Dadasaheb Phalke Birthday : भारतीय सिनेमा के फादर ऑफ इंडियन दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) जी का आज जन्म दिन है। दादा साहेब फाल्के गुलाम भारत के पहले ऐसे डायरेक्टर थे जिन्होंने पहली फिल्म बनाने के लिए अपनी पूरी जायदाद और अपनी पत्नी के जेवर गिरवी रख दिए थे। दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) के नाम से आज भी भारतीय सिनेमा जगत में पुरस्कार दिया जाता है, लेकिन उन्हे आज तक कोई अवॉर्ड नहीं मिला। दादा साहेब को फिल्म बनाने के लिए इतना जनून था कि वह फिल्म में एक्टिंग करने के लिए वेश्याओं को रखने तक तैयार थे लेकिन फिल्म में वेश्याओं ने काम करने से मना कर दिया था। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी उन्होंने फिल्म में एक लड़के को हीरोइन का रोल दिया था। कहा जाता है कि दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) फिल्म में जब कोई महिला नहीं होती थी तो वह खुद साड़ी पहनकर लड़के और लड़कियों को एक्टिंग करना सिखाते थे।
पुजारी के घर में पैदा हुआ फिल्मों का दीवाना
दादा साहेब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक के पास त्र्यंबक क्षेत्र में धुंडिराज में एक पुजारी के घर में हुआ था। जो आगे जाकर भारतीय सिनेमा का जनक बना। आज दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) का 152वां जन्मदिवस है। दादा साहेब फाल्के के पिता गोविंद सदाशिव फाल्के पुजारी थे। दादा साहेब 6 भाई-बहन थे। वैसे तो उनके पिता पंडित थे लेकिन उन्हें मुंबई में संस्कृत के प्रोफेसर की नौकरी मिल गई थी। इसके बाद दादा साहेब फाल्के का परिवार मुंबई आ गया था। मुंबई आने के बाद दादा साहेब फाल्के ने सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाखिला लिया और पेंटिंग, फोटोग्राफी सीखी।
मुंबई से गोधरा आए फाल्के
पेंटिंग और फोटोग्राफी सिखने के बाद उन्हें जब मुंबई में काम नहीं मिला तो वह एक प्रिंटिंग प्रेस में काम करने लगे। इसके बाद वह मुंबई से गोधरा पहुंच गए। गोधरा जाने से पहले उनकी शादी हो चुकी थी। गोधरा में वह अपना हाथ जमा ही रहे थे कि सन 1900 में गोधरा में प्लेग फैल गया। जिसका शिकार उनकी पत्नी और बेटा हो गया। इसके बाद फाल्के साहब (Dadasaheb Phalke) अकेले हो गए। इसके बाद वह बड़ौदा आ गए लेकिन यहां भी उनका काम नहीं चला। इसके बाद दादा साहेब बड़ौदा से बॉम्बे लौट आए। सन 1909-10 में उनके मन में एक बार फिर फिल्मों के प्रति रूचि जागी तो उन्होंने फिर फिल्मी दुनिया में हाथ जमाने का सोचा उस समय भारत में ब्रिटिश मूक फिल्मों का चलन था।
फिल्म के लिए गिरवी रख दिए थे पत्नी के जेवर
दादा साहेब को अपनी पहली फिल्म बनाने का विचार आया। उन्होंने ठान लिया था की वह अब फोटोग्राफी, पेंटिंग नहीं करेंगे। इसके बाद दादा साहेब (Dadasaheb Phalke) ने फिल्म बनाने के लिए लोगों से मदद मांगी लेकिन किसी ने उनकी मदद नहीं की। लेकिन बाबा साहेब (Dadasaheb Phalke) ने लोगों में फिल्मों के प्रति रूची पैदा करने के लिए अपनी पहली फिल्म पौधों पर बनाई। फिल्म का नाम था ‘अंकुराची वाध’। फिर क्या उनकी कोशिश रंग लाई और उन्हें मदद मिलने लगी। लेकिन उनके लिए यह मदद काफी नहीं थी इसलिए उन्होनं अपनी पत्नी के गहले और संपत्ति गिरवी रख दी। इसके बाद दादा फिल्म मेकिंग सिखने के लिए लंदन गए और दो महीनों बाद लौटे। मुंबई लौटने के बाद दादा ने फाल्के (Dadasaheb Phalke) फिल्म कंपनी बनाई और अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र तैयार की।
ढाबे के बावर्ची को बनाया हीरोइन
फिल्म में काम करने के लिए उन्होंने अखबरों में विज्ञापन दिया। विज्ञापन में उन्होंने बकायदा दिया था कि बुरी शक्ल वाले आवेदन न करें। लेकिन विज्ञापनों का कोई असर नहीं हुआ। फिल्म में लड़की के रोल के लिए कोई नहीं आया। इसके बाद दादा को पता चला कि समाज में लोग फिल्मों में काम करना वेश्यावृत्ति जैसा समझते है। लेकिन दादा (Dadasaheb Phalke) की कोशिश जारी रही एक दिन दादा साहब एक ढाबे पर चाय पी रहे थे उसी दौरान उनकी नजर ढाबे पर का करने वाले बावर्ची पर पड़ी। बावर्ची की चाल-ढाल एकदम महिलाओं जैसी थी फिर क्या दादा साहेब (Dadasaheb Phalke) ने उस बावर्ची को राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामति का रोल अदा करने के लिए मना लिया। उस दौर में बावर्ची अन्ना को ढाबे में महीने के 10 रुपए मिलते थे, लेकिन दादा ने इन्हें 15 रुपए महीना देने का बादा किया।
7 महीने में तैयार हुई राजा हरिश्चंद्र
उस दौर में फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने में 15 हजार रूपये खर्च हुए थे। फिल्म 7 महीने में बनकर तैयार हो गई थी। फिल्म की कहानी, डायरेक्शन, एडिट से लेकर सब कुछ उन्होंने किया। फिल्म 40 मिनट की थी। फिल्म को 3 मई 1913 को गिरगांव के कोरोनेशन सिनेमा में रिलीज की गई। राजा हरीश्चंद्र भारात की पहली फिल्म थी। पहले दिन फिल्म ने महज 3 रुपए कमाए, जबकि टिकट का दाम 4 आना था। फिल्म की कमाई देश्ख थिएटर का मालिक नाराज हो गया। थिएटर मालिक ने दादा से कहा कि या तो वह फिल्म उतार दे या फिल्म की लेंथ बढाएं या फिर तीसरा टिकट के दाम और कम कर दिए जाएं। लेकिन दादा (Dadasaheb Phalke) राजी नहीं हुए। इसके बाद दादा ने अखबारों में कए विज्ञापन दिया जिसमें लिखा था 57 हजार फोटो एक साथ देखिए, जिसकी एक रील दो किलोमीटर लंबी है। इसके बाद फिल्म की कमाई 300 रुपए तक जा पहुंची। जब फिल्म की लागत नहीं निकली तो उनकी मदद के लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक आगे आए। तिलक ने लोगों से अपील की कि वे ये फिल्म देखें। उनके कहने भर से सिनेमाघर में भीड़ टूट पड़ी। कुछ ही दिनों में फिल्म की लागत निकल गई और फायदा भी हुआ। इसके बाद उन्होंने अपनी अगली फिल्म लंका दहन बनाना शुरू किया। इसके बाद दादा (Dadasaheb Phalke) ने 1918 में कृष्ण जन्म फिल्म बनार्द जिसमें भगवान कृष्ण की लीलाओं को दिखाया गया। इस फिल्म से उन्हें करीब 3 लाख रुपए की कमाई हुई। बताया जाता है कि इस फिल्म के कलेक्शन से सिनेमाघरों में सिक्कों का ढेर लग जाता था, जिन्हें टाट की बोरियों में भर कर बैलगाड़ी से फाल्के के ऑफिस ले जाया जाता था।
73 साल की उम्र में हुआ निधन
73 साल की उम्र में 16 फरवरी 1944 को दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) का निधन हो गया। लेकिन भारतीय फिल्मों को दुनिया में लाने वाले दादा साहेब को उस समय तक कोई बड़ा सम्मान या पुरस्कार नहीं मिला था, क्योंकि उस समय तक भारत में ब्रिटिश राज था। 1969 में दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) के ऐतिहासिक योगदान के लिए भारत सरकार ने उनके सम्मान में सबसे प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड की शुरुआत की। फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन सिनेमा कही जाने वाली देविका रानी को पहली बार इस अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।