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Holi Vyang: मिलावट करने वाले व्यापारियों-परीक्षार्थियों के लिए होली होती है शुभ! होली की तो हो ली...पढ़ें होली के व्यंग

Holi Vyang: मिलावट करने वाले व्यापारियों-परीक्षार्थियों के लिए होली होती है शुभ! होली की तो हो ली...पढ़ें होली के व्यंग holi-special-vyang-harishankar-parsai-prem-chang-shiv-varma-holi-ki-hasya-kavita-hindi-pds

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Preeti Dwivedi
Holi Special Vyang

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Holi Special Vyang: होली का त्योहार गिले शिकवे मिटाने वाला होता है। आज होली के मौके पर हम आपके साथ शेयर कर रहे हैं कुछ खास लेखकों, व्यंगकारों के होली से जुड़े व्यंग जो कविता और शायरी में रुचि रखने वालों की जुंबा पर आ ही जाते हैं।

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व्यंगकारों ने होली को अपने-अपने तरह से समझाया हैं. किसी ने मिलावट करने वाले व्यापारियों-परीक्षार्थियों के लिए होली को शुभ बताया है तो किसी ने इसे भारत में हिन्दी की जगह, अंग्रेजी के स्थान लेते हुए कटाक्ष के रूप में किया है।

होली के व्यंग में प्रसिद्ध व्‍यंग्यकारों में प्रेमचंद, डॉ. मधूप पांडे, हरिशंकर परसाई के कुछ व्यंग शामिल हैं।

कवि और व्‍यंगकार: शिव वर्मा

मिलावट करने वाले व्यापारियों के लिए यह होली शुभ है। वे अपने घर, दफ्तर, दुकानें खुली रखें और खूब रंग लगाएं। स्नान न करें और घर-भर के लोगों का रंग एकत्रित कर रख लें। मिलावट में काम आएगा और खूब धन प्राप्त होगा।

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यह होली परीक्षार्थियों के लिए शुभ होगी। परीक्षाएं प्रारंभ हो गई हैं और वर्षभर तक परीक्षार्थियों को पढ़ने-लिखने का सुअवसर नहीं मिल पाया है। वैसे भी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने से कोई काम-धाम मिलना तो संभव नहीं है। अतः पढ़-लिखकर नवाब बनने की कहावत अब चरितार्थ होने वाली नहीं है। अब तो यदि कबड्डी या क्रिकेट खेलना ही सीख गए तो एक अदद नौकरी मिल जाएगी। अतः परीक्षार्थियों को पढ़ने-लिखने में समय नहीं गंवाना चाहिए। बाजार में वैसे भी प्रश्न मय उत्तरों के छपे-छपाए मिलते हैं।

सभी गंजत्व-धारी प्राणियों से निवेदन है कि वे होली के अवसर पर टोपी, टोपा या हेलमेट धारण कर घूमें। अपने केशों पर कंघी भी करना हो तो टोपी के अंदर ही हाथ डालकर करें। नकली रंगों से सावधान रहें। ये रंग यदि मस्तिष्क में चले गए सीधे, तो नक्षत्रों के हिसाब से मस्तिष्क-हानि की पूर्ण संभावना है।

कर्मचारियों के लिए भी यह होली शुभ नहीं है। वेतन तो कई माह से मिल नहीं रहा है, अब नौकरी पर भी शनि की महादशा है। अतः किसी भी प्रकार का सरकारी या विभागीय लिफाफा हाथ में न लें। ऑफिस में भी कोई फाइल न खोलें तथा कोई भी कागज बिना वजन के इधर-उधर न खिसकाएं। हो सके तो कार्यालयों से लंबी छुट्टी ले लें या दफ्तर जाएं भी तो अपनी कुर्सी पर न बैठें।

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कुंवारे होली पर घर में बंद रहें। इससे बड़े दहेज वाले आपको पसंद कर सकते हैं। घर गंदा नहीं होगा। पानी की बचत होगी और आपके शर्ट पर कोई 'मूर्ख' होने का ठप्पा नहीं लगा सकेगा, जो कि आप हैं।

उच्च वर्ग के लिए यह होली शुभ है। होली के दिन अपनी कार में बैठकर, फटे-पुराने वस्त्र धारण कर, इनकम टैक्स अधिकारियों के यहां अवश्य जाएं, टैक्स माफ होगा। निर्धनों से खूब गले मिलें और समाजवाद पर उन्हें लेक्चर पिलाएं।

कवि: गोपाल प्रसाद व्यास

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होली की तो हो ली, अब समूचे भारत में अंग्रेजी की होली हर चौराहे पर लहक रही है

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कवि: डॉ. हरि जोशी

कविता: 'होली और राजनीति'

राजनीति के लिए आज सबसे उपयुक्त कोई पर्व है तो वह है होली। दिल लगें न लगें, गले लगाते रहिये एक दिन गले मिलो, बाकी साल भर गला काट गतिविधि में संलग्न रहो। साल भर जिसे गालियां सुनायीं, होली के दिन उसपर थोड़ा रंग डाल दीजिये। शत्रुता थोड़ी मित्रता में तो बदलेगी? दुश्मनी और दोस्ती एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

कुछ लोग आज भी घूम-घूम कर आग लगा देते हैं! एक ओर होली सर्वाधिक रंगीली है, तो दूसरी ओर गाली-गलौज, टांग खिंचाई और, जूतम-पैजार से भी भरी-पूरी होती है। राजनीति तो अत्यधिक सांस्कृतिक गतिविधि में आकंठ डूबी है।

होली और राजनीति में यही साम्य है। बस अंतर इतना है, होली में थोड़ी सी आग लगी और रस्म पूरी हुई, राजनीति में तो जहाँ देखो वहाँ आग ही लगाई जाती है। कुछ लोग राजनीति को आग से खेलने का जरिया बना लेते हैं। बहुत कुछ कुछ स्वाहा करने के बाद, वे परिवेश में गर्मी बढ़ा देते हैं।

कवि: हरिशंकर परसाई

कविता : 'वैष्णव की फिसलन'

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"होली के दिन सब एक-दूसरे के गले मिलते हैं। गले मिलना अच्छी बात है, पर यह गले मिलना झूठ का आवरण होता है। असल में यह गले मिलना नहीं, गला काटने की तैयारी होती है। होली के दिन लोग रंग डालते हैं, पर यह रंग डालना भी एक तरह का ढोंग है। रंगों के पीछे छिपी होती है दुर्भावना। होली का त्योहार अब अग्नि-कुंड बन गया है, जिसमें लोग अपनी बुराइयों को छिपाने के लिए रंग डालते हैं।"

कवि: कमल किशोर सक्‍सेना

कविता:'होली के न भूलने वाले वे दृश्‍य'

गाय-भैंस का ताजा गोबर, प्रिंटिंग मशीन की गाढ़ी काली स्याही, तारपीन के तेल में तरबतर सफेद पेंट, नाली से कुरेद-कुरेदकर खरोंचा गया थक्केदार कीचड़, लाल-हरे-नीले-पीले रंग, कुछ आदि, कुछ इत्यादि और इन सारे तत्वों का प्रयोग करने के लिए पंचतत्वों से निर्मित काया।

करीब 40-45 साल पहले उत्तर भारत के कुछ शहरों की होली का यह दृश्य होता था, जो कहीं-कहीं आज भी अपनी जीवंतता बरकरार रखे हुए है। इसे खेलना...बल्कि झेलना, हर किसी के बस का नहीं। इसके लिए कंक्रीट से भी मजबूत कलेजा और स्टील से भी ज्यादा फौलादी जिगर की दरकार होती है।

होली का यह त्योहार घड़ी के हिसाब से नहीं, बल्कि कैलेंडर के हिसाब से मनाया जाता है। कुछ इलाकों में एक हफ्ते तक आदमी को उसका पूर्वज बनाने का सिलसिला चलता रहता है। पूरे हफ्ते वह धूम रहती है कि ताजा मरे लोगों की आत्माएं भी उधर से होकर यमलोक जाने में कांपती हैं।

अब तो इंटरनेट मीडिया का दौर है। घर में बैठे-बैठे आदमी ऑनलाइन मार्केटिंग कर सकता है। मित्रों-परिचितों से व्यवहार निबाह सकता है। होली पर एक-दूसरे को रंग और अबीर-गुलाल भी लगा सकता है, लेकिन चार-पांच दशक पहले ऐसा नहीं था।

होली से काफी पहले चंदा मांगने...वस्तुत: वसूलने से त्योहार की शुरुआत हो जाती थी। हर मोहल्ले में वसूली करने वालों का 'गैंग' होता था, जो सामान्यतः दो प्रकार के लोगों से चंदा लेता था। एक मोहल्ले वाले और दूसरे राहगीर।

कवि: प्रेमचंद

कविता: 'होली का उपहार'

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आज होली है, मगर आजादी के मतवालों के लिए न होली है न बसंत। हाशिम की दुकान पर आज भी पिकेटिंग हो रही है, और तमाशाई आज भी जमा हैं। आज के स्वयंसेवकों में अमरकान्त भी खड़े पिकेटिंग कर रहे हैं। उनकी देह पर खद्दर का कुरता है और खद्दर की धोती। हाथ में तिरंगा झण्डा लिए हैं।

उसी वक्त पुलिस की लारी आयी, एक सब इंस्पेक्टर उतरा और स्वयंसेवकों के पास आकर बोला-मैं तुम लोगों को गिरफ्तार करता हूँ।

'वन्दे मातरम्' की ध्वनि हुई। तमाशाइयों में कुछ हलचल हुई। लोग दो-दो कदम और आगे बढ़ आये। स्वयंसेवकों ने दर्शकों को प्रणाम किया और मुस्कराते हुए लारी में जा बैठे। अमरकान्त सबसे आगे थे। लारी चलना ही चाहती थी, कि सुखदा किसी तरफ से दौड़ी हुई आ गयी। उसके हाथ में एक पुष्पमाला थी, लारी का द्वार खुला था। उसने ऊपर चढ़कर वह अमरकान्त के गले में डाल दी। आँखों से स्नेह और गर्व की दो बूंदें टपक पड़ीं। लारी चली गयी। यही होली थी, यही होली का आनन्द-मिलन था।

कवि: डॉ. मधूप पांडे

डॉ मधूप पांडे ने मैंने अपने निर्माता मित्र से कहा- 'होली के मूड में आइए और इस बार कोई 'रंगीन' फिल्म बनाइए'। 'वह बोला- हम तो अपनी हर फिल्म 'रंगीन' ही बनाते हैं। यह अलग बात है कि आप उसे समझ नहीं पाते हैं। जरा ध्यान से देखिए जब 'गुलाबी' हीरोइन 'श्यामल' हीरो के साथ कूल्हे मटकाती है। तो दर्शक को फिल्म की हर फ्रेम अपने ही आप 'रंगीन' नजर आती है। और जब 'काला-कलूटा' विलन सुंदर-सलोनी नर्तकी से कैबरे करवाता है। तो देखने वालों की अतृप्त आंखों में उत्तेजना का 'लाल' रंग तैर जाता है।

हम तो इसी तरह भूखे गरीब दर्शक को फिल्म के नाम पर 'रंग-बिरंगे' चित्र बेचते हैं। उसकी कष्ट की कमाई के नोट खैंचते हैं। हां, जब यही दर्शक फिल्मी इंद्रधनुष के मोहक 'रंगों' से निकलकर यथार्थ के कठोर धरातल पर आता है, तब उसका चेहरा 'सफेद' फक्क पड़ जाता है।

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