Dussehra 15 Oct 2021 : रावण प्रेम ऐसा, कि बच्चों का नाम ही रखा लंकेश, मेघनाथ, कुंभकरण

इंदौर। दहशहरे में हर तरफ जहां Dussehra 15 Oct 2021 राम की पूजा कर रावण दहन किया जाता है। तो वहीं प्रदेश की कुछ ऐसी जगहें भी हैं जहां पर केवल राम को नहीं बल्कि रावण को पूजा जाता है। इतना ही नहीं यहां बाकायदा रावण का मंदिर भी है। यहां तक कि नए कार्य की शुरूआत रावण की पूजा से की जाती है। तो वहीं एक गांव में परिवार रावण की भक्ति में इस कदर लीन हो चुका है। कि रावण का मंदिर बनवाने के साथ—साथ अपने बच्चों का नाम भी लंकेश, मेघनाथ और कुंभकरण रखा है।
विदिशा का नटेरन गांव
दशहरा पर विदिशा के रावण गांव स्थित इस रावण Dussehra 15 Oct 2021 बाबा मंदिर में रावण की महापूजा की जाती है। मंदिर में भजन कीर्तन करके के साथ—साथ विशेष पूजा अर्चना की जाती है। रावण के नाभिकुण्ड पर घी का लेप लगाया जाता है। ताकि अग्निबाण की तपन को शांत किया जा सके। प्राचीन रावण मंदिर में दर्शनार्थियों और पूजन में शामिल होेने के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं।
खुले में पड़ी थी प्रतिमा, अब मंदिर बना
विदिशा जिला मुख्यालय से 41 किमी दूर (नटेरन के पास) एक गांव बसा हुआ है, जिसका नाम ही रावण है। ब्राम्हण बाहुल्य इस गांव में प्रवेश करते ही एक तालाब और रावण बाबा का मंदिर है। करीब 10 वर्ष पहले तक यहां एक टीले पर पत्थर की 6 फीट लम्बी विशाल प्राचीन प्रतिमा लेटी हुई है। जिसे रावण के रूप में पूजा जाता था। जिसे अब लोगों द्वारा मंदिर का रूप दिया जा चुका है। रावण की इस प्रतिमा में नाभि स्पष्ट दिखाई देती है, छह सिर सामने दिखाई देते हैं, माना जाता है कि शेष चार सिर पीछे की ओर हैं जो लेटी प्रतिमा के कारण दिखाई नहीं देते।
हर शुभ काम में रावण बाबा प्रथम पूज्य
भगवान गणपति की पूजा से जैसे हर शुभ काम का शुभारंभ होता है, वैसे ही रावण गांव में हर शुभ काम की शुरुआत रावण बाबा की पूजा से होती है। विवाह कार्य, जन्म उत्सव, मुंडन संस्कार हो, ट्रेक्टर या बाइक खरीदी जैसे कोई भी शुभ कार्य हों, सभी में सबसे पहले रावण बाबा की पूजा की जाती है। यहां तक की विवाह के बाद आई नई नवेली दुल्हन भी यहां आकर पहले माथा जरूर टेकती है। यहां तक दशहरे के दिन भी यहां रावण का दहन नहीं किया जाता।
रावण की प्रतिमा से होती थी पहलवानी
ऐसी मान्यता है कि क्षेत्र में बूधो नाम का एक राक्षस हुआ करता था, जो रावण के दरबार में जाकर उसके वैभव और पराक्रम को देखता रहता था। उसे लगता था कि वह भी रावण के साथ दंगल में भिड़े। एक बार रावण ने उससे पूछा और दरबार में आने का कारण पूछा तो बूधों ने रावण से दंगल में भिडऩे की इच्छा जताई। तब रावण ने कहा था तुम जहां रहते हो वहां पहाड़ी के पास मेरी प्रतिमा मिलेगी, उससे लडऩे का अभ्यास करो और अपनी इच्छा पूरी करो।
इसके बाद जब बूधो वापस लौटा तो उसे यह प्रतिमा मिली। गौरतलब है कि बूधो की पहाड़ी भी पास ही है। तब से यह प्रतिमा यहीं स्थापित मानी जाती है। गांव के लोग नए वाहनों की पूजा कर उस पर जय लंकेश या रावण बाबा की जय लिखते हैंं। सामने स्थित तालाब का जल बहुत पवित्र माना जाता है। यहां स्नान कर भगवान की पूजा करते हैं। इस तालाब में कपड़े नहीं धोए जाते। यहां की मिट्टी काफी गुणकारी मानी जाती है।
इंदौर के इस परिवार का रावण प्रेम भी गजब
इंदौर में एक परिवार रावण को भगवान मानकर पूजा करता है और इसके लिए यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण भी कराया गया है। इतना ही नहीं इस परिवार में अपने बच्चों के नाम भी लंकेश, मेघनाथ और कुंभकरण रखे गए हैं।
10 अक्टूबर को 10 बजकर, 10 मिनिट 10 सेकंड पर हुआ था मंदिर का निर्माण
प्रकांड विद्वान रावण को दशहरे पर भले ही जलाया जाता हो, लेकिन इंदौर के परदेशीपुरा में रहने वाले गौहर परिवार ने अपने घर में ही रावण का मंदिर बना रखा है। मंदिर को करीब 11 वर्ष पूर्व विशेष मुहूर्त में 10 अक्टूबर 2010 को रात 10 बजकर 10 मिनट 10 सेकेंड पर किया गया था। मंदिर में रावण के दस सिर के ऊपर नागदेव फन फैलाए हुए हैं। परिवार के मुखिया महेश गोहर रोज रावण की पूजा करते हैं। सुबह शाम होने वाली आरती में घर के सभी लोग शामिल होते हैं। दशहरे पर तो इस रावणेश्वर मंदिर में विशेष पूजा अर्चना की जाती है। जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं। रावण को भगवान मानने वाले महेश गोहर ने अपने बच्चों के नाम भी रावण के परिवार के लोगों के नाम पर रखे हैं।
रावण दहन के विरोध में पहुंचे कोर्ट
वहीं दशानन के दूसरे भक्त भी रावण दहन का विरोध करते हैं, और इस बार रावण दहन को लेकर कोर्ट में याचिका भी दायर की गई है। जिसमें रावण के दहन की बजाय पूजन की अपील की गई है। रावण भक्त शिव घावरी कहते हैं कि जब हिन्दू मान्यताओं के अनुसार रात में किसी शव का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है। ऐसे में रात में रावण को जलाना पौराणिक मान्यताओं के खिलाफ है। बहरहाल, रावण दहन को लेकर लोगों के अपने अपने तर्क हैं। लेकिन सदियों से चली आ रही इस परंपरा का आज भी जोर शोर से निर्वाह किया जा रहा है।