जगदलपुर। कांटों को मुरझाने का खौफ नहीं होता, इसलिए कांटों को जीतना ज्यादा मुश्किल है। यही संदेश काछनदेवी की पूजा में निहित है।
इस बार 7 साल की पीहू काछनदेवी चुनी गई है। वह बस्तर राजपरिवार के सदस्यों को बेल के कांटों से बने झूले पर झूलकर दशहरा मनाने की इजाजत देंगी।
इसके लिए पीहू पिछले कई दिनों से देवी की आराधना कर रही हैं। वह पढ़-लिख कर कलेक्टर बनना चाहती हैं।
इसलिए मनाई जाती है काछनदेवी रस्म
पनका जाति की कुंवारी कन्या ही इस रस्म को अदा करती हैं। 22 पीढ़ियों से इसी जाति की कन्याएं इस रस्म की अदायगी कर रही हैं।
बस्तर महाराजा दलपत देव ने काछनगुड़ी का जीर्णोद्धार करवाया था। करीब 615 साल से यह परंपरा इसी गुड़ी में संपन्न हो रही है। काछनदेवी को रण की देवी भी कहा जाता है।
काछनदेवी की पूजा आज रात
बस्तर का महापर्व दशहरा बिना किसी बाधा के संपन्न हो, इस मन्नत और आशीर्वाद के लिए काछनदेवी की पूजा होती है। यह परंपरा करीब 615 सालों से चली आ रही है।
14 अक्टूबर की रात काछनदेवी के रूप में अनुसूचित जाति की कुंआरी कन्या पीहू दास बस्तर राजपरिवार को इस तरह का आशीर्वाद देगी।
कांटों का झूला लगाया जाएगा
काछनगुड़ी के बाहर कांटों का झूला लगाया जाएगा। अक्षत, रोली से झूले के पास चौक पूरा जाएगा।
राजपरिवार के सदस्य गणमान्य नागरिकों सहित नंगे पैर यहां आकर देवी से आशीर्वाद मांगेंगे।
इस दौरान मिरगान जाति की कुंआरी कन्या, जिस पर देवी सवार रहती हैं, को कांटों से बने झूले में लिटाया जाएगा।
प्रतिवर्ष पितृमोक्ष अमावस्या को इस प्रमुख विधान से बस्तर दशहरा की शुरूआत होती है।
जातीय समभाव का प्रमुख पर्व बस्तर दशहरा
बस्तर दशहरा जातीय समभाव का प्रमुख पर्व है। इसमें सभी जाति के लोगों को जोड़कर इनकी सहभागिता निश्चित की गई थी।
इसीलिए यह जन-जन का पर्व कहलाता रहा है।
राज्य के महापर्व की शुरूआत जातीय व्यवस्था के निचले पायदान पर खड़ी अनुसूचित जाति की बालिका की अनुमति से हो, ऐसी राष्ट्रीय एकता की भावना और नारी सम्मान का बेहतरीन उदाहरण बस्तर दशहरा में देखने को मिलता है।
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