Kajari Teej 2023: नई फसल के आगमन और अच्छी बारिश के लिए खास माना जाने वाला व्रत कजरी तीज इस बार 2 सितंबर को मनाया जाएगा। पंडित रामगोविंद शास्त्री के अनुसार रक्षाबंधन के दूसरे दिन कजरी तीज मनाई जाती है। इस बार तृतीया तिथि 2 सितंबर को उदया तिथि में आएगी। इसलिए कजरी तीज का त्योहार 2 सिंतबर को मनाया जाएगा। आइए जानते हैं इसकी पूजा विधि, कथा और मान्यताएं।
कजरी तीज 2023 कब है
हिंदू पंचांग 2023 के अनुसार भाद्रपद (हिंदी माह) के समय में कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को कजरी तीज मनाई जाएगी। इस बार ये त्योहार 2 सितंबर शनिवार को मनाया जाएगा। पंडित रामगोविंद शास्त्री के अनुसार शुक्रवार की रात 2:50 तक द्वितीया तिथि रहेगी। इसके बाद तृतीया तिथि लगेगी। चूंकि सूर्योदय तृतीया तिथि में होगा। इसलिए कजरी तीज शनिवान यानि 2 सितंबर को मनाई जाएगी। तृतीया तिथि शनिवार को 12:45 तक रहेगी। इसके बाद चतुर्थी तिथि लग जाएगी। यानि रविवार को गणेश चतुर्थी का व्रत मनाया जाएगा।
कैसे बनती हैं कजरी
कजरी तीज (Kajari Teej 2023) के त्योहार में जल में गेहूं के पौधों का विसर्जन किया जाता है। लेकिन इसके पहले कजरी को बोया जाता है। इसकी शुरूआत सावन के महीने की अष्टमी और नवमीं से हो जाती है। इसके लिए घरों में छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौं के दाने बोए जाते हैं।
प्रतिदिन पानी से सीचते हुए एक सप्ताह में ये बड़े हो जाते हैं। सावन के महीने में इन भुजरियों को झूला देने की भी परंपरा है। एक सप्ताह में इसमें अन्न उग आता है, इसे ही भुजरियां कहा जाता है।
भुजरिया की होती है पूजा, देते हैं शुभकामनाएं
आपको बता दें इन भुजरियों की पूजा कजरी तीज (Kajari Teej 2023) पर की जाती है। साथ ही अच्छी बारिश और फसल के लिए कामना की जाती है। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। रक्षाबंधन के दूसरे दिन इन्हें एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं एवं आशीर्वाद देते हैं। बुजुर्गों के मुताबिक ये भुजरिया नई फसल का प्रतीक है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं इन टोकरियों को सिर पर रखकर जल स्त्रोतों में विसर्जन के लिए ले जाती हैं।
कजरी तीज पूजा विधि
नीम की देवी को आम तौर पर नीमड़ी माँ के रूप में जाना जाता है। नीमडी मां का संबंध कजरी तीज के पवित्र त्योहार से जुड़ी है। इस दिन देवी नीमड़ी की पूजा की जाती है। इसी के तहत एक पूजा से पहले एक अनुष्ठान किया जाता है जिसमें दीवार तालाब जैसी फोटो बनाई जाती है। इसे सजाने के लिए गुड़ और शुद्ध घी का उपयोग किया जाता है। इसी के साथ इसमें पास में नीम की एक टहनी लगाई जाती है। इन पानी और कच्चा दूध चढ़ाकर दीपक जलाया जाता है।
कजरी तीज पूजा की थाली
पूजा थाली में पूरे चावल, पवित्र धागा, सिंदूर, सत्तू, फल, ककड़ी और नींबू जैसी कई चीजों से सजाया जाता है। एक बर्तन में कच्चा दूध रखा जाता है और शाम के समय, भक्त नीचे दिए गए अनुष्ठानों के अनुसार देवी नीमड़ी की पूजा करते हैं।
इन चरणों का पालन करें
देवी को चावल, सिंदूर और पानी का छिड़काव किया जाता है।
मेंहदी और सिंदूर की मदद से अनामिका का उपयोग करके 13 बिंदु बनाए जाते हैं।
फिर, देवी को पवित्र धागा चढ़ाकर कपड़े और मेंहदी अर्पित की जाती हैं
फिर दीवार पर अंकित बिंदुओं का उपयोग करके पवित्र धागे से सजाया जाता है।
इसके बाद देवी को फल चढ़ाए जाते हैं। पूजा कलश पर, भक्त कलश के चारों ओर पवित्र धागा बांधते हैं और उस पर सिंदूर से तिलक लगाते हैं।
तालाब के किनारे रखे दीये की रोशनी में महिलाओं को दीया की रोशनी में नीम की टहनी, खीरा और नींबू देखने की जरूरत होती है। इसके बाद चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है।
भुजरिया की कथा
इसकी कथा आल्हा की बहन चंदा से जुड़ी है। इसका प्रचलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह से ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था। महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से परिपूर्ण गाथाएं बुंदेलखंड की धरती पर बड़े चाव से सुनी व समझी जाती है। बताया जाता है कि महोबे के राजा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पै चढ़ाई कर दी थी।
राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी – सहेलियन के साथ गई थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज हाथ न लगाने पाए इसके लिए राज्य के बीर-बांकुर (महोबा) के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरतापूर्ण पराक्रम दिखलाया था। इन दो वीरों के साथ में चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई से जा पहुंचे। कीरत सागर ताल के पास में होने वाली ये लड़ाई में अभई वीरगति को प्यारा हुआ, राजा परमाल को एक बेटा रंजीत शहीद हुआ।
बाद में आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा, जैसें वीर ने पृथ्वीराज की सेना को वहां से हरा के भगा दिया। महोबे की जीत के बाद से राजकुमारी चन्द्रवलि और सभी लोगों अपनी-अपनी कजिलयन को खोंटने लगी। इस घटना के बाद सें महोबे के साथ पूरे बुन्देलखण्ड में कजलियां का त्यौहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है।
कजलियों (भुजरियां) पर गाजे-बाजे और पारंपरिक गीत गाते हुए महिलाएं नर्मदा तट या सरोवरों में कजलियां खोंटने के लिए जाती हैं। हरियाली की खुशियां मनाने के साथ लोग एक – दूसरे से मिलेंगे और बड़े बुजुर्ग कजलियां देकर धन – धान्य से पूरित क हने का आशीर्वाद देंगे।
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