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Rajendra Mathur: स्वस्थ पत्रकारिता के लिए Code of Conduct कितना जरूरी ?

Sanjeet Kumar by Sanjeet Kumar
April 9, 2024-11:46 AM
in विचार मंथन
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Rajendra Mathur: एम सदी के संपादक राजेंद्र माथुर की आज पुण्‍यतिथि है। राजेन्द्र माथुर ने अखबार में सम्पादक की गरिमा को स्थापित करने में और उसे अक्षुण्ण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

राजेन्द्र माथुर के लिए वे खबरें महत्वपूर्ण रही, जिनका सरोकार आम आदमी से होता रहता है। उन्‍होंने  जिस तरह की पत्रकारिता की थी, उसे इमर्जेन्सी में लोगों ने देखा।

राजेन्द्र माथुर (Rajendra Mathur) ने कभी भी अपने अखबार के ‘टीजी’ (टार्गेट आडियेंस) को संकीर्ण भाव से नहीं देखा। उनके मत में अखबार के पाठक समझदार और जिज्ञासु, बेबाक और बेखौफ, विचारवान और निर्णायक होते हैं। उन्‍होंने नईदुनिया, नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बने।

भारतीय पत्रकारिता में अनूठी छाप छोड़ने वाले राजेन्द्र माथुर ने मध्यप्रदेश के धार जिले के छोटे से कस्बे बदनावर से अपना सफर शुरू किया था। अंग्रेजी के प्रोफेसर और हिन्दी के संपादक के रूप में उन्होंने भारतीय पत्रकारिता की दिशा को मोड़ा।

उन्होंने ऐसे पत्रकारों को प्रशिक्षित किया, जिन्होंने सम्पूर्ण हिन्दी जगत की पत्रकारिता का नेतृत्व किया और अब भी कर रहे हैं। दूसरे प्रेस आयोग के सदस्य के रूप में उन्होंने पूरे प्रेस जगत की ही दिशा बदल दी।

उन्होंने युवा पत्रकारों को लेखन, संपादन और रिपोर्टिंग की नई-नई शैलियों से परिचित कराया। साथ ही प्रतिभावान पत्रकारों को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई।

साथ ही राजेन्द्र माथुर ने अंग्रेजी पत्रकारिता के उस साम्राज्य को ढहाने में बड़ी भूमिका निभाई है।

   राजेंद्र माथुर के व्‍याख्‍यान के प्रमुख अंश

Rajendra Mathur

भारत के महान संपादक राजेंद्र माथुर (Rajendra Mathur) की आज पुण्यतिथि है। उनकी पुण्‍यतिथि पर उनके प्रमुख व्‍याख्‍यान के अंश हम आपको पढ़ाते हैं।

यह व्‍याख्‍यान का हिस्‍सा नेशनल बुक ट्रस्‍ट की ओर से प्रकाशित सदी का संपादक-राजेंद्र माथुर किताब से लिया है, पढ़ें प्रमुख व्‍याख्‍यान-

   बोफोर्स कांड को किया उजागर

राजेंद्र माथुर (Rajendra Mathur) अपने व्‍याख्‍यान में कहते हैं कि पत्रकारों को प्रायः यह गलतफहमी या फिर सहीफहमी रहती होगी कि वे बहुत वे लड़ाकू हैं।

जुझारू हैं, देश में न्याय का पक्ष ले रहे हैं, इमरजेंसी को उन्होंने समाप्त किया है। बोफोर्स कांड को उन्होंने उजागर किया, सत्ता परिवर्तन में उनका योगदान रहा।

लेकिन मैं आपका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ कि यह भी छवि है और यह छवि बढ़ती जा रही है। जैसे-जैसे पत्रकारिता का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे पत्रकारों के बारे में ये धारणाएं भी बढ़ती जा रही हैं कि वे गैर-जिम्मेदार होते हैं।

भारत ही नहीं, विदेशों में भी, जैसे इंग्लैंड-अमेरिका में इस बात का उबाल आया हुआ है कि पत्रकार प्राइवेसी का कोई सम्मान नहीं करते।

   पत्रकार दस साल के बच्‍चे की तरह

Rajendra Mathur

राजेंद्र माथुर (Rajendra Mathur) कहते हैं कि आपने बहुत पहले एशियन पेंट का एक विज्ञापन देखा होगा। उसमें एक आठ-दस साल का लड़का, ब्रश और पेंट लेकर किसी भी वस्तु को काला कर देता है, किसी की मूंछ बना देता है, किसी की शक्ल बना देता है।

मुझे कई बार ऐसा लगता है कि पत्रकार जो है, वह भी एक आठ-दस साल का बच्चा है और अपने हाथ में एक पेंट और ब्रश लेकर चल रहा है। पेंट और ब्रश लेकर वह ऐसे बगीचे में पहुंच जाता है, जहां हजारों संगमरमर की मूर्तियां लगी हुई हैं।

वह एक नटखट बच्चा है और संगमरमर की मूर्ति के पास जाकर किसी की मूंछ बना देता है। किसी मूर्ति पर कालिख पोत देता है। किसी महिला को पुरुष बना देता है। किसी पुरुष को महिला बना देता है।

कहीं पैर में काला लगा दिया, कहीं हाथ में काला लगा दिया। ये सब करके संपादक और रिपोर्टर भूल जाते हैं, क्योंकि यह तो उनका पेशा है। अब ये पत्रकार मुझसे पूछ तो लेते कि तुम्हारी मूंछ थी या नहीं।

जिसकी मूंछ बना दी वह इसको साफ इनकार कर रहा है। अब खंडन छाप दें। तो लोग सबेरे आते हैं, शाम को जाते हैं और पत्रकारिता के बारे में विस्मय करते हैं कि कैसे छप गया। उसे लगता है कि बड़ा षड्यंत्र है।

कभी उसे लगता है कि उसके राजनीतिक शत्रुओं ने करवाया होगा। कभी उसे लगता है कि उसके मालिक ने करवाया होगा।कभी कोई स्पष्टीकरण देता है, कभी दूसरा स्पष्टीकरण देता है।

   बिना सहमति नहीं छपनी चाहिए

वे कहते हैं कि अखबार में पहला न्यायाधीश तो विवेकवान संपादक (Rajendra Mathur) ही होता है।

संपादक इस मामले में दो तरह से न्यायाधीश होता है- पहला समाचार पत्रों का गेट कीपर अर्थात खबर उसकी सहमति के बिना छपनी ही नहीं चाहिए, लेकिन मान लीजिए कि तंत्र बहुत बड़ा है और संपादक नहीं देख सका तो जूनियर गेट कीपर समाचार संपादक या सहायक समाचार संपादक या सह-संपादक का विवेक हावी होना ही चाहिए।

अगर पहले दिन नहीं तो दूसरे दिन ताकि उसका इलाज किया जा सके। इस मामले में संपादक एक अपराध का कर्ता भी है और अपराध का निवारणकर्ता भी है।

अपराधकर्ता इस मायने में है कि छप गया तो गुनाह तो उसी का है, लेकिन छप जाने के बाद गुनाह के बारे में क्या किया जाए और अगली बार उसे कैसे न होने दिया जाए- यह जिम्‍मेदारी संपादक की आ जाती है।

   लोकपाल की नियुक्ति अच्‍छा प्रयोग

Rajendra Mathur

वे कहते हैं कि आपको मालूम होगा कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अखबार ने अपने लिए एक लोकपाल की नियुक्ति साल-सवा साल से कर रखी है और जस्टिस भगवती यह काम दिल्ली में कर रहे हैं तो कुछ अखबार इस तरह का प्रयोग कर रहे हैं,  लोकपाल (Rajendra Mathur) की नियुक्ति का।

मेरे खयाल से अच्छा प्रयोग है। देखना चाहिए कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में यह कितना सफल होता है, ताकि दूसरे अखबार भी इसे अपना सकें। अगर लोकपाल से भी संतुष्ट न हों तो उसके बाद भी उपाय है ही।

आप प्रेस कौंसिल में शिकायत कर सकते हैं, जो ऐसे ही कामों के लिए बनी है। यह संस्था भारत सरकार ने इसलिए बनाई है कि यदि अखबारवाले ने अपने यहां लोकपाल की व्यवस्था नहीं की है तो लोग प्रेस कौंसिल में अपनी शिकायत कर सकें और न्याय पा सकें।

   पत्रकारिता की बने आचरण संहिता

वे कहते हैं कि एक आचरण संहिता पत्रकारिता (Rajendra Mathur) की भी बननी चाहिए। ‘कोड आफ कंडक्ट’ जिसको कहते हैं। भारत में पंद्रह-बीस साल से कहा जा रहा है कि आचार संहिता बननी चाहिए।

खासकर कांग्रेस राज के दिनों में ऐसा कहा गया और पत्रकारों ने उसका हमेशा विरोध किया। विरोध करने के कारण ऐतिहासिक हैं और मेरे हिसाब से बहुत सही भी है।

ऐतिहासिक कारण यह है कि जब इमरजेंसी आई थी तो पत्रकारिता को दबाने के लिए, स्वत: अखबारों को नियंत्रित करने के लिए इस आचार संहिता की चर्चा शुरू की गई।

इसलिए भारत के गणमान्य पत्रकार हमेशा आचार संहिता का विरोध करते रहे हैं। यह विरोध परिस्थितिगत है।

   पत्रकारिता के लिए कोई योग्‍यता नहीं

Rajendra Mathur

पत्रकारिता यदि पेशा है, प्रोफेशन है तो इस प्रोफेशन में किसी के लिए कौन-सी योग्यता है? कोई योग्यता नहीं है। आपको साक्षर होना भी आवश्यक नहीं है। संपादक (Rajendra Mathur) बनने के लिए यदि कोई निशान लगाने के अलावा कुछ भी नहीं जानता हो, हिंदी भी नहीं जानता हो, उर्दू जानता हो तो भी हिंदी अखबार का संपादक बन सकता है।

इसमें कोई पाबंदी नहीं है। उसे कुछ भी जानना आवश्यक नहीं है। अगर उसे कई मुकदमों में सजा मिल चुकी है तो भी वह अखबार निकाल सकता है।

कोई पाबंदी नहीं है। जब मैं दस साल पहले प्रेस कमीशन संस्था का सदस्य था तो जहां-जहां मैं जाता था, एक सवाल हमेशा पूछा जाता था कि भाई गैर जिम्मेदार पत्रकार, ब्लैकमेल करने वाले पत्रकार पैदा हो गए हैं।

इसको किसी तरह से रोकिए। निवेदन यह है कि इसका कोई संवैधानिक तरीका तो है नहीं, क्योंकि यदि आपने इसे रोकने के लिए संविधान को अनुच्छेद-19/1, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है।

उसको समाप्त कर देना होगा। अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता उन लोगों की होगी, जिनके पास कहने को कुछ है। जिनके पास कहने लायक कुछ नहीं है, उसके लिए अभिव्यक्ति की कोई सार्थकता नहीं होगी।

   इस अर्थ में पत्रकारिता नहीं रह जाती

ऐसा अनुच्छेद-19 में नहीं है। आर्टिकल-19 मतलब अभिव्यक्ति (Rajendra Mathur) की आजादी है। मन की आजादी है। सभी को आजादी है। मजदूर की भी आजादी है, राजनेता की भी है। सबकी आजादी है।

यदि सबकी है, तो आप किसी से अखबार (Rajendra Mathur) निकालने या अखबार में नौकरी करने का अधिकार कैसे छीन सकते हैं। इस अर्थ में पत्रकारिता प्रोफेशन रह नहीं जाती।

सब पत्रकार हो सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता से ही उम्मीद प्रोफेशन की होती है, लेकिन उस प्रोफेशन में प्रवेश के लिए कोई शर्त नहीं है तो इसमें भी क्वालिटी कंट्रोल करने जैसी चीज है, लेकिन कोई क्वालिटी कंट्रोल संविधान के अनुसार नहीं किया जा सकता।

   कोड ऑफ कंडक्‍ट स्‍वीकारना चाहिए

राजेंद्र माथुर (Rajendra Mathur) कहते हैं आचार संहिता के मुद्दे पर भारत के पत्रकार इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की स्मृति के कारण जरूरत से ज्यादा एलर्जिक हैं।

मेरी राय है कि कोई न कोई ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ पत्रकारों को स्वीकार कर लेना चाहिए। इंग्लैंड में अभी दो महीने पहले नवंबर महीने में कम से कम दस-पंद्रह बड़े संपादकों ने अपने अखबार के मुखपृष्ठ पर एक आचार संहिता छापी है और कहा है कि इसका पालन करेंगे।

न्यायालय की अवमानना या संसद के विशेषाधिकार जो कभी मॉडिफाइड ही नहीं होते, वे होने चाहिए। इन सब कानूनों में निश्चित ही परिवर्तन करना चाहिए, ताकि प्रेस की आजादी बढ़े।

   जनता का संगठित होना जरूरी

वे बहते हैं कि गैर जिम्‍मेदार पत्रकारिता के लिए जनता का आंदोलन (Rajendra Mathur) और संगठित होना भी स्वस्थ पत्रकारिता का लक्षण है। पत्रकारिता को सही राह पर लाने की वह चेष्टा है।

अखबार वाले प्रहार करने को आजाद हों- बुराई पर, भ्रष्टाचार पर, राजनीति पर, बोफोर्स पर, दूसरी तरफ, ऐसा भी हो कि अगर आपने किसी मिठाईवाले का गलत उल्लेख कर दिया तो उसमें भी इतनी तत्परता होनी चाहिए कि वह आप पर प्रहार कर सके।

(राजेंद्र माथुर के व्याख्यान का अंश)

Sanjeet Kumar

Sanjeet Kumar

वर्ष 2011 से पत्रकारिता जगत में सक्रिय हूं। सफर की शुरूआत एबीपी न्‍यूज, दबंग न्‍यूज समाचार पत्र से की और सामुदायिक रेडियो, दैनिक भास्कर और हरिभूमि अखबार में जिला ब्यूरो से लेकर एडिशन में खबरों के लेखन और संपादन की जिम्मेदारी संभाली। मौसम, खेल, राजनीति और क्राइम की रिपोर्टिंग में रुचि है। पत्रकारिता के सफर में हमेशा कुछ न कुछ नया सीखने का प्रयास करता रहता हूं।

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