Thakur Pyarelal Singh: आजादी की 78वीं वर्षगांठ के अवसर पर देशभर में महोत्सव मनाया जा रहा है। इस मौके पर हम आपको स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ठाकुर प्यारेलाल सिंह के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ठाकुर प्यारेलाल सिंह का जन्म 21 दिसंबर 1891 को दुर्ग जिले के राजनांदगांव तहसील के देहान गांव में हुआ था। उन्होंने राजनांदगांव में प्रारंभिक शिक्षा और रायपुर गवर्नमेंट हाईस्कूल से हाईस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद, उन्होंने हिस्लाप कॉलेज, नागपुर से इण्टर की परीक्षा पास की और बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1916 में वकालत की।
राजनांदगांव में छात्रों की पहली हड़ताल का किया था नेतृत्व
ठाकुर प्यारेलाल सिंह 1900 के शुरुआती दौर में क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और 1905 में राजनांदगांव में छात्रों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया, जो देश में छात्रों की पहली हड़ताल मानी जाती है। 1906 से वे बंगाल के क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और क्रांतिकारी साहित्य का प्रचार करते हुए अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया।
उन्होंने स्वदेशी वस्त्र का व्रत लिया और विद्यार्थियों का संगठन कार्य शुरू किया। 1909 में उन्होंने राजनांदगांव में सरस्वती पुस्तकालय की स्थापना की, जो क्रांतिकारी साहित्य के प्रचार प्रसार का अच्छा माध्यम सिद्ध हुआ, लेकिन बाद में शासन ने इस पुस्तकालय को जब्त कर लिया।
प्रतिभाशाली वकीलों में शुमार हो गए थे ठाकुर प्यारेलाल
ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने 1916 में वकालत शुरू की और पहले दुर्ग में फिर रायपुर में वकालत का काम किया। जल्द ही वे प्रखर और प्रतिभाशाली वकीलों में शुमार हो गए। कांग्रेस नेता गोपालकृष्ण गोखले के रायपुर आगमन पर उन्हें आमंत्रित किया गया और पंडित वामनराव लाखे के निवास पर ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ के संदेश का प्रचार करने की रूपरेखा तैयार की गई। 1923 में झंडा सत्याग्रह के दौरान प्रांतीय समिति ने दुर्ग जिले से सत्याग्रही भेजने का कार्य ठाकुर प्यारेलाल को सौंपा।
अंग्रेजों ने उनके भाषण देने पर लगा दिया था प्रतिबंध
ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने 1924 में राजनांदगांव के मिल मजदूरों के लिए आंदोलन किया, जिसमें कई गिरफ्तारियां हुईं। अंग्रेजों ने उन पर भाषण देने पर प्रतिबंध लगा दिया और उन्हें राजनांदगांव स्टेट से निकाल दिया। इसके बाद वे रायपुर में बस गए और अछूतोद्धार कार्य में पं. सुंदरलाल शर्मा का सहयोग दिया।
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने दुकानों पर धरना देने वाले स्वयं सेवकों एवं सत्याग्रहियों को संगठित किया और स्वयं पिकेटिंग में सम्मिलित हो गए। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1 वर्ष की सजा देकर सिवनी जेल में भेज दिया, लेकिन गाँधी-इरविन समझौते के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
विदेशी बहिष्कार आंदोलन में 2 वर्ष की हुई थी सजा
1932 में विदेशी बहिष्कार आंदोलन में वे संचालक बने और 26 जनवरी 1932 को गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें 2 वर्ष की सजा और जुर्माना किया गया, जुर्माना न देने पर उनकी संपत्ति कुर्क कर ली गई और वकालत की सनद भी जब्त कर ली गई।
जेल से छूटने के बाद वे जनसेवा और संगठन के कार्य में जुट गए। 1933 में वे महाकौशल कांग्रेस कमेटी के मंत्री बने और 1937 तक इस पद पर रहकर उन्होंने पूरे प्रदेश का दौरा करके कांग्रेस को पुनः संगठित करने का प्रयास किया। 1936 में वे मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए और 1937 में म्युनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष बने।
उच्च शिक्षा के लिए छत्तीसगढ़ एजुकेशन सोसाइटी’ की स्थापना की
उन्होंने छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की कमी को पूरा करने के लिए ‘छत्तीसगढ़ एजुकेशन सोसाइटी’ की स्थापना की और छत्तीसगढ़ कॉलेज की नींव डाली। वे कांग्रेस पार्टी से जुड़े रहकर राष्ट्रीय आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के समय से लेकर स्वतंत्रता के बाद भूदान आंदोलन में विनोबा भावे और जय प्रकाश नारायण के साथ काम किया।