हाइलाइट्स
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लोकतंत्र में सांसदों की ये कैसी भूमिका?
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9 सांसदों ने किसी चर्चा में भाग नहीं लिया…
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जब सांसदों ने काम नहीं किया तो सुविधाएं क्यों?
Vichar Manthan: 17वीं लोकसभा में 543 सांसदों को निर्वाचित कर नियोक्ताकर्ता मतदाताओं ने असीम शक्ति और अधिकार प्रदान किए थे कि वे लोककल्याण के लिए कार्य करेंगे। प्रत्येक संसद सदस्य से अपेक्षा होती है कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र के हितों का प्रतिनिधित्व करे। महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों पर कानून बनाने, सरकार की जवाबदेही तय करने और सार्वजनिक संसाधनों का प्रभावी आवंटन करने की अपेक्षा की जाती है।
सदन में कुछ सांसद भोलेपन के लिए, कुछ डींगें हांकने के लिए , कुछ हुल्लड़ के लिए, कुछ यौन शौषण के लिए, कुछ पैसे लेकर सवाल पूछने के लिए, कुछ खामोश रहने के लिए, कुछ मिमिक्री के लिए चर्चित रहे।
आपको यह जान कर हैरानी होगी कि 9 माननीय सांसद ऐसे भी हैं,जो पांच साल से वेतन ले रहे हैं और खामोश हैं। आजकल जो जितना ज्यादा नमक खाता है, उतनी ही ज्यादा नमक हरामी करता है… फिल्म में डायलॉग बोलने वाले अभिनेता/सांसद इंसानियत के दुश्मन सदन में खामोश रहे।
गदर के हीरो… पाकिस्तान पहुंच कर चीखते हुए कहते हैं…हिंदुस्तान ज़िंदाबाद है, ज़िंदाबाद था और ज़िंदाबाद रहेगा! लेकिन जब सदन में हिंदुस्तान जिंदाबाद का नारा बुलंद करने का अवसर था तब नदारद रहे।
बेशक ये ‘मौन तपस्वी’ किसी दल विशेष के नहीं हैं, सभी दलों के हैं। पर यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि इनमें सबसे ज्यादा 6 सांसद उस दल के हैं जिसके नेता भाषण कला में माहिर और पांच साल गारंटी वाले साहब से प्रशिक्षण लेते रहते हैं।
कोई सांसद पैसे लेकर सवाल पूछे तो अपराध है। तब वेतन लेकर सवाल ना पूछना भी अपराध है। श्रीमान! तब सवाल सांसदों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वास्तव में सांसद सदन में लोककल्याण के प्रति निष्ठावान रहे? क्या सामाजिक और आर्थिक मुद्दे उठा पाए? अपने लोकसभा क्षेत्र की समस्याओं को उठाया ? राष्ट्र हित की परिचर्चा में भाग लिया ? कितनी चर्चाओं में भाग लिया? क्या पांच साल अपने क्षेत्र की जनता के संपर्क में रहे?
नियोक्ताकर्ता मतदाताओं के प्रति सांसद जबावदेह होते हैं। जब उन्होंने काम नहीं किया तो वेतन, सुविधाएं और पेंशन लेने का अधिकार कहां से मिला? जो लाभ ले चुके वह दंड ब्याज सहित वसूला जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने “काम नहीं तो वेतन नहीं” सिद्धांत के तहत याचिका पर अपने फैसले में लिखा था कि “एक सरकारी कर्मचारी जो अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं करता है, उसे सरकारी खजाने की कीमत पर वेतन की अनुमति नहीं दी जा सकती।
फिर माननीय सांसद जो निर्वाचित होकर गए, जब उन्होने सदन में कोई काम ही नहीं किया तो उन्हें सरकारी खजाने की कीमत पर वेतन और सुविधाओं के रूप में दिया गया धन वापस लेने के लिए कार्यवाही होनी चाहिए।
पत्रकार होने के नाते, हम खामोश नहीं रह सकते। यदि उनका सिंहासन पर अधिकार है, तो आलोचना पर हमारा। हम उन्हें कुर्सी से खींच कर सड़क पर तो नहीं ला सकते लेकिन मतदाताओं की फूटी किस्मत पर सवाल तो उठा ही सकते हैं।
गैर-लाभकारी पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की सुप्रिया सुले, बीजू जनता दल (बीजेडी) के पिनाकी मिश्रा, कांग्रेस के मनीष तिवारी और भाजपा के निशिकांत दुबे 90% सदन में उपस्थित रहे।
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर से दो बार के भाजपा सांसद पुष्पेंद्र सिंह चंदेल ने सबसे अधिक 1,194 बहसों में भाग लिया। उनके बाद कांग्रेस के कुलदीप राय शर्मा और बसपा के मलूक नागर रहे।
कुल 14 सांसदों ने एक भी बहस में हिस्सा नहीं लिया। इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और रमेश पोखरियाल निशंक, टीएमसी के शत्रुघ्न सिन्हा, बीजेपी के अनंत कुमार हेगड़े और सनी देओल शामिल हैं।
सबसे खराब उपस्थिति वाले सांसदों में बसपा सांसद अतुल कुमार सिंह, टी एम सी सांसद अभिषेक बनर्जी, भाजपा सांसद और बॉलीवुड अभिनेता सनी देओल, शिरोमणि अकाली दल प्रमुख सुखबीर सिंह बादल और टीएमसी सांसद और बंगाली अभिनेत्री नुसरत जहां शामिल हैं।
भाजपा के सुकांत मजूमदार ने सबसे अधिक 654 प्रश्न पूछे और शिवसेना के श्री रंग अप्पा बार्ने और भाजपा के सुधीर गुप्ता प्रत्येक ने 635 प्रश्न पूछे।
इस बीच 24 सांसदों ने एक भी सवाल नहीं पूछा। उनमें सोनिया गांधी, भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, सदानंद गौड़ा और सपा नेता और पूर्व सांसद अखिलेश यादव शामिल हैं।
बसपा के अतुल कुमार सिंह, जो उत्तर प्रदेश के घोसी- निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित हुए हैं। एक मामले में सजा काटते हुए उनका ज्यादातर समय जेल में ही गुजरा। पांच साल के कार्यकाल में एक भी सवाल नहीं पूछा। सवाल जनता से है। अपात्र को दान दोगे तो परिणाम भुगतना ही पड़ेगा।
हरीश मिश्र ( स्वतंत्र पत्रकार), ये लेखक के निजी विचार है।