रायपुर। आपने कभी लाल चींटियों की चटनी के बारे में सुना है। सुनने में यह थोड़ा अजीब जरूर लग रहा है। लेकिन यह सच है। दरअसल, छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासी बडे चाव से लाल चीटिंयों की चटनी को खाते हैं। आदिवासी पहले उन्हें पेड़ों से इकठ्ठा करते हैं और फिर चटनी बनाते हैं। इस चटनी को वहां के लोग ‘चापड़ा’ कहते हैं।
आदिवासी सदियों से इस चटनी को खाते हैं
बतादें कि छत्तीसगढ़ के अलावा इसे ओडिशा और झारखंड के जंगलों में रहने वाले आदिवासी बड़े चाव से खाते हैं। अगर आप बस्तर जाएंगे तो वहां के हाट बाजार में आपको हरे पत्तों के दोने में लाल चीटिंयों की चटनी बिकती हुई दिख जाएगी। वहां के लिए यह आम बात है। आदिवासी इस चटनी को अपने खानपान में सदियों से इस्तेमाल करते आए हैं।
स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक है
आदिवासी समुदाय का इस चटनी को लेकर मानना है कि चापड़ा (lal chinti ki chatni) खाने से लोग स्वस्थ्य रहते हैं। यह स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक है। मालूम हो कि चीटियों में भारी मात्रा में प्रोटीन के साथ कैल्सियम पाया जाता है। ऐसे में जब आदिवासी इसका सेवन करते हैं तो उनहें मलेरिया और पीलिया जैसी बीमारियों में आराम मिलता है। साथ ही प्रतिरक्षा प्रणाली भी मजबूत होती है। जो अन्य बीमारियों से बचाने में काफी मददगीर होती है।
बुखार होने पर चींटियों से कटवाते हैं
खाने के अलावा यहां के आदिवासी इन चींटियों से खुद को कटवाते भी हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से साधारण बुखार उतर जाता है। जब उन्हें बुखार होता है तो वे पेड़ के नीचे बैठ जाते हैं और लाल चीटिंयों को अपने शरीर के उपर रख लेते हैं। हालांकि डॉक्टर इस प्रक्रिया को गलत मानते हैं। उनका कहना है कि बुखार इसलिए उतर जाता है क्योंकि चींटियों में फॉर्मिक एसिड पाया जाता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति लगातार इस तरह से चींटियों से कटवाता है तो यह जानलेवा भी हो सकता है।
चीटिंयों को कीटनाशक के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है
मालूम हो कि ब्राजील, आस्ट्रेलिया और चीन जैसे देशों में लाल चींटियों को प्राकृतिक जैविक कीटनाशक (बायोपेस्टिसाइड) के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। फलों के बगीचों में इन चींटियों को छोड़ दिया जाता है। ताकि इनके डर से फलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट दूर रहें।