हाइलाइट्स
- जस्टिस प्रशांत कुमार पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार
- 13 हाईकोर्ट जजों ने फुल कोर्ट बैठक की मांग की
- न्यायिक स्वतंत्रता बनाम सर्वोच्च नियंत्रण पर बहस
Justice Prashant Kumar Case: इलाहाबाद हाईकोर्ट इन दिनों एक बड़े न्यायिक विवाद के केंद्र में है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जस्टिस प्रशांत कुमार को कड़ी फटकार लगाने के बाद पूरे न्यायिक समुदाय में हलचल मच गई है। अब इस मुद्दे पर हाईकोर्ट के 13 वरिष्ठ न्यायाधीश खुलकर जस्टिस प्रशांत कुमार के समर्थन में सामने आ गए हैं। उन्होंने चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखकर “फुल कोर्ट बैठक” बुलाने की मांग की है।
इस पूरे मामले ने न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता, प्रक्रिया की गरिमा और न्यायिक अधिकारियों की स्वतंत्रता को लेकर गंभीर बहस को जन्म दे दिया है।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश: क्या था मामला?
4 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन शामिल थे, ने जस्टिस प्रशांत कुमार द्वारा पारित एक आदेश पर टिप्पणी करते हुए उन्हें न केवल “कानून की घोर अज्ञानता” का दोषी ठहराया, बल्कि यह तक कहा कि “उन्होंने न्याय का मजाक बना दिया।” यह आदेश विशेष अनुमति याचिका (SLP) संख्या 11445/2025, M/s Shikhar Chemicals बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के संदर्भ में पारित किया गया।
मामला एक विवादित बिक्री लेन-देन से जुड़ा था, जिसमें एक वादी ने खरीदार के खिलाफ आपराधिक विश्वासघात (धारा 405 IPC) का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज करवाई थी। मजिस्ट्रेट ने आरोपी को समन जारी किया था, जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। जस्टिस प्रशांत कुमार ने, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के निर्णयों पर भरोसा करते हुए समन रद्द करने से इंकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जस्टिस कुमार ने “एक विशुद्ध दीवानी विवाद में आपराधिक कार्यवाही को सही ठहराया।” आदेश में यह भी कहा गया: “यह समझना मुश्किल है कि उच्च न्यायालय के स्तर पर भारतीय न्यायपालिका में क्या गड़बड़ है… क्या यह किसी बाहरी दबाव का परिणाम है या फिर कानून की अज्ञानता?”
साथ ही, शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को निर्देश दिया कि जस्टिस प्रशांत कुमार को अब कोई भी आपराधिक मामला आवंटित न किया जाए और उन्हें केवल वरिष्ठ न्यायाधीश की खंडपीठ में ही बैठाया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सवाल
इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस अरिंदम सिन्हा ने 7 अगस्त को चीफ जस्टिस को पत्र लिखकर कहा कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश “एकतरफा और बिना किसी नोटिस” के पारित किया गया है। उन्होंने कहा कि: जस्टिस कुमार ने अपने आदेश में Lee Kun Hee बनाम राज्य (2012) 3 SCC 132 जैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का पालन किया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में बिना नोटिस दिए कठोर टिप्पणियां की गईं, जो न्यायिक गरिमा के खिलाफ हैं।
उन्होंने Amar Pal Singh बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2012) 6 SCC 491 का हवाला देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामलों में संयम बरतना चाहिए। जस्टिस सिन्हा ने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं आपराधिक मामले को खारिज नहीं किया, बल्कि पुन: विचार के लिए उसे दूसरे न्यायाधीश के पास भेजा।
13 जजों की चिट्ठी: जस्टिस कुमार के समर्थन में एकजुटता
इस विवाद के बीच, इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जजों ने अपने चीफ जस्टिस को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि इस मुद्दे पर एक “फुल कोर्ट बैठक” बुलाई जाए। यह अभूतपूर्व कदम दर्शाता है कि न्यायिक संस्थान के भीतर न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा की रक्षा को लेकर कितना गंभीर भाव है।
न्यायिक स्वतंत्रता बनाम सर्वोच्च नियंत्रण: बड़ी बहस
यह मामला केवल एक आदेश या टिप्पणी का नहीं, बल्कि पूरे भारतीय न्यायिक तंत्र की आत्मा से जुड़ा है। एक ओर सुप्रीम कोर्ट न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को लेकर सख्त रुख अपना रहा है, वहीं दूसरी ओर हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायिक स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा के लिए खड़े हो गए हैं।