Maharana Pratap: जिनके पराक्रम का लोहा अकबर ने भी माना, जानिए उनकी वीरता की कहानी

Maharana Pratap: जिनके पराक्रम का लोहा अकबर ने भी माना, जानिए उनकी वीरता की कहानी

maharana Pratap

नई दिल्ली। भारतीय इतिहास में कई योद्धाओं ने जन्म लिया जिन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता है। उन्हीं में से एक हैं ‘महाराणा प्रताप’ (Maharana Pratap) जिनके पराक्रम का लोहा अकबर ने भी माना था और आज भी उनके शौर्य की मिसाल पूरी दुनिया में दी जाती है। महाराणा प्रताप की आज पुण्यतिथि है। ऐसे में आज हम आपको उनके बारे में कुछ रोचक बातें बताएंगे।

सिसोदिया कुल में हुआ था जन्म

महाराणा प्रताप मेवाड़ के शासक थे। उनका जन्म सिसोदिया कुल में 9 मई 1540 को राजस्थान के कुम्भलगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह द्वितीय और माता का नाम रानी जीवंत कंवर था। महाराणा प्रताप अपने 25 भाइयों में सबसे बड़े थे। यही कारण है कि उन्हें मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया गया था। वे सिसोदिया राजवंश के 54वें शासक थे।

मुगलों ने चित्तौड़गढ़ पर कब्जा कर लिया

कम उम्र में ही ढ़ाल तलवार चलाने में महाराणा प्रताप निपुण हो गए थे। 27 वर्ष की उम्र में उन्हें मेवाड का उत्तराधिकारी बना दिया गया। तभी मुगल सेनाओं ने चित्तौड़गढ़ को चारों तरफ से घेर लिया। उनके पिता महाराणा उदय सिंह मुगलों से भिड़ने की बजाय चित्तौड़गढ़ छोड़कर परिवार समेत गोगुन्दा चले गए। हालांकि, महाराणा प्रताप चित्तौड़गढ़ जाकर मुगलों से सामना करना चाहते थे। लेकिन उनके परिवार ने चित्तौड़गढ़ जाने से मना कर दिया।

महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह ने गोगुन्दा में रहकर ही अपने विश्वासपात्रों की मदद से मेवाड़ में अस्थायी सरकार बना ली। बता दें कि उदय सिंह की कई पत्नियां थी। लेकिन उनकी सबसे प्रिय पत्नी रानी भटियानी थी। महाराणा उदय सिंह ने अपनी पत्नी रानी भटियानी के प्रभाव में आकर अपने अंतिम समय में उनके पुत्र जगमाल को राजगद्दी पर बैठाने का मन बना लिया। हालांकि, वे घोषणा कर पाते उससे पहले ही 1572 में वे मृत्यु को प्राप्त हो गए।

जगमाल को राजगद्दी छोड़ना पड़ा

महाराणा प्रताप अपने पिता की अंतिम इच्छा के अनुसार सौतेले भाई जगमाल को राजा बनाने का निश्चय किया। लेकिन मेवाड़ के विश्वासपात्र ‘चुंडावत राजपूत’ जगमाल को राजगद्दी पर बैठाना नहीं चाहते थे। उन्होंने जगमाल को राजगद्दी छोड़ने को बाध्य कर दिया। जगमाल सिंहासन छोड़ने को इच्छुक नहीं था ऐसे में बदला लेने के लिए वो अजमेर जाकर अकबर की सेना में शामिल हो गया। इधर महाराना प्रताप को मेवाड़ का शासक बना दिया गया।

अकबर पूरे मेवाड़ पर कब्जा करना चाहता था

शासक बनते ही महाराणा प्रताप चित्तौड़गढ़ पर कब्जा करना चाहते थे। लेकिन अकबर चाहता था कि वो अब चित्तौड़गढ़ के बाद पूरे मेवाड़ पर कब्जा करे। उसने कई बार महाराणा प्रताप को संधि पर हस्ताक्षर करने को कहा, लेकिन हर बार महाराणा प्रताप ने मना कर दिया। 1573 में संधि प्रस्तावों को ठुकराने के बाद अकबर ने मेवाड़ का बाहरी राज्यों से संपर्क तोड़ दिया और मेवाड़ के सहयोगी दलों को अलग थलग कर दिया।

महाराणा प्रताप ने युद्द की घोषणा की

अब बारी महाराणा प्रताप की थी, उन्होंने अपनी सेना को मुगलों से सामना करने के लिए सचेत कर दिया। यानी युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी। प्रताप ने अपनी सेना को अरावली की पहाड़ियों में जाने को कहा। क्योंकि महाराणा प्रताप इस युद्ध को अरावली की पहाड़ियों में ही लड़ना चाहते थे। इस इलाके से मेवाड़ की सेना पहले से अवगत थी। वहीं मुगल की सेना को कोई अनुमान नहीं था। अरावली पहाड़ियों पर रहने वाले भील भी राणा प्रताप की सेना के साथ हो गए। खुद महाराणा प्रताप भी अपनी सेना के साथ ही रहे।

हल्दीघाटी का युद्ध शुरू हुआ

शांति प्रयत्नों की विफलता के बाद 18 जून 1576 को महाराण प्रताप के 20000 और मुगल सेना के 80000 सैनिकों के बीच हल्दीघाटी का युद्ध शुरू हो गया। उस समय मुगल सेना की कमान अकबर के सेनापति मान सिंह ने संभाली थी। महाराणा प्रताप की सेना मुगलों की सेना को खदेड़ रही थी। महाराणा प्रताप की सेना में झालामान, डोडिया भील, रामदास राठोड़ और हाकिम खां सूर जैसे शूरवीर थे।

महाराणा प्रताप घिर गए

वहीं मुगल सेना के पास कई तोंपे और विशाल सेना थी। जबकि प्रताप की सेना के पास केवल हिम्मत और साहसी जांबाजों की सेना के अलावा कुछ भी नहीं था। मेवाड़ की सेना मुगलों की सेना पर भारी पड़ रही थी। लेकिन तभी महाराणा प्रताप को मुगल सैनिकों ने घेर लिया। कहा जाता है कि महाराणा प्रताप 200 किलो का वजन साथ लेकर युद्ध करते थे। जिसमें 80 किलो का भाला, 72 किलो का कवच, ढाल और तलवारों को मिलाकर कुल वजन 200 किलों का होता था।

जननायक के रूप में प्रसिद्ध हुए

कई मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला। वहीं कई रिपोर्ट महाराणा प्रताप के पराजय का दावा करते हैं। परिणाम जो भी हो, लेकिन जिस तरह से महाराणा प्रताप ने अकबर को ललकारा था, उसने महाराणा प्रताप को जननायक के रूप में संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध कर दिया। 1577 में एक बार फिर अकबर ने पूरे मेवाड़ प्रांत पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए चढ़ाई की, लेकिन वह महाराणा प्रताप को पकड़ने में सफल नहीं हो सका।

महाराणा प्रताप को नहीं पकड़ा जा सका

महाराणा प्रताप ने अपने मंत्री भामाशाह और उनके भाई ताराचंद की मदद से एक बार फिर से सेना को जुटाया और धीरे-धीरे करके मेवाड़ के बचे हुए बाकि भाग पर भी कब्जा कर लिया। जैसे ही अकबर को यह पता चला वह तिलमिला उठा। उसने शाहबाज खां को हुक्म देते हुए कहा कि महाराणा प्रताप को कुचल कर आओ। अगर बिना दमन किए वापिस लौटे, तो तुम्हारे सिर कलम कर दिए जाएंगे। कठोर आदेश के बावजूद शाहबाज खां महाराणा प्रताप को नहीं पकड़ सका।

मेवाड़ में एक नए युग का सुत्रपात हुआ

इसके बाद अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को मेवाड़ विजय का अभियान सौंपा। लेकिन वो भी असफल रहा। अकबर ने महाराणा प्रताप को खत्म करने के लिए कई सेनापतियों को समय-समय पर मेवाड भेजा, किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। अकबर के आक्रमक अभियानों की समाप्ति के बाद मेवाड़ में नए युग का सुत्रपात हुआ। महाराणा प्रताप ने चितौड़गढ़ और जहाजपुर को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर कब्जा कर लिया। उन्होंने चांवड को अपनी राजधानी बनाया और संपूर्ण राज्य में शांति व्यवस्था कायम की, उद्योग-व्यवसायों को फिर से बढ़ावा दिया और खेत खिलहान फिर से लहलहाने लगे। उजड़े नगर-कस्बे फिर से आबाद हुए और मेवाड़ फिर से चमन बन गया।

56 साल की उम्र में दुनिया को कहा अलविदा

जनवरी 1597 में एक शिकार के दौरान वे बुरी तरह से घायल हो गए और उनकी 56 वर्ष की आयु में मौत हो गई। कहा जाता है कि महाराणा प्रताप की मौत पर अकबर खूब रोया था, उसे मलाल था कि एक बहादुर वीर इस दुनिया से अलविदा हो गया।

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