रायपुर: हम जिस परिवेश में रहते हैं, वहां रहकर मोह माया त्यागना सबके लिए संभव नहीं है। खासकर उन लोगों के लिए जो अकूल संपत्ति के मालिक होते हैं। हालांकि, हमने समय-समय पर कई लोगों को इन संपत्तियों को दान कर मोह माया त्यागते देखा है। ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ से सामने आया, जहां राजनंदगांव में एक परिवार ने अपनी पूरी संपत्ति दान कर दी और सांसारिक मोह माया को छोड़कर आध्यात्म की दुनिया से जुड़ गए।
आध्यात्म से बेहतर कुछ नहीं
परिवार के लोगों का मानना है कि आध्यात्म से बेहतर कुछ भी नहीं है। छत्तीसगढ़ में दवा का कारोबार करने वाले डाकलिया परिवार ने जैन धर्म के संस्कारों के तहत दीक्षा ली है और उन्होंने लगभग 30 करोड़ की संपत्ति दान कर दी। जैन धर्मावलंबियों ने परिवार के मुखिया मुमुक्षु भूपेंद्र डाकलिया समेत पांच लोगों को दीक्षा दिलाई। परिवार के सदस्यों ने करोड़ों की प्रॉपर्टी में जमीन, दुकान से लेकर अन्य संपत्तियों को दान कर दिया।
ऐसे आया संन्यास लेने का ख्याल
भूपेंद्र डाकलिया ने बताया कि साल 2011 में वे रायपुर में स्थित कैवल्यधाम आए थे। यहीं उनके मन में संन्यास लेने का ख्याल आया। करीब 11 साल बाद 9 नवंबर 2021 को उनके परिवार ने भी आरामयुक्त जीवन छोड़कर दीक्षा लेने का निर्णय लिया। डाकलिया परिवार में भूपेंद्र डाकलिया, उनकी पत्नी और दो बेटे और दो बेटियां हैं। अब सभी ने सांसारिक मोहमाया को त्याग दिया है।
अब धर्म की अलख जगाएंगे
परिवार के सभी लोगों ने श्री जिन पीयूषसागर सूरीश्वर की मौजूदगी में दीक्षा ग्रहण की। परिवार के 6 सदस्यों के अलावा राजननंदगांव के जैन बगीचे में दो और लोगों ने जैन-साधु-साध्वी की दीक्षा ग्रहण की। अब ये सभी लोग साधू-साध्वी के रूप में धर्म की अलख जगाएंगे। आइए जानते हैं कि ‘जैन समुदाय’ में दीक्षा का महत्व।
इस समुदाय के ज्यादातर लोग धनी होते हैं
मालूम हो कि भारत समेत पूरी दुनिया में जैन समुदाय अल्पसंख्यकों में गिना जाता है। लेकिन फिर भी इस समुदाय में ज्यादातर लोग व्यापारी और धनी व्यक्ति होते हैं। जैन धर्म को बेल्जियम में सबसे अमीर कम्युनिटी में माना जाता है। इतना ही नहीं, दुनिया भर के लगभग 60 प्रतिशत हीरे का बिजनेस जैन धर्म के लोग ही चलाते हैं। साथ ही भारत में सबसे ज्यादा एजुकेटेड समुदाय भी जैन समाज ही है। इतने शिक्षित और धनी होने के बावजूद इस समुदाय के लोग संन्यासी बन जाते हैं। क्योंकि ‘जैन’ वे होते हैं
जो ‘जिन’ के अनुयायी होते हैं।
क्या है जैन समाज का अर्थ
जिन शब्द बना है ‘जि’ धातु से ‘जि’ यानी जीतना, ‘जिन’ अथार्त जीतने वाला। इसका पूरा अर्थ है जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को भी जीत लिया हो। वस्त्र-हीन तन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहचान मानी जाती है। यह धर्म 5 सिंद्दांतों के आधार पर चलता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। जैन धर्म का मूल भावना है किसी का बुरा न सोचें और न करें। इस धर्म में एक चीज है जो सबसे अलग है। वह है दीक्षा का महत्व। वैसे तो सनातन धर्म में भी संन्यास को महत्वपूर्ण माना गया है। लेकिन जैन धर्म में दीक्षा का तरीका और उसका पालन काफी कठिन है।
दीक्षा समारोह को शादी की तरह निभाया जाता है
सनातन धर्म की तरह यहां चुपचाप दीक्षा नहीं ली जाती, बल्कि पूरा समाज, रिश्तेदार और वरिष्टजनों के साथ मिलकर एक समारोह आयोजित किया जाता है। इस दीक्षा समारोह में लड़के साधु और लड़कियां साध्वी बनती हैं। यह समारोह ठीक वैसा ही होता है, जैसे कोई शादी का आयोजन। दीक्षा लड़के लें चाहें लड़कियां वे सांसारिक जीवन और मोह त्यागने के पहले हंसी खुशी से विदा होती हैं। लड़कियों को हल्दी लगती है, मेंहदी लगाई जाती है। मंडप सजता है जहां लड़कियां सज-धज कर दुल्हन की तरह तैयार होती हैं और लड़के भी आखिरी बार सबसे ज्यादा अच्छे वस्त्र धारण करते हैं। फिर घर से समारोह स्थल तक गाजे-बाजे के साथ बारात निकालती हैं। परिवार के लोग बेटी या बेटे को आखिरी विदाई देते हैं।
सबसे कठिन होता है केश लुंचन करना
समारोह स्थल पर मंत्रोचार के बीच दीक्षा आसन पर बैठा व्यक्ति एक-एक कर अपने साजो-श्रंगार को उतार देता है। पुरूष वस्त्र त्याग देते हैं, जबकि स्त्रियां हाथ की बुनी हुई सफेद सूती साड़ी लपेड लेते हैं और फिर परिवार की तरफ मुड़कर नहीं देखा जाता। दीक्षा का सबसे कठिन और अहम पड़ाव है ‘केश लुंचन’। जिसमें बिना किसी कैंची या रेजर की मदद से स्वयं अपने सिर के बालों को नोंच कर अलग किया जाता है। यह प्रक्रिया सबसे पीड़ादायक होती है। कई बार तो सिर में जख्म हो जाते हैं पर बाल निकालने का क्रम जारी रहता है। दीक्षा के बाद सभी मुनि और साध्वी साल में दो बार केश लुंचन करती हैं। पुरूष अपनी दाढ़ी-मूंढ़ों के बाल भी इसी प्रकार त्यागते हैं। केश लुंचन से पहले साधु-साध्वी शरीर को राख से रगड़ते हैं, फिर गुच्छों में शरीर के बालों को लोचन करते हैं।
दीक्षा के बाद असल चुनौतियों का सामना होता है
दीक्षा ग्रहण करने के बाद जीवन की असल चुनौतियों से सामना होता है। सूर्यास्त के बाद जैन साधु और साध्वियां पानी की एक बूंद और अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करते । इसी तरह सूर्योदय होने के 48 मिनट बाद ये लोग पानी पीते हैं। वे अपने लिए कभी भोजन भी नहीं पकाते हैं। ना ही उनके लिए आश्रम में कोई भोजन बनाता है। ये सभी अपने लिए भीक्षा मांगकर भोजन का इंतजाम करते हैं। भीक्षा का भी एक अलग नियम है। इस प्रथा को ‘गोचरी’ कहा जाता है। जैन मुनियों को एक घर से बहुत सारा भोजन लेने की अनुमति नहीं होती है। वे स्वाद के लिए भोजन नहीं करते हैं, बल्कि धर्म साधना के लिए भोजन करते हैं।
ऐसे करते हैं भोजन ग्रहण
जैन साधु जब आहार (भोजन) के लिए निकलते हैं, तो पडग़ाहन में श्रद्धालुओं द्वारा शब्दों का उच्चारण किया जाता है। भोजन दान देने से पहले श्रद्धालु मुनि को नारियल, कलश, लौंग के दर्शन कराते हैं। इसके बाद भोजन दान देते हैं। यदि यह चीजें नहीं हैं तो मुनि बिना भीक्षा के ही चले जाते हैं। साधु एक ही स्थान पर खड़े होकर दोनों हाथों को मिलाकर अंजुली बनाते हैं, उसी में भोजन करते हैं। यदि अंजुली में भोजन के साथ चींटी, बाल, कोई अपवित्र पदार्थ या अन्य कोई जीव आ जाए तो उसी समय भोजन लेना बंद कर देते हैं। अपने हाथ छोड़ देते हैं उसके बाद पानी भी नहीं पीते है।
मीलों का सफर पैदल पूरा करते हैं
जैन मुनि किसी भी प्रकार की गाड़ी या यात्रा के साधन का प्रयोग नहीं करते हैं। वे मीलों का सफर भी पैदल ही पूरा करते हैं। यह यात्रा बिना जूते और चप्पल के होती है। इसके साथ ही किसी भी एक स्थान पर उन्हें अधिक दिनों तक रुकने की अनुमति नहीं होती। हालांकि बारिश के 4 माह मुनि और साध्वी कहीं यात्रा नहीं करते। इसके पीछे तर्क यह है कि इस दौरान कई बारीक जीव जंतु पैरों में आ सकते हैं और इससे जीव हत्या का पाप लगता है।