State Election Results 2024: जम्मू एंड कश्मीर और हरियाणा में काउंटिंग जारी है। हरियाणा के रुझानों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत सबसे अधिक है, लेकिन बहुमत के आंकड़े से वह काफी दूर हो गई है। यही हाल J&K में बीजेपी का है। यहां बीजेपी के वोट प्रतिशत सबसे अधिक हैं, बावजूद इसके रुझानों में बीजेपी सरकार नहीं बना रही है।
अब आपके मन में सवाल ये उठता होगा कि आखिर ये कैसे हो सकता है कि कोई पार्टी किसी चुनाव में सबसे ज्यादा वोट तो ले, लेकिन वो सरकार नहीं बना पाए। इसके पीछे वोट शेयरिंग का फॉर्मूला है। आखिर क्या है वोट शेयरिंग का तिलिस्म, आइये आपको सिलसिलेवार बताते हैं।
हारकर जीतने वाले को बाजीगर नहीं वोट शेयरिंग भी कहते हैं
फिल्म बाजीगर का एक बड़ा फेमस डायलॉग है कि हारकर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं, इलेक्शन के मामले में हारकर जीतने वाले को वोट शेयरिंग फॉर्मूला भी कहा जाता है।
वोट शेयरिंग का फॉर्मूले का सबसे रोचक तथ्य यही है कि यहां जीतने वाला भी हार जाता है और कई बार हारने वाला भी जीत जाता है।
हरियाणा में कांग्रेस को सबसे अधिक 40.23% वोट
ECI यानी इलेक्शन कमीशन ऑफ इण्डिया से मिले आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में कांग्रेस को सबसे अधिक 40.23 फीसदी वोट मिल रहे हैं, लेकिन कांग्रेस सिर्फ 35 सीटों पर बढ़त बनाए हुए हैं।
वहीं बीजेपी को कांग्रेस से कम 39.45 फीसदी वोट मिल रहे हैं, लेकिन सीटों के मामले में वह कांग्रेस से बहुत अधिक 49 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है।
J&K में बीजेपी को सबसे अधिक 26.47% वोट
ECI यानी इलेक्शन कमीशन ऑफ इण्डिया से मिले आंकड़ों के अनुसार जम्मू एंड कश्मीर में बीजेपी को सबसे अधिक 26.47 फीसदी वोट मिल रहे हैं, लेकिन अधिक वोट मिलने के बाद भी ये सीटों में कन्वर्ट नहीं हो पाए। बीजेपी सिर्फ 27 सीटों पर बढ़त बनाए हुए हैं।
वहीं JKN को बीजेपी से कम 22.95 फीसदी वोट मिल रहे हैं, लेकिन सीटों के मामले में वह बीजेपी से बहुत अधिक 43 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है।
ज्यादा वोट पाकर भी क्यों छूटते हैं पीसने
जब मतगणना होती है तो वो किसी भी एक सीट पर नहीं बल्कि सभी सीटों पर होती है। वोट शेयरिंग सभी सीटों पर मिले कुल वोट पर निकाला जाता है। कई बार ऐसा होता है कि कोई पार्टी कुछ सीटों पर बहुत अधिक मार्जिन से जीतती है, जिससे उसका वोट प्रतिशत तो बढ़ जाता है, लेकिन अधिकांश सीटों पर कांटें के मुकाबले में वह हार जाती है।
सरकार सीटों के गणित के हिसाब से बनती है, इसलिए ये मायने नहीं रखता कि कोई कितने अधिक अंतरों से जीता। 1 वोट से जितने वाला भी विधायक/सांसद बन जाता है। इसी ट्रेंड का मतलब है- ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बाद भी कम सीटों से संतुष्ट करना।
इसे आसानी से ऐसे समझें
मान लीजिए किसी स्टेट में कुल वोटों की संख्या 1 हजार है और 10 विधानसभा सीट है। हर सीट पर 100—100 वोटर है। पार्टी A को 8, 9, 7, 4, 4, 4, 3, 3, 4, 4 वोट मिले।
पार्टी B को इसी क्रम में 2, 1, 3, 6, 6, 6, 7, 7, 6 वोट मिले। यानी पार्टी A को भले ही उस राज्य की कुल सीटों पर सबसे अधिक 53 वोट मिले हो, लेकिन वह सिर्फ 3 सीटों पर ही जीती।
इसके ठीक उलट पार्टी B को कुल 47 वोट मिले, लेकिन उसने कम मार्जिन से सही लेकिन 7 सीटें जीती और इसलिए सरकार B पार्टी की बनेगी।
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‘फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट’ सिस्टम क्या होता है?
अब इतने चुनाव में अगर ये हो रहा है, तो ये कोई संयोग मात्र नहीं है। चुनावी भाषा में ऐसे ट्रेंड को ‘फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट’ कहा जाता है। इस चुनावी सिस्टम के तहत किसी भी प्रत्याशी को सिर्फ अपने दूसरे प्रतिद्वंदियों से ज्यादा मत हासिल करने होते हैं।
ऐसा होते ही वह सीट उसके नाम हो जाती है। इसी वजह से कई बार अगर किसी उम्मीदवार को अपने क्षेत्र के 15 प्रतिशत वोट भी क्यों ना मिलें, लेकिन वही जीतता भी है और उस सीट का प्रतिनिधित्व भी करता है।
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दूसरे देशों में क्या सिस्टम है?
ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि क्या भारत ‘फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट’ वाले ट्रेंड से बाहर निकल सकता है? तो इसका जवाब है हां, कई मौकों पर इस पर विचार भी हुआ है। इस समय कई देशों में Proportional Representation and Representative Democracy वाले सिस्टम को फॉलो किया जाता है।
आसान शब्दों में इसका मतलब सिर्फ इतना होता कि जिस पार्टी को जितना वोट शेयर मिलता है, उतनी ही सीटें उसे दी जाती हैं। जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका, इटली जैसे देशों में इस सिस्टम का इस्तेमाल हो रहा है।