लिए आवश्यक है।
फ्यू गुड मैन फिल्म
एक अन्य महान अमेरिकी फिल्म ‘फ्यू गुड मैन’ की याद आ रही है, जिसमें आधारहीन राष्ट्रभक्ति के ऊपर महान मानवीय मूल्यों की विजय दिखाई गई है। कथा में मानव अधिकारों के लिए लड़ने वाले भले नायक को कई मोर्चों पर कमजोर समझा जाता है जबकि उसके सामने सभी का प्रिय रहा सेनानायक है, जिसके पास अपने अनैतिक एक्शन को जायज ठहराने की कई दलीलें हैं और सबसे बड़ी बात छुपने के लिए देशभक्ति का लिहाफ भी है। ये कहानी न केवल नैतिक मूल्यों की विजयगाथा है, बल्कि हमें बताती है कि खोखली और असंवेदनशील देशभक्ति से कहीं बेहतर है अच्छा इंसान होना। दुनिया के नक्शे पर गाढ़ी बनी असंख्य राष्ट्रों की ये सीमा रेखाएं राजनीतिक तिकड़मबाज़ी का नतीजा हैं, असल में हम सबका अंतिम लक्ष्य बतौर मानव विश्व बंधुत्व के रूप में अपनी श्रेष्ठता को पाना ही होना चाहिए।
सेविंग प्राइवेट रयान
स्टीवन स्पिलबर्ग की ‘सेविंग प्राइवेट रयान’ को दुनियाभर में महान युद्ध फिल्म के तौर पर स्वीकार किया जाता रहा है, लेकिन कई आलोचकों को ये फिल्म भी एक अमेरिकी एजेंडा से ज्यादा कुछ नहीं लगती। युद्ध की भयावहता व विभीषिका को यूँ पर्दे दिखाकर भी एक प्रकार से इसका महिमामंडन ही तो किया जाता है। किसी भी जंग में कूद पड़ना और सैनिकों के शहीद होने को इसी तरह जायज बना दिया जाता है। अमेरिकी सिनेमा में युद्ध फिल्मों का एक तय फॉर्मूला है, जिसमें कथा के शुरुआती बीस-तीस मिनट नायकों से परिचित कराया जाता है और फिर बचे समय में उनकी मृत्यु से भावनाओं को जगाया जाता है। ‘प्लाटून’, ‘बॉर्न ऑन फोर्थ ऑफ जुले’, ‘वी वेयर सोल्जर्स’ और ‘फुल मेटल जैकेट’ ऐसे ही फॉर्मूले से निकली फिल्में हैं। भारत में बनी ‘बॉर्डर’ भी इसी तरह का एक उदाहरण है।
इंडिपेंडेंस डे
1996 में आई मशहूर साइंस फिक्शन डिजास्टर फिल्म ‘इंडिपेंडेंस डे’ की कथा स्वतंत्रता दिवस से पहले चाँद से आये एलियन्स द्वारा दुनिया पर हमले के साथ शुरू होती है और ठीक चार जुलाई को मानव सभ्यता दूसरी दुनिया से आये इन हमलावरों पर विजय प्राप्त कर लेती है। इसी फिल्म में ऐसा भी देखने को मिलता है कि दुनिया के सारे बड़े देश एलियन्स से लड़ने के लिए अमेरिका के साथ में आ चुके हैं। यूएसए का तो सिनेमा भी उसको दुनिया के चौधरी के तौर पर ही प्रचारित करता है। नए दुश्मन गढ़ने की इस साजिश में हॉलीवुड बराबर का भागी है, वो चाही गयी मनोदशा बनाने में कमाल का खेल दिखाता आया है। बहरहाल, अमेरिकी जनता को उनके स्वतंत्रता दिवस की मुबारकबाद।
लेखक – दिलीप कापसे