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Bastar Dussehra 2024: छत्‍तीसगढ़ का बस्‍तर जहां दशहरा पर्व पर नहीं मारा जाता रावण, जानें क्‍या है परंपरा

Bastar Dussehra 2024: छत्‍तीसगढ़ का बस्‍तर जहां दशहरा पर्व पर नहीं मारा जाता रावण, जानें यहां का प्राचीन इतिहास

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Sanjeet Kumar
Bastar Dussehra 2024

Bastar Dussehra 2024

रिपोर्ट: रजत वाजपेयी, जगदलपुर

Bastar Dussehra 2024: बस्तर का महापर्व दशहरा अपनी अनूठी मान्यता, वैभवशाली परंपरा और 75 दिनों की लंबी अवधि तक चलने वाले अनुष्ठानों के लिए विश्व विख्यात है। बस्तर के दशहरा पर्व में रावण नहीं मारा जाता। इसकी विशेषता है लकड़ी से बने लगभग 20 फुट चौड़े, 40 फुट लंबे और 50 फुट ऊंचे भव्य दुमंजिले रथ की नगर परिक्रमा।

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शक्ति पूजा के रूप में इस पर्व की शुरुआत बस्तर (Bastar Dussehra 2024) के तत्कालीन चालुक्यवंशीय महाराजा पुरुषोत्तम देव ने 1408 ई. में अपने राज्याभिषेक के साथ की थी। तभी से यह पर्व लगातार जनश्रध्दा और समरसता का प्रतीक बना हुआ है। चालुक्यवंशीय नरेशों ने अपनी कुलदेवी मणिकेश्वरी की प्रतिरूपा मांई दंतेश्वरी को बस्तर के जन-जन की आराध्या बनाते हुए यहां निवासरत सभी जातियों की निष्ठा व भक्तिभावना से इस पर्व को जोड़ दिया।

12 पहियों का विशाल काष्‍ठ रथ

Bastar's Dussehra

बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव के मुताबिक महाराजा पुरुषोत्तम देव के समक्ष बस्तर (Bastar Dussehra 2024) के वनवासियों में अशिक्षा, अंधविश्वास, क्षेत्रीय एकता का अभाव, सीमावर्ती राज्यों तथा मुगलों के आक्रमण की आशंकाएं आदि समस्या थी, जिनके निराकरण की कामना से उन्होंने विशेष मुद्रा में जगन्नाथपुरी तक की यात्रा की। जहां उन्हें रथपति की उपाधि और 16 पहियों वाला रथ मिला। 16 पहियों में से 4 पहियों का रथ बनाकर गोंचा पर्व में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा की शोभायात्रा निकाली जाने लगी। शेष 12 पहियों का विशाल काष्ठ रथ मां दंतेश्वरी को अर्पित किया गया।

सभी जातियों को समान सम्मान

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दशहरा पर्व में आदिवासी, हरिजन, सामान्य सभी जातियों को समान सम्मान एवं एकाधिकारपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपने के साथ यहां के सभी जनपदों को दायित्वबोध (Bastar Dussehra 2024) से बांधकर जो जातीय समभाव स्थापित किया गया। वह राष्ट्रीय एकता की भावना का ज्वलंत और प्राचीनतम उदाहरण हैं। वर्षों से दशहरा पर्व के विधानों में शामिल होते आ रहे हरिश्चंद्र पट्टजोशी कहते हैं कि श्रावण मास की हरेली अमावस्या को पाटजात्रा पूजा विधान से रथ निर्माण के लिए लाई गई पहली लकड़ी की पूजा से बस्तर दशहरा पर्व की शुरूआत होती है।

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गड्ढे में तपोमुद्रा में उपवास

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इसके बाद बस्तर (Bastar Dussehra 2024) के 3618 गांव के देवी-देवताओं, पुजारियों और ग्रामवासियों को इस उत्सव हेतु निमंत्रित किया जाता है। भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की व्दादशी को स्थानीय सिरहासार भवन में डेरा पाटनी विधान के व्दारा उस स्थान पर खंभे गाड़ने की परंपरा निभाई जाती है। जहां पर्व के निर्विघ्न संपन्न होने की कामना के साथ हल्बा जाति का युवक 9 दिनों तक जोगी बनकर एक गड्ढे में तपोमुद्रा में उपवास रखकर बैठता है। इसके एक दिन पहले काछनगादी अनुष्ठान के जरिए एक अल्प व्यस्क हरिजन बालिका को कांटों के झूले में लिटाकर उससे पर्व के सफलतापूर्वक संपन्न होने की अनुमति ली जाती है।

रथ परिक्रमा का आकर्षण

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जोगी बिठाई के बाद 5 या 6 दिनों तक लगातार रथ परिक्रमा होती है। रथ निर्माण का कार्य बेड़ाउमरगांव (Bastar Dussehra 2024) और झारउमरगांव के ग्रामीण प्राचीन परंपरागत प्रचलित औजारों से ही करते हैं। जानकार रुद्रनारायण पाणिग्राही ने कहा कि रथ निर्माण की उनकी कला किसी तकनीकी विश्वविद्यालय के प्रमाण पत्र की मोहताज नहीं।

प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता है। एक साल 4 और एक साल 8 चक्कों वाला रथ चलता है। रथ को रंग-बिरंगे कपड़ों, बिजली के झालरों और ट्यूब लाइट से सजाया जाता है। रथ में मांई दंतेश्वरी के छत्र को आरूढ़ किया जाता है। अश्वनी शुक्ल की सप्तमी और अष्टमी पूजा-पाठ के दिन होते हैं। इसी तरह एक और विधान है बेलपूजा। वास्तव में यह रस्म विवाहोत्सव से संबंधित है।

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कन्‍याओं ने बताया वे उनकी ईष्‍टदेवी

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जानकार बताते हैं कि बस्तर (Bastar Dussehra 2024) चालुक्य वंश के एक राजा सरगीपाल जंगल में शिकार करने गए थे। वहां इस बेलवृक्ष के नीचे खड़ी दो सुंदर कन्याओं को देख राजा ने उनसे विवाह की इच्छा प्रकट की, जिस पर कन्याओं ने उनसे बारात लेकर आने को कहा। अगले दिन जब राजा बारात लेकर वहां पहुंचे तो दोनों दोनों कन्याओं ने उन्हें बताया कि वे उनकी ईष्टदेवी मणिकेश्वरी और दंतेश्वरी हैं।

उन्होंने हंसी- ठिठोली में राजा को बारात लाने को कह दिया था। इससे शर्मिंदा राजा ने दंडवत होकर अज्ञानतावश किए गए अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगते हुए उन्हें दशहरा पर्व में शामिल होने का न्योता दिया। तब से यह विधान चला आ रहा है। जोड़ी बेल फल को दोनों देवियों का प्रतीक माना जाता है।

मावली के स्वागत का वैभव

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अष्टमी की रात्रि को निशाजात्रा विधान (Bastar Dussehra 2024) संपन्न होता है, जबकि नवमीं की रात्रि मावली परघाव का विधान बड़ा भव्य होता है। दंतेवाड़ा से मांई दंतेश्वरी की डोली जगदलपुर लाई जाती है। मावली देवी इन्हीं का एक नाम है तथा परघाव इनकी अगवानी को कहा जाता है। अधिवक्ता और बस्तर को समझने वाले सुभाष पांडे ने बताया कि विजयादशमी का दिन बस्तर दशहरे में भीतररैनी के नाम से मनाया जाता है। बस्तर दशहरे का रामकथा से कोई संबंध नहीं है।

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बीच शहर से चुरा ले जाते हैं रथ

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भीतररैनी के दिन 8 चक्कों (Bastar Dussehra 2024) वाला रथ चलाया जाता है, जो फूलरथ से बड़ा होता है। इसी दिन आधी रात के बाद रथ खींचने वाले ग्रामीण रथ को चुराकर नगर सीमा से सटे ग्राम कुम्हड़ाकोट नामक स्थान पर ले जाते हैं। अगले दिन एकादशी को बाहररैनी होती है। इस दिन यहां ईष्ट देवी की पूजा और नवाखानी होती है। इसके बाद यहां से रथयात्रा शुरू होकर मांई दंतेश्वरी के मंदिर के सामने समाप्त होती है। भीतररैनी और बाहररैनी में रथ खींचने का अधिकार किलेपाल परगन की माड़िया जनजाति को ही होता है।

बस्तर की जनसंसद

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अगले दिन मुरिया दरबार (Bastar Dussehra 2024) लगाया जाता है, जिसमें मांझी, मुखिया, चालकी आदि अपने-अपने क्षेत्रों की समस्या मंच पर रखते हैं। उसे एक तरह से बस्तर की जनसंसद कहा जा सकता है। मुरिया दरबार में हर साल शिरकत करने वाले मर्दापाल के पुजारी भगचंद मानिकपुरी बताते हैं कि मुरिया दरबार में सांसद, विधायक, पुजारी, पटेल, कोटवार और पंचायत प्रतिनिधियों के अलावा जिला प्रशासन के अधिकारी मौजूद रहते हैं।

कुटुंब जात्रा पूजा विधान

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बस्तर दशहरा से जुड़ी रस्मों के(Bastar Dussehra 2024)  जानकार बनमाली पाणिग्राही बताते हैं कि इसके अगले दिन गंगामुंडा जात्रा, जिसे कुटुंब जात्रा भी कहते हैं, संपन्न होती है। पर्व की समाप्ति मांई दंतेश्वरी देवी दंतेवाड़ा और विभिन्न ग्रामों से आए देवी-देवताओं की विदाई से होती है।

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