हाइलाइट्स
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सरकारी कर्मचारियों की पदोन्नति से जुड़ा है मामला
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पदोन्नति को लेकर अक्सर कर्मचारी संगठन उठाते हैं मांग
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सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी कर्मचारियों के पदोन्नति पर सुनाया फैसला
Govt Employee Promotion Order: भारत में कोई भी सरकारी कर्मचारी पदोन्नति को अपना अधिकार नहीं मान (Government Employee Cannot Consider Promotion As His Right) सकता।
क्योंकि संविधान में पदोन्नति पदों पर सीटों को भरने के लिए कोई मानदंड निर्धारित नहीं किया गया। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कही।
अक्सर पदोन्नति की मांग करते रहे हैं कर्मचारी
भले ही यह पूरा मामला किसी एक राज्य के किसी एक मामले से जुड़ा हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court Order) द्वारा कही गई ये बात पूरे देश के सरकारी कर्मचारियों से जुड़ी है।
सरकारी कर्मचारी अक्सर पदोन्नति (Govt Employee Promotion Order) की मांग करते रहे हैं। इसके लिए शासन की नीतियों को दोषी ठहराते हुए कई बार ज्ञापन भी दिये जाते रहे हैं।
कोर्ट का हस्तक्षेप करने का दायरा सीमित
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानमंडल या कार्यपालिका रोजगार की प्रकृति और उम्मीदवार से अपेक्षित कार्यों के आधार पर पदोन्नति पदों पर रिक्तियों को भरने की विधि तय कर सकती है।
न्यायालय यह तय करने के लिए पुनर्विचार नहीं कर सकते कि पदोन्नति के लिए अपनाई गई नीति ‘सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवारों’ के चयन के लिए उपयुक्त है या नहीं, जब तक कि सीमित आधार पर यह संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन न करे।
सीनियरटी-आधारित पदोन्नति की उत्पत्ति कहां से हुई
यह सब ब्रिटिश राज के समय से शुरू किया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी (EIC) अपने अधिकारियों को सेवा की अवधि के आधार पर पदोन्नत करती थी यानी वरिष्ठता।
वरिष्ठता के माध्यम से पदोन्नति के नियम को आधिकारिक तौर पर 1793 के चार्टर अधिनियम में मान्यता दी गई और 1861 तक जारी रहा।
1861 में भारतीय सिविल सेवा अधिनियम (ICS) के आने पर पदोन्नति तब वरिष्ठता और योग्यता, ईमानदारी, क्षमता और योग्यता दोनों के आधार पर होती थी।
1947 में भारत के स्वतंत्र होने तक इस पद्धति को ‘वरिष्ठता-सह-योग्यता’ के रूप में जाना जाता था।
Supreme Court: देश का कोई भी सरकारी कर्मचारी पदोन्नति को अपना अधिकार नहीं मान सकता, ये है इसकी वजह#supremecourt #governmentemployees @PMOIndia @ChhattisgarhCMO @CMMadhyaPradesh @GADdeptmp
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भारत में आधुनिक सिविल सेवाओं में प्रतियोगी परीक्षाओं की अवधारणा 1854 में ब्रिटिश संसद की चयन समिति की लॉर्ड मैकाले की रिपोर्ट के परिणामस्वरूप शुरू की गई।
उक्त रिपोर्ट का उद्देश्य EIC की “संरक्षण-आधारित प्रणाली” को प्रतियोगी परीक्षाओं पर आधारित स्थायी सिविल सेवाओं से बदलना था।
इसका उद्देश्य प्रशासन में अनुचितता को खत्म करने के लिए प्रमुख भर्ती और पदोन्नति प्रक्रियाओं के रास्ते में राजनीतिक प्रभावों या व्यक्तिपरक पूर्वाग्रह को रोकना था।
साल 1947 में दिया गया था सुझाव
1947 में प्रथम वेतन आयोग ने सीधी भर्ती और पदोन्नति के मिश्रण का उपयोग करने का सुझाव दिया।
इसने कार्यालय अनुभव की आवश्यकता वाली भूमिकाओं के लिए वरिष्ठता और उच्च पदों के लिए योग्यता की सिफारिश की।
बाद में 1959 और 1969 में आयोगों ने भी वरिष्ठता के साथ-साथ योग्यता-आधारित पदोन्नति का समर्थन किया।
यह नोट किया गया कि वरिष्ठता के सिद्धांत को वफादारी और कम पक्षपात के प्रतिबिंब के रूप में देखा गया, जिसे निष्पक्ष व्यवहार के साथ सम्मानित किया जाना चाहिए।
पदोन्नति के लिए चयन के पैरामीटर के रूप में वरिष्ठता का सिद्धांत इस विश्वास से निकला पाया गया कि योग्यता अनुभव से संबंधित है और यह विवेक और पक्षपात के दायरे को सीमित करती है।
हमेशा अतिरिक्त धारणा होती है कि लंबे समय से सेवारत कर्मचारियों ने नियोक्ता संगठन के प्रति वफादारी दिखाई है। इसलिए वे पारस्परिक व्यवहार के हकदार हैं।”
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने की ये टिप्पणी
इसके बाद न्यायालय ने कहा कि भारतीय संवैधानिक संदर्भ में सरकारी कर्मचारियों को अधिकार के रूप में पदोन्नति (Govt Employee Promotion Order) की मांग करने का कोई अधिकार नहीं है।
चूंकि संविधान में पदोन्नति के लिए कोई निर्धारित मानदंड निर्दिष्ट नहीं किया गया, इसलिए उक्त प्रक्रिया सरकार या विधायिका के लिए खुली छोड़ दी गई और यह पदनाम या नौकरी की प्रकृति के आधार पर भिन्न हो सकती है, जिसके लिए पदोन्नति पर नियम निर्धारित किए जा सकते हैं।
यह माना गया कि न्यायालय प्रतिबंधात्मक रूप से केवल तभी हस्तक्षेप कर सकते हैं, जब पदोन्नति नीति संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करती हो।
यह था पूरा मामला
सरकारी कर्मचारियों की पदोन्नति से जुड़ा सुप्रीम कोर्ट ने जो बड़ा फैसला सुनाया, वह गुजरात हाईकोर्ट द्वारा 2023 में सीनियर सिविल जजों को मेरिट-कम-सीनियरिटी सिद्धांत के आधार पर जिला जजों के 65% पदोन्नति से जुड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नत करने की सिफारिशों को बरकरार रखा है।