रविन्द्रनाथ टैगोर यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित विश्वरंग के तत्वधान में प्रसिद्ध निर्देशक और अभिनेता यशपात्र शर्मा की फिल्म ‘दादा लखमी’ की स्क्रीनिंग राजधानी भोपाल के कैपिटल मॉल स्थित आईनॉक्स में की गई| इस दौरान प्रख्यात कलाकार यशपाल शर्मा भी मौजूद रहे। पंडित लखमी चंद हरियाणा के जाने माने कवि व लोक कलाकार थे। पंडित लखमीचंद के नाम पर साहित्य के में कई परस्कार दिए जाते हैं। यशपाल शर्मा की फिल्म दादा लख्मी की फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
फिल्म स्क्रीन के दौरान निदेशक और वरिष्ठ संस्कृति कर्मी संतोष कमार चोबे, विश्वरंग की सह निदेशक अदिति चतुर्वेदी वत्स मौजूद रही। इस दौरान अभिनेता यशपाल शर्मा ने फिल्म को लेकर अपने अनुभवों को साझा किया। अभिनेता यशपाल शर्मा ने कहा की हर कलाकार का दायित्व होता है कि वह अपनी मातृभूमि के कुछ बेहतर करें। हमारे देश के पुराने कलाकारों को आज की युवा पीढ़ी भूल रही है। इसी कड़ी में ऐसे कलाकारों को पर्दे पर लाने का यह मेरा प्रयास है।
फिल्म ‘दादा लखमी’ की कहानी
सात-आठ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी मधुर व सुरीली आवाज से लोगों का मन मोह लिया। ग्रामीण पंडित मान सिंह ने उनके पिता पंडित उदमी राम से इस बारे में बात की और उनकी सहमति के बाद उन्होंने बालक लखमी चन्द को अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया। इसके बाद बालक लखमी चन्द अपने गुरु से ज्ञान लेने में तल्लीन हो गए और असीम लगन व कठिन परिश्रम से वे निखरते चले गए।
कुछ ही समय में लोग उनकी गायन प्रतिभा और सुरीली आवाज के कायल हो गए। अब उनकी रूचि ‘साँग’ सीखने की हो गई। ‘साँग’ की कला सीखने के लिए लखमी चन्द कुण्डल निवासी सोहन लाल के बेड़े में शामिल हो गए। अडिग लगन व मेहनत के बल पर पाँच साल में ही उन्होंने ‘साँग’ की बारीकियाँ सीख लीं। उनके अभिनय एवं नाच का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। उनके अंग-अंग का मटकना, मनोहारी अदाएं, हाथों की मुद्राएं, कमर की लचक और गजब की फूर्ती का जादू हर किसी को मदहोश कर डालता था।
उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बड़े-बड़े धुरन्धर कलाकार उनके बेड़े में शामिल होने लगे और पंडित लखमी चन्द देखते ही देखते ‘साँग-सम्राट’ के रूप में विख्यात होते चले गए। ‘साँग’ के दौरान साज-आवाज-अन्दाज आदि किसी भी मामले में किसी तरह की ढील अथवा लापरवाही उन्हें बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी। उन्होंने अपने बेड़े में एक से बढ़कर एक कलाकार रखे और ‘साँग’ कला को नई ऐतिहासिक बुलन्दियों पर पहुंचाया। फिर कुछ परिस्थतियों की वजह से वे गुमनामी के अंधेरों में चले गए। और लंबी बीमारी के उपरान्त 17 जुलाई, 1945 की सुबह उनका देहान्त हो गया।