राजेश बादल की कलम से…
उन दिनों मैं बचपन की देहरी लाँघकर किशोरावस्था के आँगन में क़दम रख रहा था। घर के छोटे से पुस्तकालय में कुछ किताबों के बीच एक कहानी मिली। नाम था गेंग्रीन। कहानी ने झिंझोड़ दिया। कहानी की नायिका मालती मेरे ज़ेहन में गहरे उतर गई।
इस कहानी से पहले मैंने प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ी थीं। मुझे लगा कि जिस वेदना और संवेदना को प्रेमचंद शब्दों के ज़रिए व्यक्त करते हैं, यह कहानी भी कुछ कुछ वैसी ही है। कहानी के लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे।
उस कहानी के बाद सैकड़ों कहानियाँ पढ़ीं। पर, गैंग्रीन का वह क़िरदार अभी भी मालती की ख़ुश्बू की तरह मेरे साथ जुड़ा हुआ है। यूँ तो उस कहानी में मालती नाम के पात्र की दैनंदिन उबाऊ और नीरस ज़िंदगी का ही चित्रण था, मगर वह आनंद रस से बेख़बर थी।
मालती अज्ञेय के बचपन की मित्र थी। रिश्ते में बहन लगती थी। बड़े होने पर दोनों अपनी अपनी ज़िंदगी में डूब गए। एक दिन वे मालती से मिलने कई किलोमीटर दूर चलकर किसी पहाड़ी इलाक़े में जा पहुँचे। मालती का पति डॉक्टर था। वह अपने मरीज़ों में मशरूफ़ रहता था।
मालती दिन भर चौका चूल्हा और झाड़ू बर्तन में खटती थी। एक छोटा बेटा था। वह रह रह कर रोने की दुनिया में खोया रहता था। कहानी का हर क़िरदार अपने आप में ग़ुम था। अज्ञेय के दिमाग़ में मालती अब एक फाँस की तरह चुभ रही थी। उसी फाँस का एक अंश शायद मेरे भीतर भी चुभ रहा था।
वैसे तो उस दौर के हिन्दुस्तान में आम मध्यमवर्गीय परिवारों में मालती जैसे पात्र हम सबके घरों में बिखरे हुए थे, लेकिन जो अहसास गैंग्रीन ने पैदा किया, वैसा किसी ने नहीं। बाद में गेंग्रीन का नाम बदलकर रोज़ कर दिया गया, लेकिन मुझे जब भी यह कहानी याद आती है, गेंग्रीन ही जेहन में उभरता है।
अज्ञेय के कथा संसार से मेरा यह पहला परिचय था। अज्ञेय से तो एक ही मुलाक़ात हुई, पर उनकी मालती और दिनमान तथा नवभारत टाइम्स के पन्नों पर उनके शब्दों से बरसों रिश्ता बना रहा। मालती कुछ इस तरह घर कर गई थी कि जब तब वह मेरी यादों का भी हिस्सा बन जाती थी।
मेरी पत्रकारिता के तीस बरस बाद जब कमलेश्वर ने हंस में टेलिविज़न पत्रकारिता संसार को कहानियों की शक्ल में पाठकों के लिए लाने का निर्णय किया तो मुझे भी एक कहानी लिखने का आदेश मिला। अपने सैंतालीस बरस की पत्रकारिता में मैंने केवल तीन कहानियाँ लिखीं हैं।
हंस की कहानी तीसरी है। जब मैं लिखने बैठा तो कहानी का ढाँचा तैयार था। वह एक नायिका प्रधान कहानी थी, जो एक टीवी चैनल की प्रमुख संपादक थी। किंतु, उसकी अपनी ज़िंदगी का ताना बाना बुनते समय मेरे अवचेतन में मालती ही थी। उसका लौटना नाम से यह कहानी हंस में प्रकाशित हुई और बताने की ज़रूरत नहीं कि नायिका का नाम मालती ही था। यह 2006 का साल था।
अज्ञेय ने मुझ पर दूसरी बार कॉलेज की पढ़ाई के दिनों में क़ब्ज़ा किया। शेखर एक जीवनी – एक साँस में पढ़ गया। दोनों भाग। कुछ समय बाद फिर पढ़ा। फिर पढ़ा और पढता गया। कई बार….कभी शेखर और उसके पिता के बीच संवाद चित्रों के साथ चलते तो कभी शशि प्रसंग झिंझोड़ देता। शशि का शेखर की ज़िंदगी में आना और चले जाना। सब कुछ बेहद तकलीफदेह। शशि और शेखर के बीच संवाद का एक टुकड़ा तो ऐसा रट गया है, मानों वह मेरी अपनी ज़िंदगी का ही कोई अंश रहा हो। शशि शेखर से पूछती है,
मैं वापस चली जाऊँ ?
कहाँ ?
वापस, जहाँ दे दी गई थी
शशि! क्या कह रही हो तुम? वहाँ वापस। यह क्या अभी हो सकता है ?
हाँ! वे….प्यार देना जानते होते तो शायद मेरा जाना नहीं हो सकता था। पर अभी शायद हो सकता है। अधिक से अधिक …
वह मैं नहीं पूछता शशि। बस जानना चाहता हूँ। क्या यह अभी भी हो सकता है। क्या तुम्हारी ओर से अभी भी……
ओह ….शेखर, मैं तुम्हारे मार्ग में बाधा हूँ। तुम्हें नीचे खींच रही हूँ और वह मैं कभी नहीं होने दूंगी। उससे कहीं आसान है लौट जाना
कैसी बातें करती हो शशि? मेरी तो बात ही अभी छोड़ो। तुम लौटने की सोच कैसे सकती हो ?
क्यों? अगर तुम्हारी उसमें उन्नति है, तुम्हारी सुविधा है…
और तुम्हारी अपनी आत्मा कुछ नहीं है। ऐसा कुछ नही हो सकता, जिसके लिए आत्मा का हनन…..
मेरी आत्मा उसमें नहीं मरेगी शेखर। मैं वहाँ भी जी लूंगी…जी सकूंगी, क्योंकि तुम्हें बढ़ाती रहूँगी…तुमसे दूर हटती हूँ शेखर, क्योंकि पंगु हो गई हूँ। इसलिए नहीं कि प्यार का अर्थ नहीं जानती। कोई स्त्री प्यार नहीं जानती, जो एक साथ ही बहन, स्त्री और माँ का प्यार देना नहीं जानती।
मैं लौटकर इसलिए जी सकूँगी कि माँ की तरह तुम्हें पाल सकूँगी। तुम नहीं जानते कि यह विश्वास मेरे लिए कितना आवश्यक है। अब तो और भी अधिक। मैं ज़रूर जी लूँगी। हालांकि वह जीवन एक कीड़े का होगा। पर, नारी वह अग्निकीट हो सकती है, जिसके पेट में निरंतर आग जलती रहती है।
मेरे ज़ेहन में अज्ञेय का यह दूसरा रूप है। यह कोई चमत्कार नहीं तो और क्या है कि किसी को आप पढ़ें और एक एक शब्द ऐसा अंकित हो जाए कि आख़िरी साँस तक नहीं भूले। उसे आप क्या कहेंगे? जब जब शेखर एक जीवनी पढ़ता हूँ, कभी दुष्यंत कुमार का रेडियो नाटक आग और धुआँ दिखाई देने लगता है तो कभी धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता और उनकी पहली पत्नी कांता दत्त भारती का लिखा रेत की मछली याद आने लगती है।
मेरी दृष्टि में किसी कालजयी रचनाकार की परिभाषा यही है कि आप उसका लेखन पढ़ें और वह तमाम कालखंडों की सीमाएँ पार कर आपकी संवेदनाओं को झकझोर कर रख दे। अज्ञेय ऐसे ही शब्द शिल्पी थे।
क्या आप उनकी यायावरी को आप भूल सकते हैं। उनकी स्विटज़रलैंड यात्रा तमाम यात्रा वृतांत वाले आलेखों की तुलना में मुझे सबसे बेहतर लगती रही है।
उसे बार बार पढता रहा हूँ। हर बार नई सी लगती है। दरअसल भारतीय साहित्य और पत्रकारिता में घुमक्क्ड़ी को वैसा मान नहीं मिला है, जिसकी वह हक़दार है। मैं भी सारी उमर यायावरी ही करता रहा हूँ। इसलिए मेरे लिए हिंदी में इस विधा के श्रेष्ठ लेखक राहुल सांस्कृत्यायन, अज्ञेय, जवाहरलाल नेहरू, बनारसीदास चतुर्वेदी और वसंत पोतदार ही रहे हैं।
स्विट्ज़रलैंड की यात्रा प्रसंग में बिम्ब और उपमाएँ बेमिसाल हैं। इस सफ़र में उन्हें एक अँगरेज़ अध्यापक मिलता है। उसने हिंदुस्तान और हिमालय को भी देखा है। वह स्विट्ज़रलैंड के पर्वतों की महिमा गाते गाते अचानक ठिठक जाता है।
वह कहता है कि अरे! मिस्टर अज्ञेय, आपसे क्या इसकी बात करें। हिमालय के सामने तो हमारे पहाड़ एक फुंसी के बराबर होंगे। यह उपमा उस अध्यापक की है, लेकिन अज्ञेय का संवेदन बिंदु उसे चुम्बक की तरह खींच कर अपने आलेख में ले आता है। यह हुनर कितने लेखकों के पास होता है?
दो शब्द…
आज हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन अज्ञेय की जयंती है। हाल ही में उन पर केंद्रित एक ग्रन्थ जाने माने पत्रकार, संपादक, लेखक त्रिलोकदीप और सुधेन्दु ओझा जी ने संपादित किया है। अज्ञेय को जानने, समझने, महसूस करने के लिए यह नायाब शिल्प है। अपने पुरखों को याद करने वाले इस यज्ञ में मेरी भी एक आहुति है। उन पर लिखे मेरे आलेख का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है।
(लेखक मध्य प्रदेश के जाने-माने पत्रकार हैं। )