Ram Navami 2025: भगवान विष्णु के राम अवतार की कथा केवल एक धार्मिक प्रसंग नहीं, बल्कि श्राप और वरदानों से जुड़ी एक रहस्यमयी गाथा है, जिसे विभिन्न पुराणों और ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत किया गया है। श्रीमद्भागवत, वाल्मीकि रामायण, हरिवंश पुराण और रामचरितमानस के अनुसार, राम अवतार के पीछे मुख्य रूप से दो श्राप और दो वरदानों की अहम भूमिका रही।
पहला श्राप: जय-विजय को सनकादिक ऋषियों का श्राप
श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार, सृष्टि के प्रारंभिक काल में ब्रह्मा जी ने विविध लोकों की रचना के लिए घोर तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने चार बाल ब्रह्मचारियों—सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार—के रूप में अवतार लिया, जिन्हें सनकादिक ऋषि कहा जाता है। इन्हें विष्णु के प्रारंभिक अवतारों में गिना जाता है।
वैकुंठ लोक में भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय सेवा में नियुक्त थे। एक दिन जब सनकादिक मुनि भगवान के दर्शन हेतु वैकुंठ पहुँचे, तब जय और विजय ने उन्हें द्वार पर रोक दिया और उनका उपहास किया। इस व्यवहार से क्षुब्ध होकर ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया कि वे तीन जन्मों तक राक्षस रूप में जन्म लेंगे।
जब जय-विजय ने क्षमा याचना की, तो ऋषियों ने शर्त रखी कि इन तीन जन्मों में उनका अंत स्वयं भगवान विष्णु के हाथों होगा और इसके बाद उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा।
पहले जन्म में उन्होंने असुर रूप में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में जन्म लिया। भगवान विष्णु ने वराह रूप में हिरण्याक्ष और नृसिंह रूप में हिरण्यकशिपु का वध किया।
दूसरे जन्म में वे रावण और कुंभकर्ण बने, जिनका अंत करने के लिए भगवान को राम अवतार लेना पड़ा।
तीसरे जन्म में वे शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्मे, जिनका वध भगवान श्रीकृष्ण ने किया।
इस प्रकार, सनकादिक ऋषियों द्वारा दिया गया यह श्राप राम अवतार की एक प्रमुख भूमिका बना।
दूसरा श्राप: नारद मुनि का विष्णु को श्राप
रामचरितमानस के बालकांड में वर्णित एक रोचक कथा के अनुसार, एक बार नारद मुनि हिमालय में तपस्या कर रहे थे। उनकी कठोर साधना को देखकर देवराज इंद्र को शंका हुई कि कहीं नारद उनकी गद्दी पर नजर न गड़ा लें। अपनी रक्षा हेतु इंद्र ने कामदेव को आदेश दिया कि वह नारद की तपस्या भंग कर दे।
कामदेव ने नारद की साधना स्थल पर पहुंच कर उन पर कामबाण चलाए, जिससे नारद की तपस्या भंग हो गई। नारद ने नेत्र खोलकर कामदेव की ओर देखा। उन्हें लगा कि नारद अब उन्हें भगवान शिव की तरह भस्म कर देंगे, लेकिन नारद ने ऐसा नहीं किया। कामदेव ने अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी और बताया कि उन्होंने इंद्र के आदेश का पालन मात्र किया है। नारद ने उन्हें क्षमा कर दिया।
कामदेव ने प्रशंसा करते हुए कहा कि आपने क्रोध को जीत लिया, आप तो भगवान शिव से भी श्रेष्ठ तपस्वी सिद्ध हुए। इस प्रशंसा से नारद के भीतर अहंकार उत्पन्न हो गया। वे सबसे पहले भगवान शिव से मिलने गए और अपनी उपलब्धि बताई। भगवान शिव ने उन्हें चेतावनी दी कि इस बात को भगवान विष्णु से न कहें, किंतु नारद ने उनकी बात को अनसुना कर बैकुंठ पहुंच गए।
वहां जाकर उन्होंने भगवान विष्णु को भी यह कथा सुनाई। विष्णु समझ गए कि नारद को घमंड हो गया है, और इस अहंकार को समाप्त करना आवश्यक है। उन्होंने अपनी माया से एक सुंदर नगर रचा, जहां शीलनिधि नामक राजा की पुत्री विश्वमोहिनी का स्वयंवर आयोजित किया गया।
नारद जब उस नगर में पहुंचे तो विश्वमोहिनी को देखकर उनके मन में विवाह की इच्छा जागी। उन्होंने भगवान विष्णु से अनुरोध किया कि वे उन्हें अपना स्वरूप दे दें ताकि राजकुमारी उन्हें वर रूप में चुन लें। भगवान विष्णु ने उनके मुख को वानर जैसा बना दिया और स्वयं स्वयंवर में पहुंचे, जहां विश्वमोहिनी ने विष्णु को ही वर चुन लिया।
जब नारद को सबके सामने उपहास का पात्र बनना पड़ा, तो उन्होंने विष्णु को श्राप दे दिया कि तुमने मुझे स्त्री वियोग का दुख दिया है, इसलिए तुम्हें भी स्त्री वियोग झेलना पड़ेगा। तुम मनुष्य रूप में जन्म लोगे और 14 वर्षों तक वन में भटकते हुए पत्नी वियोग सहन करोगे। जिस बंदर का मुख तुमने मुझे दिया, वही बंदर तुम्हारी पत्नी को ढूंढने में मदद करेंगे।
भगवान विष्णु ने नारद का श्राप सहर्ष स्वीकार किया। इस प्रकार नारद का दिया गया यह श्राप भी रामावतार के पीछे का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
पहला वरदान: मनु और शतरूपा की तपस्या
श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित कथा के अनुसार, सतयुग में मनु और शतरूपा, जो ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे, उन्होंने संतान प्राप्ति की इच्छा से भगवान विष्णु की घोर तपस्या की। वर्षों तक चली इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हुए और उनसे वर मांगने को कहा।
मनु और शतरूपा ने भगवान से प्रार्थना की कि उन्हें उनके समान ही संतान प्राप्त हो। इस पर भगवान विष्णु ने उत्तर दिया कि उनके जैसा तो स्वयं वे ही हैं, अतः वे स्वयं उनके पुत्र के रूप में अवतरित होंगे।
भगवान ने भविष्यवाणी की कि त्रेतायुग में मनु और शतरूपा क्रमशः राजा दशरथ और रानी कौशल्या के रूप में जन्म लेंगे और वे स्वयं राम के रूप में उनके पुत्र बनकर अवतरित होंगे।
इस प्रकार, मनु और शतरूपा की तपस्या और उन्हें प्राप्त यह दिव्य वरदान भगवान राम के अवतरण का एक प्रमुख कारण बना।
दूसरा वरदान: रावण को ब्रह्मा का वरदान
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, रावण ने अपार शक्ति और अमरता की चाह में कठोर तपस्या करते हुए भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न किया। उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा प्रकट हुए और उसे वरदान मांगने को कहा। रावण ने ब्रह्माजी से अमर होने का वर मांगा, लेकिन ब्रह्मा ने स्पष्ट किया कि इस सृष्टि में जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित होती है। हालांकि, उन्होंने रावण को यह अनुमति दी कि वह अपनी मृत्यु की शर्तें स्वयं निर्धारित कर सकता है।
इस अवसर का लाभ उठाते हुए रावण ने वरदान मांगा कि उसे कोई देवता, दानव, नाग, किन्नर, गंधर्व, यक्ष, गण या कोई देवी न मार सके। साथ ही, कोई हिंसक पशु भी उसका अंत न कर सके। ब्रह्मा ने यह वरदान उसे दे दिया। अहंकारवश रावण ने यह मान लिया कि मनुष्य और वानर जैसे साधारण प्राणी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसलिए उसने उन्हें अपने वरदान में शामिल नहीं किया। रावण की इसी चूक के कारण भगवान विष्णु को मनुष्य रूप में श्रीराम के रूप में अवतार लेना पड़ा, ताकि वे एक सामान्य मानव के रूप में रावण का संहार कर सकें। इस प्रकार, रावण को मिला यह विशेष वरदान भी रामावतार का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
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