Vichar Manthan: मोबाइल फोन ने हमारी दुनिया को तेज रफ़्तार बना दिया है। सूचनाओं और सुविधाओं का अंबार लगा दिया है। सब कुछ हमारी उंगलियों यानी फिंगरटिप पर है!
किसी को मैसेज भेजना हो, तो फलां ऐप खोलो और जो चाहो, लिख मारो, इमेज भेज दो, ऑडियो मैसेज कर कर दो, विडियो चस्पां कर दो। सूचनाओं और संदेशों के आदान-प्रदान में अब न तो मीडियम बाधा है और न ही डिवाइस।
सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ने हमारा अटेंशन छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। एक सर्वे के मुताबिक़, हम भारतीय फेसबुक, यूट्यूब, व्हाट्सएप्प, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया इंटरफ़ेस पर औसतन साढ़े पांच घंटे से अधिक समय गुजारते हैं।
जी हां, दिन के साढ़े पांच घंटे, जो 24 घंटे का लगभग 23 प्रतिशत होता है। यानी, अपनी ‘एक दिन की जिंदगी‘ का एक चौथाई से थोड़ा ही कम हिस्सा, जो कि जल्द ही उसके बराबर हो जाएगा, आभासी और डिजिटल दुनिया को भेंट चढ़ा रहे हैं।
दुनिया के किसी छोर पर कोई दूसरा आपके विचार, संदेश और पोस्ट को देख रहा है, पढ़ रहा है, सुन रहा है। अपनी मनोदशा और सुविधा के मुताबिक प्रतिक्रियाएं दे रहा है। वो भी आपकी ही तरह इस वर्चुअल दुनिया में गोते लगा रहा है। वह भी आपके जितना ही पिपासु है।
इस आभासी दुनिया में आज हर कोई ‘गूंगा’ है। मोबाइल स्क्रीन पर नुमाया संदेश ‘गुड़’ है। जिसका स्वाद लेने में हम सभी बड़े चटोरे बन गए हैं।
या तो ये फिंगर (ऊंगली) बड़ी मरदूद है या फिर ये मोबाइल फोन…, क्योंकि इसने सीधे दिमाग पर कब्जा जमा लिया है। दरअसल यह गूंगे का गुड़ बन गया है। खुद में ही चुभलाते रहो, खुद में ही स्वाद उठाते रहो। भए मगन गोपाला बने रहो।
हालिया घटना भोपाल में नवनिर्मित भारत के पहले प्राइवेट स्टेशन रानी कमलापति के एयर कॉनकोर्स में बने यात्रियों के बैठक स्थान की है। जहां एक महिला बहुत देर से अपने तीन साल के बच्चे को दूंढ़ रही थी। बच्चा न मिलने के कारण उसकी आँखें भरी हुई थी, गला रूंधा हुआ था।
उसकी परेशानी में उसके पति सहित दूसरे पैसेंजर्स भी शामिल थे। उसके बच्चे को कोई यहां-वहां दूंढ़ रहा था, तो कोई किसी और कोने में तलाश रहा था, तो कोई किसी दूसरी जगह पर देख रहा था। आख़िरकार बच्चा मिल गया। वो एस्केलेटर से नीचे उतर गया था। प्लेटफ़ॉर्म पर खेल रहा था। सबकी जान में जान आई।
सबसे बड़ा सवाल था कि बच्चा आखिर वहां पहुंचा कैसे? उसकी मां कहां थी? पिता या साथ के लोग कहां थे? जवाब मिला। मालूम हुआ कि महिला मोबाइल फोन चलाने में बिजी हो गई थी।
पिता किसी से बात करते-करते दूर एक कोने में चले गए थे। बच्चा खेलते-खेलते थोड़ा दूर निकल आया। फिर एस्केलेटर के रास्ते प्लेटफ़ॉर्म पर आ गया।
क्या गलती बच्चे की थी? नहीं। वह तो तीन साल एक अबोध और नादान नन्हा बालक है। उसकी गलती मान लेंगे तो हम बरी हो जाएंगे।
क्या मां-बाप गलत थे? नहीं, वे भी गलत नहीं थे। मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना गलत बात नहीं है। अपनों से जुड़ने और मोबाइल से हो जाने वाले काम को पूरा करने के लिए ही तो ये डिवाइस बना है।
तो फिर गलत क्या है? गलत ये है कि वे मोबाइल फोन की वर्चुअल दुनिया में गुम हो गए थे। वो भी इस कदर कि उसका बच्चा कहां गया, क्या कर रहा है, इसकी सुध भूल गए।
कोरोना महामारी के दिनों में व्हाट्सअप्प पर एक फोटो मैसेज बड़ा वायरल हुआ था। उस फोटो में एक कमरे में एक पूरा परिवार मौजूद है।
कोई बैठा हुआ, तो लेटा हुआ है। दो-तीन लोगों की हाथों में मोबाइल फोन है। एक के पास टैबलेट या आईपैड है। एक पास लैपटॉप है। सभी के सभी आंखें गड़ाए स्क्रीन में न जाने क्या दूंढ़ रहे हैं।
इस फोटो को भेजने वाले ने बड़ी शिद्दत से इसे नोट किया होगा। क्योंकि जो टेक्स्ट फोटो पर लिखा था, वह गुदगुदाने वाला नहीं बल्कि आज भी विचार करने योग्य है। टेक्स्ट का मजमून था- “हम सब साथ हैं”।
क्या वाकई में? क्या हम अपने घरों में एक साथ हैं? यह सवाल हम सबके लिए है!
-श्यामनंदन कुमार
डिस्क्लेमर: विचार मंथन में प्रस्तुत आर्टिकल में व्यक्त/उल्लिखित विचार लेखक के निजी विचार और अभिव्यक्ति हैं। बंसल न्यूज न तो उसका विरोध करता है और न ही समर्थन।
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