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Brahmin in MP Politics: एमपी की राजनीति में क्यों घट रही ब्राह्मणों की वजनदारी, छत्तीसगढ़ का अलग होना या कोई और है वजह

Rahul Sharma by Rahul Sharma
May 10, 2024-8:59 AM
in सागर
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हाइलाइट्स

  • 1980 के पहले तक एमपी की राजनीति में ब्राह्मण चेहरे ज्यादा
  • मंडल कमीशन आने के बाद भागीदारी कम होती चली गई
  • अब राजनीतिक पार्टियों में पिछड़ों के हितैषी बनने की होड़

Brahmin in MP Politics: ब्राह्मणों के आराध्य देव भगवान परशुराम की 10 मई को जयंती (Parshuram Jayanti)  है। इस लेख में हम बात करते हैं मध्यप्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों के दखल की।

प्रदेश की राजनीति में एक समय ऐसा था जब ब्राह्मण ही इसका केंद्र बिंदु था या यूं कहें कि ब्राह्मणों का वर्चस्व (Role of Brahmin in MP Politics) हुआ करता था, लेकिन आज स्थिति इसके उलट है।

ब्राह्मणों की संख्या और रसूख दोनो में कमी आई है। क्या इसकी वजह छत्तीसगढ़ गठन के बाद बड़े ब्राह्मण नेताओं का मध्यप्रदेश से पलायन था या कोई और भी वजह थी। चलिए सिलसिलेवार समझते हैं…

34 साल, पांच सीएम और 20 साल का शासन

1 नवंबर 1956 में मध्य प्रदेश राज्य के गठन के बाद साल 1990 तक पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने लगभग 20 वर्षों तक शासन किया।

राज्य के पहले मुख्यमंत्री कांग्रेस के पंडित रविशंकर शुक्ल थे जबकि कांग्रेस के ही श्यामा चरण शुक्ल वर्ष 1990 में ब्राह्मण समाज से आने वाले प्रदेश के आखिरी मुख्यमंत्री थे।

इस बीच में कांग्रेस के कैलाश नाथ काटजू और द्वारका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री (Role of Brahmin in MP Politics) रहे।

वहीं 1977 में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व करने वाले जनसंघ के नेता कैलाश चंद्र जोशी ने मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश की बागडोर थामी।

शुरुआती दौर में ब्राह्मणों के वर्चस्व की यह रही वजह

शुरुआती दौर में ब्राह्मणों के वर्चस्व की एक वजह देश की आजादी से जुड़ी हुई है। स्वतंत्रता की लड़ाई में ब्राह्मणों की भूमिका (Brahmin in MP Politics) अहम रही।

साल 2013 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में ग्वालियर स्थित जीवाजी राव विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के अध्यापक प्रोफेसर एपीएस चौहान ने बताया था कि स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल ज्यादातर लोग गांव के स्तर पर शिक्षक थे।

उस समय ज्यादातर ब्राह्मण ही पढ़े लिखे होते थे। जब आजादी आई तो उन लोगों को नेतृत्व मिलना स्वाभाविक था।

ब्राह्मणों के वर्चस्व का स्वर्णिमकाल

साल 1957 से 1967 तक कांग्रेस के आधे से ज्यादा विधायक उच्च जाति के होते थे और उनमें से भी 25 फीसदी से ज्यादा अकेले ब्राह्मण (Brahmin in MP Politics) थे।

Brahmin in MP Politics: एमपी की राजनीति में क्यों घट रही ब्राह्मणों की वजनदारी, छत्तीसगढ़ का अलग होना या कोई और है वजह#brahmins #MPPolitics #MPNews #LordParshuramJayanti #ParshuramJayanti @jitupatwari @OfficeOfVDS @kharge @JPNadda

पूरी खबर पढ़ें : https://t.co/iWjksmBGJO pic.twitter.com/fYlFCK8HSn

— Bansal News (@BansalNewsMPCG) May 10, 2024

वर्ष 1967 में 33 फीसदी विधायक ब्राह्मण समाज से थे। श्यामा चरण शुक्ल जब 1969 में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो उनके 40 मंत्रियों में से 23 ब्राह्मण थे।

शुरुआत में ब्राह्मण नेतृत्व को इसलिए नहीं मिली चुनौती

शुरुआती दौर के ब्राह्मण नेताओं ने सभी वर्गों को साथ लेकर सर्वांगीण विकास की बात की। इसलिए उनके नेतृत्व को किसी ने चुनौती नहीं दी।

अटल बिहारी वाजपेयी केवल मध्य प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे भारत में ब्राह्मणों के सबसे बड़े चेहरे के रूप में उभरे, लेकिन उन्होंने कभी भी जाति के आधार पर ब्राह्मणों को आगे नहीं बढ़ाया।

इधर 1980 के बाद सामंतशाही ने ब्राह्मण नेतृत्व (Brahmin in MP Politics) को आगे नहीं बढ़ने दिया।

1980 के बाद जातिगत राजनीति का बोलबाला

देश में 1980 के दशक के बाद जातिगत राजनीति का बोलबाला हो गया। 1989 में बीवी सिंह सरकार के समय आए मंडल कमीशन ने इसे और हवा दी।

राजनीतिक विश्लेषक जयराम शुक्ल कहते हैं कि मंडल कमीशन के बाद देश में खासकर हिंदी बेल्ट के राज्यों में पिछड़ों की राजनीति से जोर पकड़ लिया।

जिससे धीरे-धीरे राजनीति में ब्राह्मणों का दखल (Brahmin in MP Politics) कम होता गया। इससे मध्यप्रदेश भी अछूता नहीं रहा।

इस तरह राजनीति में शुरु हुआ पतन

बीबीसी में दिये एक इंटरव्यू में रीवा स्थित एपीएस विश्वविद्यालय में इतिहास के अध्यापक रह चुके प्रोफ़ेसर सरकार ने बताया था कि 80 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने श्यामा चरण शुक्ल के कद को छोटा करने के लिए मोतीलाल वोरा और सुरेश पचौरी जैसे ब्राह्मण नेताओं को आगे बढ़ाने की कोशिश की।

1985 में जब अर्जुन सिंह पंजाब के राज्यपाल बनाए गए तो वोरा को मुख्यमंत्री बना दिया गया। वोरा एक राजस्थानी ब्राह्मण (Brahmin in MP Politics) थे जिनका MP में कोई बड़ा जनाधार नहीं था।

अर्जुन सिंह ने ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को कम करने के लिए एक तरफ़ तो नए ब्राह्मण नेताओं को बढ़ावा दिया दूसरी तरफ़ ठाकुरों और आदिवासी तथा पिछड़े वर्गों का राजनीतिक गठजोड़ बनाया।

मध्यप्रदेश के विभाजन ने कर दी कसर पूरी

साल 2000 में छत्तीसगढ़ के मध्यप्रदेश से अलग राज्य बन जाने के कारण मोतीलाल वोरा और शुक्ल बंधु छत्तीसगढ़ चले गए।

जिसके कारण मध्यप्रदेश में ब्राह्मण नेताओं के दबदबे में और कमी आ गई। अर्जुन सिंह ने सुरेश पचौरी को आगे जरुर बढ़ाया लेकिन वो हमेशा राज्य सभा के माध्यम से केंद्र की राजनीति करते रहे।

तीन दशक से ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं

तीन दशकों से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी मध्यप्रदेश में हालत ये है कि कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री (Role of Brahmin in MP Politics) नहीं बन सका है।

Brahmin-in-MP-Politics-Rajeev-Sharma

पूर्व IAS और विचारक राजीव शर्मा बताते हैं कि एमपी में सांसद हो या विधायक…ब्राह्मण जन प्रतिनिधि की संख्या लगातार घटी (Brahmin Participation Less in MP Politics) है।

बीजेपी सरकार की मौजूदा कैबिनेट में ब्राह्मण विधायक और कांग्रेस की प्रथम पंक्ति में मिली ब्राह्मणों को जिम्मेदारी का जब हम आंकलन करते हैं तो पता चलता है कि दल चाहे कोई भी हो ब्राह्मण आज राजनीति में हाशिये पर ही दिखाई देता है।

जातिगत आरक्षण से जुड़ी राजनीति

ब्रिटिश शासन के बाद से अभी तक देश में जातिगत जनगणना नहीं हुई। बावजूद इसके देश में सबसे ज्यादा ओबीसी की हिस्सेदारी मानते हुए ओबीसी की भागीदारी के विचार ने जोड़ पकड़ लिया।

Brahmin-in-MP-Politics-Jayram-Shukl

राजनीतिक पार्टियों में एक स्पर्धा शुरु हुई कि इस वर्ग का कौन बड़ा हितैषी है। राजनीतिक विश्लेषक जयराम शुक्ल हकीकत को इससे उलट मानते हैं।

जयराम शुक्ल के अनुसार सुप्रीम कोर्ट तक में भी आज तक तथ्यात्मक रूप से ऐसा कोई आंकड़ा प्रस्तुत नहीं हुआ है जिससे ये पता चल सके कि किस जाति की देश में कितनी जनसंख्या है।

संबंधित खबर: Parshuram Jayanti: …तो मानवीय संघर्ष की गाथा परशुराम से शुरू होती, फ्रांसीसी क्रांति से नहीं

राहुल का जातिगत जनगणना एमपी में मुद्दा नहीं

कांग्रेस लीडर राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में जातिगत जनगणना (Caste Census) को मुद्दा बनाया, लेकिन ये मध्यप्रदेश में मुद्दा ही नहीं बन सका।

लोकसभा चुनाव में प्रदेश कि किसी भी सीट पर जातिगत जनगणना को लेकर कांग्रेस फ्रंट लाइन पर नहीं दिखी। राजनीतिक पंडितों की मानें तो इसे लेकर खुद कांग्रेस में दो विचारधारा रही।

हालांकि प्रदेश में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण (OBC Reservation) देने का काम कमलनाथ सरकार में हुआ। ये बात और है कि लोगों ने इसे कोर्ट में चैलेंज कर दिया।

ये भी पढ़ें: Parshuram Jayanti: सदियों पहले इतने आधुनिक थे ब्राह्मणों के मकान, देखें भोपाल का आदिगौड़ ब्राह्मणों का पालीवाल आवास

क्या कहते हैं आंकड़े

मोहन कैबिनेट में 11 मंत्री ओबीसी वर्ग से हैं

शिवराज कैबिनेट में 12 मंत्री इसी वर्ग से थे

कमलनाथ सरकार में यह आंकड़ा 7 का था

मोदी सरकार में 27 मंत्रियों का संबंध इसी वर्ग से

बीजेपी ने भी की रिझाने की कोशिश

मध्यप्रदेश शासन द्वारा 13 मार्च 1993 को राज्य स्तरीय मध्यप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (Madhya Pradesh State Backward Classes Commission) का गठन किया गया, जिसकी अधिसूचना क्रमांक एफ-12-21-पच्चीस-4-92, मध्यप्रदेश राजपत्र दिनांक 15 मार्च 1993 में प्रकाशित की गई।

हालांकि आयोग के कार्य कभी धरातल पर नहीं दिखे। ओबीसी को रिझाने में बीजेपी भी पीछे नहीं रही। शिवराज सरकार में बीजेपी ने नई शक्तियों के साथ प्रदेश में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग में संशोधन किया।

मध्यप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (संशोधन) अधिनियम, 2021 से दिनांक 03 अप्रैल 2021 को मध्यप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम, 1995 में संशोधन किया गया।

Rahul Sharma

Rahul Sharma

16 वर्षों से अधिक के समृद्ध अनुभव वाले अनुभवी पत्रकार राहुल शर्मा ने मीडिया की दुनिया में एक महत्वपूर्ण पहचान बनाई है। 2008 से 2024 तक के उनके सफर ने उन्हें दैनिक भास्कर, जागरण, नवदुनिया, हरिभूमि और द सूत्र जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में अपनी विशेषज्ञता का योगदान देते हुए देखा है। वर्तमान में बंसल न्यूज डिजिटल में डिप्टी न्यूज एडिटर के रूप में कार्यरत राहुल खोजी पत्रकारिता और पर्यावरण से जुड़ी खबरों के लिये भी जाने जाते हैं। राहुल राष्ट्रीय कवि पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की जन्मस्थली से आते हैं। कुछ पुस्तकें प्रकाशित कर चुके हैं। उनके इस सफर में कुछ सम्मान भी उन्हें मिले हैं।

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