बाढ़ ने देशभर में तबाही मचा रखी है। यह एक बार की बात नहीं। बार-बार बाढ़, तूफान, भू-स्खलन एवं जल-प्लावन जैसी प्राकृतिक आपदाओं से करोड़ों जनों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है एवं सैकड़ों जानें चली जाती हैं।
वैश्विक अध्ययनों के अनुसार विगत तीन दशक से अमेरिका एवं चीन के बाद भारत में सर्वाधिक प्राकृतिक आपदाएं विघटित हो रही हैं। सदी के आरंभ से 2022 तक देश में लगभग 400 प्राकृतिक आपदाएं घटी हैं।
भारत में सबसे ज्यादा बाढ़
एसबीआई के एक अध्ययन के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा बाढ़ आती है। असम, बिहार, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, केरल एवं गुजरात। देश के ये दस क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां प्रति वर्ष बाढ़ रौद्र रूप लेकर आती है। वहीं अतिवर्षा से कई बार राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी बाढ़ की स्थितियां बन जाती हैं। मध्यप्रदेश के नगरों में वर्तमान में बाढ़ जैसी स्थिति बनी हुई है, वहीं निरंतर जारी बारिश से इस समस्या के गंभीर रूप धारण करने की दशा दिख रही है।
चिंता का विषय
वर्षा ऋतु आरंभ होते ही देश के विभिन्न बाढ़ संभावित क्षेत्रों में जीवन संकट उत्पन्न हो जाता है। प्रतिवर्ष बाढ़ों में बड़ी मात्रा में जान-माल की क्षति होती है। विगत 70 वर्ष के आंकड़े देखें, तो बाढ़ लगभग प्रति वर्ष देश के जन-जीवन एवं भौगोलिक दशा को बिगाड़ती आ रही है। चिंता का विषय यह है कि यह देश में तबाही मचाने वाली अवश्यंभावी आपदा बन गई है।
खतरे के निशान से ऊपर बह रहीं नदियां
कुछ समय पूर्व तक असम में 4-5 वर्ष में एकाध बार बाढ़ आती थी, लेकिन अब प्रतिवर्ष कम से कम 3-4 बार वहां बाढ़ आ जाती है। यहां अभी तक बाढ़ एवं बिजली गिरने के कारण 115 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। लगभग 2.72 लाख लोग बाढ़ के प्रकोप से प्रभावित हैं। हजारों लोग शिविरों में आसरा लिए हुए हैं। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियां खतरे के स्तर से ऊपर बह रही हैं।
असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा बताया गया है कि वर्तमान में 31 राजस्व क्षेत्रों एवं 13 जिलों के लगभग 3 लाख 55 हजार लोग बाढ़ से प्रभावित हैं।
बाढ़ से 15 हजार करोड़ की धन हानि
एसबीआई के अध्ययन में कहा है कि ऐसी आपदाओं ने आर्थिक तनाव के नए रिकॉर्ड स्थापित किए हैं। रिपोर्ट के अनुसार बाढ़ के कारण लगभग 15 हजार करोड़ रुपए की धन हानि होने का अनुमान है। नेपाल, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड में उफनती नदियों ने भी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं असम में सामान्य जन जीवन के अलावा आर्थिक रूप से गहन समस्या उत्पन्न कर रखी है।
यद्यपि समाज, पर्यावरण एवं भू-विशेषज्ञों के अनुसार बाढ़ का कारण हर बार भारी बारिश नहीं होती, इसके प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही कारण होते हैं। ‘जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण’ मंत्रालय द्वारा नेशनल मिशन में ‘फॉर क्लीन गंगा’ योजना के तहत गठित एक कमेटी द्वारा पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड से प. बंगाल तक गंगा नदी में अतिक्रमण और गाद जमाव का अध्ययन किया गया।
रिपोर्ट बताती है कि गंगा में सालाना 41.3 करोड़ टन गाद जमा होती है। हिमालय से गंगा में मिलने वाली छोटी नदियां 90 प्रतिशत गाद अपने साथ लेकर आती हैं। प. बंगाल में फरक्का बांध के निर्माण के बाद गंगा में गाद जमा होने की समस्या और बढ़ी है। इससे बिहार में बाढ़ का स्तर बढ़ गया। वहीं मानव निर्मित अवरोधों में नदियों के तटबंध, तटवृक्षों और वनों की कटाई, नहरों एवं रेलवे से संबंधित निर्माणों से नदी का प्रवाह रुकने से भी यह स्थति निर्मित होती है।
देश के 12.5 प्रतिशत क्षेत्र में हर साल बाढ़
‘जियोलॉजिक सर्वे ऑफ इंडिया’ के अनुसार भारत तीन ओर से अरब सागर, हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से घिरा है, इस कारण वह बाढ़ विभीषिका के संदर्भ में संवेदनशील है। भू-वैज्ञानिक कहते हैं कि अपनी भौगोलिक बनावट के कारण देश का करीब 12.5 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है, जहां प्रतिवर्ष बारिश में बाढ़ आती ही है, जिसमें हजारों लोगों का जीवन एवं हजारों करोड़ की संपत्ति और संसाधन नष्ट होते हैं।
मौसम विज्ञानी कहते हैं कि नदियों का बहाव अवरुद्ध होने और निरंतर उनके उथले होते जाने से दक्षिण-पश्चिम से आने वाले मानसून की मूसलाधार बारिश से उनमें सैलाब आता है और नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में हमेशा बाढ़ आ जाती हैं।
नेपाल से आने वाली नदियों से बाढ़
1950 से 2020 के बीच बाढ़ और अतिवृष्टि के कारण भारत को लगभग 38 खरब रुपए की हानि हुई। लगभग 1.15 लाख लोग मारे गए। 8.5 करोड़ घर नष्ट हुए। 48 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र डूबत में आया। 1.15 करोड़ रुपए की फसल बर्बाद हुई एवं 65 लाख पशु बहे और मारे गए। इसका मुख्य कारण नेपाल से आने वाली नदियां हैं। नेपाल में भारी बारिश होने पर वहां का पानी बिहार में आता है। इसी तरह चीन में होने वाली भारी बारिश से हिमालय प्रदेश में बाढ़ का खतरा संभावित होता है।
प्राकृतिक प्रकोपों की रोकथाम का स्थाई हल नहीं
राष्ट्रीय जल नीति-2012, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम-2005 तथा बाढ़ प्रबंधन और सीमा क्षेत्र कार्यक्रम जैसी योजनाएं प्राकृतिक आपदाओं से बचाव और प्रभावितों की सहायता के लिए बनाई गई हैं, लेकिन आज तक न तो बाढ़, जल प्लावन, भू-स्खलन, तूफान एवं सूखा जैसे प्राकृतिक प्रकोपों की रोकथाम का कोई स्थाई हल निकल पाया है और न ही मानव निर्मित कारणों पर किसी तरह की रोक लग सकी है।
अमेरिका से ले सकते हैं सीख
बाढ़ के कारण जानमाल की संभावित क्षति को रोकने के ठोस, स्थाई और उत्तम उपाय का उदाहरण अमेरिका से लिया जा सकता है। अमेरिका में सुनिश्चित बाढ़ग्रस्त क्षेत्रवासियों को ‘स्वैच्छिक योजना’ के तहत सरकार घर क्रय करने का प्रस्ताव देती है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत उन्हें उनकी संपत्ति का उचित मूल्य दिया जाता है और वे आसानी से दूसरे सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित हो जाते हैं। बस्तियां रिक्त होने के बाद सरकार ऐसे स्थानों को समतल कर पार्क और मैदान के रूप में तैयार करती है। प्रतिवर्ष होने वाली पीड़ा से स्थाई रूप से मुक्ति पाने के लिए भारत को भी ऐसी योजनाएं अमल में लाना चाहिए, जो वास्तव में उपयुक्त सिद्ध हो सकती हैं। इससे संभावित बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में अरसे से चली आ रही जनधन की क्षति से छुटकारा मिलना तय है।
भले ही इस तरह दशकों से बाढ़ के प्रलयंकारी प्रकोप झेलते आ रहे क्षेत्रों की त्रासदी का पूर्ण निवारण संभव न हो, तो भी इसमें दोराय नहीं कि जनजीवन, देश की बहुमूल्य संपत्ति और संसाधन को इस विनष्टीकरण से बचाया जा सकता है। दुख की बात यह है कि बाढ़, जल-प्लावन और भूस्खलन जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के बाद प्रभावितों को फौरी राहत देने के अलावा इस सुनिश्चित वार्षिक संकट से मुक्ति का कोई उन्नत उपाय अभी तक नहीं मिल पा रहा है या कहें कि नहीं किया जा रहा है।
( लेखक – भूपेंद्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार )