नई दिल्ली। अफगानिस्तान में नई अंतरिम सरकार को “नई बोतल में पुरानी शराब” Afghanistan Crisis करार देते हुए, पूर्व भारतीय राजनयिकों ने बुधवार को कहा कि काबुल में गठित कैबिनेट ने तालिबान 2.0 को लेकर ‘मिथकों’ को दूर कर दिया है। उनका कहना है कि अफगानिस्तान की नई सरकार पर पाकिस्तान की पुख्ता छाप है जो कि है भारत के लिए “चिंता का विषय” है।
तालिबान ने मंगलवार को मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद के नेतृत्व वाली एक अंतरिम सरकार की घोषणा की, जिसमें प्रमुख भूमिकाएं विद्रोही समूह के रसूखदार सदस्यों को दी गई हैं। इसमें हक्कानी नेटवर्क के विशेष रूप से नामित वैश्विक आतंकवादी सिराजुद्दीन हक्कानी को गृह मंत्री Afghanistan Crisis बनाया गया है।
अमेरिका ने उस पर एक करोड़ अमेरिकी डॉलर का Afghanistan Crisis इनाम रखा है। सरकार में हालांकि शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई जैसे कुछ लोग भी शामिल हैं जिनका रुख भारत के प्रति मित्रवत रहा है लेकिन वह वरिष्ठता क्रम में नीचे हैं। उन्हें उप विदेश मंत्री बनाया गया है।
पूर्व विदेश मंत्री के नटवर सिंह, पूर्व राजनयिक मीरा शंकर, अनिल वाधवा और विष्णु प्रकाश ने कहा कि नई सरकार में चरमपंथी तत्व हैं और भारत को अपने “प्रतीक्षा करो और देखो” (वेट एंड वॉच) दृष्टिकोण को आगे भी जारी रखना चाहिए। अफगानिस्तान Afghanistan Crisis में भारत के पूर्व राजदूत राकेश सूद ने कहा कि काबुल में घोषित अंतरिम सरकार तालिबान 2.0 के बारे में किसी भी मिथक को दूर करती है।
उन्होंने कहा, “यह स्पष्ट रूप से तालिबान 1.0 जैसी है जिस पर Afghanistan Crisis हर जगह आईएसआई की छाप है।” अमेरिका में 2009 से 2011 के बीच भारत की राजदूत के तौर पर काम करने वाली शंकर ने कहा कि हमें इंतजार करना होगा और यह देखना होगा कि तालिबान द्वारा अपनाई गई नीतियों के संदर्भ में इस घटनाक्रम के भारत के लिये क्या मायने हैं।
उन्होंने ‘पीटीआई’ से कहा, “लेकिन यह Afghanistan Crisis आशाजनक नहीं लगता और वास्तव में चिंता का विषय है क्योंकि नई बोतल में पुरानी शराब सरीखा लग रहा है, नियुक्त किए गए कई चेहरे वही हैं (जो तालिबान की पिछली सरकार में थे)।”
शंकर ने कहा कि सिराजुद्दीन हक्कानी को गृह मंत्रालय के प्रमुख के रूप में नियुक्त करना चिंता का विषय है जबकि तालिबान Afghanistan Crisis का उदारवादी चेहरा पेश करने वाले दोहा समूह को काफी हद तक हाशिए पर डाल दिया गया है।
इसका भारत के लिये झटके के तौर पर उल्लेख करते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में इसे (नए अफगान शासन को) देखने के बजाय जो अधिक महत्वपूर्ण था वह यह कि अफगानिस्तान के लोगों के लिए यह एक झटका होगा।
उन्होंने यह भी कहा कि सरकार गठन पर जब चर्चा हो रही थी तब पाकिस्तान के इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस (आईएसआई) के महानिदेशक (डीजी) लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद की मौजूदगी स्पष्ट रूप से दिखाती है कि उसमें पाकिस्तान Afghanistan Crisis का “खुला” हस्तक्षेप था। वाधवा 2017 में सेवानिवृत्ति से पहले विदेश मंत्रालय में सचिव (पूर्व) के तौर पर सेवा दे चुके हैं।
उन्होंने कहा कि इसकी काफी उम्मीद थी कि सरकार ‘समावेशी’ सरकार नहीं होगी जैसा कि लोग सोच रहे थे। उन्होंने ‘पीटीआई’ को बताया, “तालिबानी गुटों ने अपना संतुलन साधा है और चरमपंथी तत्व वहां व्याप्त हैं तथा अन्य को दरकिनार कर दिया गया है। Afghanistan Crisis इसलिये मूल रूप से दोहा गुट को दरकिनार किया गया है। इस तरह के संगठन से समावेशी सरकार की उम्मीद करना, विशेष तौर पर तब जब पाकिस्तान वहां पुरजोर दखल दे रहा हो, असल में वास्तविकता पर निर्भर नहीं था।”
वाधवा ने कहा, “जो कुछ हुआ है, वह अपेक्षित रूप से हुआ है और यह निश्चित रूप से भारत, अमेरिका और कुल मिलाकर पश्चिमी देशों के लिए एक झटका है। मुझे हालांकि लगता है कि चूंकि ये देश (पश्चिम) अफगानिस्तान में कार्रवाई से बहुत दूर हैं, वे धीरे-धीरे समय के साथ इस Afghanistan Crisis परिस्थिति को स्वीकार कर उसके साथ रहने लगेंगे, लेकिन जिस देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा, वह संभवत: भारत होगा, शायद बाद में ईरान और रूस जैसे देशों पर भी इसका असर हो लेकिन चीन ज्यादा प्रभावित नहीं होगा।”
उन्होंने जोर देकर कहा कि नई सरकार पर पाकिस्तान की आईएसआई की छाप है और इंगित किया कि गृह मंत्रालय हक्कानी गुट को मिलना अपने आप में काफी कुछ कहता है। अलंकारिक तौर पर “नई बोतल में पुरानी शराब” के इस Afghanistan Crisis मामले को स्वीकार करते हुए, उन्होंने कहा, “फिलहाल, हां हम इस तरह की सरकार को मान्यता नहीं देने जा रहे हैं लेकिन मुझे नहीं पता कि हमारे पास उनके साथ संचार का एक जरिया क्यों नहीं होना चाहिए।”
कनाडा और दक्षिण कोरिया में भारत के राजदूत रह चुके प्रकाश ने भी संचार के माध्यम खुले रखने पर समान विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इसका मतलब मान्यता या समर्थन देना नहीं है बल्कि इसका मतलब है “हमारे पास संचार का एक जरिया है” जिससे पाकिस्तान Afghanistan Crisis को “मनमानी” करने की छूट न रहे। प्रकाश ने कहा कि चौंकाने वाली बात यह है कि दोहा समूह को भी बाहर कर दिया गया क्योंकि उन्हें पर्याप्त कट्टरपंथी नहीं माना जाता और कहा कि “रावलपिंडी (पाकिस्तानी सेना के संदर्भ में) बता रहा है कि करना क्या है।”
उन्होंने कहा, “जब आपके पास बामियान बुद्ध की प्रतिमा को Afghanistan Crisis गिराने का आदेश देने वाले मुल्ला हसन अखुंद या भारतीय दूतावास पर हमले के लिये जिम्मेदार सिराजुद्दीन हक्कानी जैसे लोग हों जो सिर्फ बंदूक की भाषा समझते हों तो मैं कहूंगा कि बोतल पुरानी है और शराब भी पुरानी ही है।”
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की छाप नई सरकार पर स्पष्ट है। संप्रग-1 सरकार के दौरान विदेश मंत्री रहे और पाकिस्तान में भारत के राजदूत समेत कई वरिष्ठ राजनयिक पदों पर रह चुके सिंह ने कहा कि बामियान बुद्ध को नष्ट करने के लिये जिम्मेदार व्यक्ति और इस दौरान Afghanistan Crisis जुड़े चरम इस्लामवादी सरकार का हिस्सा हैं।
सिंह ने कहा, “मुझे लगता है कि कुछ महीनों के लिए हमें बस इंतजार Afghanistan Crisis करना चाहिए और देखना चाहिए क्योंकि हम नहीं जानते कि क्या कार्रवाई होगी। कोई नहीं जानता कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं।”
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान आर्थिक तौर पर और हथियारों से Afghanistan Crisis तालिबान की मदद करता है लेकिन उसे समस्या का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि वे आगे चलकर उसके खिलाफ खड़े हो सकते हैं।
उन्होंने कहा, “हम उनके साथ अच्छे संबंध रखना चाहेंगे लेकिन Afghanistan Crisis फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि उनकी इसमें दिलचस्पी है।” पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने मंगलवार को कहा कि भारत, अफगानिस्तान में बनी नई सरकार के साथ काम नहीं कर सकता और उसे नहीं करना चाहिए। सिन्हा ने ट्वीट किया, “भारत अफगानिस्तान में तालिबान की इस सरकार के साथ काम नहीं कर सकता और उसे नहीं करना चाहिए।”