हाइलाइट्स
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कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा महासंग्राम
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कवासी लखमा या महेश कश्यप
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अगले 5 साल के लिए बस्तर का कौन होगा बॉस
बस्तर लोकसभा सीट: छत्तीसगढ़ के दक्षिणी छोर में स्थित बस्तर अपार खनिज संपदा से भरा हुआ है. चारों तरफ जंगल और पहाड़ों से घिरा यह जिला नक्सलियों का गढ़ है. छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) के पहले चरण में सिर्फ बस्तर का रण होना है. यहां से कांग्रेस ने आदिवासी नेता कवासी लखमा (Kawasi Lakhma) को प्रत्याशी बनाया है. तो वहीं बीजेपी ने महेश कश्यप (Mahesh Kashyap) पर दांव खेला है. 19 अप्रैल को मतदाता कवासी लखमा और महेश कश्यप के भाग्य का फैसला कर देंगे. ऐसे में समझते हैं कि बस्तर की जनता इस बार किसका साथ देगी. क्या है बस्तर का इतिहास और क्या है सीट का जातीय समीकरण…
साल 1996 तक निर्दलीय उम्मीदवार जीतते रहे
बस्तर (बस्तर लोकसभा सीट) से मौजूद सांसद पीसीसी चीफ दीपक बैज हैं. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद दीपक बैज ने यहां (Bastar Lok Sabha Seat) से जीत दर्ज की थी. हालांकि 2023 विधानसभा चुनाव में दीपक बैज चित्रकोट से चुनाव हार गए थे. यह सीट पहली बार साल 1952 में अस्तित्व में आई थी.
1952 लोकसभा चुनाव से लेकर साल 1996 तक इस सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीतते रहे, लेकिन यहां के लोगों ने 1996 में निर्दलीय प्रत्याशी को चुना. वहीं साल 1998 से लेकर 2014 तक इस सीट पर बीजेपी का कब्जा रहा. यह सीट अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षित है.
बस्तर (बस्तर लोकसभा सीट) की जनता आधुनिक दुनिया से दूर होने के बावजूद कितनी जागरूक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में 1952 में हुए पहले चुनाव में कांग्रेस या अन्य दलों को छोड़कर यहां की जनता ने निर्दलीय प्रत्याशी को सांसद बनाकर दिल्ली भेजा था.
पहले आम चुनाव में यहां से निर्दलीय प्रत्याशी मुचाकी कोसा ने जीत हासिल की थी. मुचाकी ने कांग्रेस प्रत्याशी सुरती को करीब डेढ़ लाख मतों से हराया था. सुरती को लगभग 36 हजार वोट मिले थे. निर्दलीय उम्मीदवार मुचाकी कोसा ने 83.05 प्रतिशत वोट की रिकॉर्ड जीत हासिल की थी.
आज तक कोई भी उम्मीदवार इस रिकॉर्ड को तोड़ नहीं पाया है. इसके बाद के इतिहास में अधिकतम वोट कांग्रेस के मनकूराम सोढ़ी के नाम पर है. 1984 के चुनाव में उन्हें 54.66 प्रतिशत वोट मिले थे.
कांग्रेस ने 1980 में निर्दलीय उम्मीदवारों के वर्चस्व को तोड़ा
कांग्रेस ने आदिवासी बाहुल्य बस्तर में निर्दलीय उम्मीदवारों के वर्चस्व को साल 1980 में तोड़ा, लक्ष्मण कर्मा ने 80 के चुनाव में जीतकर कांग्रेस की वापसी कराई. हालांकि यह केवल दो चुनावों तक ही सीमित रहा. निर्दलीय उम्मीदवार महेंद्र कर्मा ने 1991 में फिर कांग्रेस को हराकर जीत दर्ज की थी. इसके बाद 20 सालों तक यहां (Bastar Lok Sabha Seat) पर कमल खिलते रहे.
फिर 2019 के चुनाव में दीपक बैज ने बीजेपी के बैदूराम कश्यप को हराया. बस्तर से लगातार 4 बार 1998 से 2009 तक बलिराम कश्यप सांसद रहे. वहीं बीजेपी के दिनेश कश्यप 2011 और 2014 में यहां से सांसद बने. पिछले डेढ़ दशक तक बस्तर सीट पर कश्यप परिवार का दबदबा रहा.
साल 2014 में BJP प्रत्याशी दिनेश कश्यप ने कुल 3 लाख 85 हजार 829 वोट हासिल कर कांग्रेस उम्मीदवार दीपक कर्मा (बंटी) को हराया था. दीपक कर्मा को 2 लाख 61 हजार 470 वोट मिले थे. कुल वोटों का 33.96 प्रतिशत था. इस सीट पर जीत का अंतर 1 लाख 24 हजार 359 था.
चुनाव में करीब 12 लाख 98083 मतदाता थे. वहीं साल 2009 में बीजेपी उम्मीदवार बलिराम कश्यप ने 2 लाख 49 हजार 373 वोट पाकर कांग्रेस उम्मीदवार शंकर सोढ़ी को हराया था. उन्हें कुल 44.16 प्रतिशत वोट मिले थे. वहीं शंकर सोढ़ी 1 लाख 49 हजार 111 वोट मिले थे. कुल वोटों का 26.4 प्रतिशत था. उस चुनाव में 11 लाख 93 हजार 116 मतदाता थे.
6 बार के विधायक हैं कवासी लखमा
बस्तर सीट से 2024 में कांग्रेस से कवासी लखमा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) लड़ रहे हैं. कवासी लखमा कोंटा सीट 6 बार के विधायक हैं. लखमा शिक्षित तो नहीं हैं, मगर बस्तर की राजनीति को बेहतर ढंग से समझते हैं. उनकी नक्सल प्रभावित अंदरुनी इलाकों में मजबूत पकड़ मानी जाती है. खासकर दंतेवाड़ा, कोंटा और बीजापुर विधानसभा क्षेत्र में लखमा की अच्छी पकड़ है. वहीं नारायणपुर विधानसभा में अबूझमाड़ और चित्रकोट विधानसभा और केशलूर इलाके में भी कुछ हद तक पकड़ है.
कांग्रेस के लिए लखमा बस्तर में एक करिश्माई नेता रहे हैं. कहना गलत नहीं होगा कि पार्टी के सबसे सफल नेता.साल 2013 में झीरमघाटी नक्सल हत्याकांड (Jheeramghati Naxal massacre) के आरोपों लगने के बाद भी वे अपने विरोधियों को पटकनी देते रहे. कोंटा सीट में 13, 18 या फिर 23 का, सभी चुनाव में उनको हारता हुआ दिखाया गया, लेकिन आखिर में जीत लखमा के हिस्से आती रही. उनके इसी जादूगरी को देखते हुए शायद कांग्रेस हाईकमान ने मौजूदा सांसद दीपक बैज को टिकट न देकर लखमा को उम्मीदवार बनाया है.
लखमा कभी ईवीएम लेकर जनता के बीच जाते हैं, तो कभी गोंडी और हल्बी भाषा में आदिवासियों को लोकतंत्र का मतलब समझाते हैं. साथ ही शराब और पैसे की बात कहकर भी रिझाते हैं. लखमा गांव-गांव जाकर मोदी सरकार की नकामी गिना रहे हैं और कांग्रेस के 5 न्याय को भी बता रहे हैं. वादों और दावों के बीच लखमा भाजपा को चकमा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं. आदिवासियों के साथ खाना खा रहे हैं, तो पैर और हाथ जोड़ रहे हैं. इन सब के बावदूज लखमा बस्तर की रेस में अभी पीछे ही नजर आ रहे हैं.
हिंदूवादी संगठन से जुड़े रहे महेश कश्यप
इधर महेश कश्यप (Mahesh Kashyap) सहज-सरल आदिवासी के रूप में जाने जाते हैं. लेकिन अब उनकी छवि क्षेत्र में धर्मांतरण के खिलाफ लड़ने वाले नेता के तौर पर बन चुकी है. महेश का राजनीतिक बैकग्राउंड बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे हिंदूवादी संगठन से रहा है. उन्होंने ग्राम पंचायत सरपंच के रूप में राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की. साथ ही बस्तर में सरपंच संघ के अध्यक्ष भी रहे.
बाद में बीजेपी संगठन में पदाधिकारी बने. लेकिन कश्यप धर्मांतरण के मुद्दे पर एक आंदोलनकारी नेता के तौर पर जाने गए. वे बस्तर सांस्कृतिक सुरक्षा मंच के संयोजक भी हैं. उन्होंने इसी मंच के बैनर तले आदिवासियों के बीच रीति-रिवाज, जनजाति संस्कृति, धर्म-कर्म, परंपरा, हिंदुत्व और धर्मांतरण को लेकर सक्रिय हैं.
2023 विधानसभा चुनाव में बस्तर सीट से उनके नाम की भी चर्चा थी, हालांकि चर्चा को विराम लोकसभा चुनाव-2024 में लगा है. हालांकि महेश कश्यप कवासी लखमा की तरह चुनावी चर्चाओं में नहीं हैं. प्रत्याशी के प्रचार से ज्यादा पार्टी के प्रचार की चर्चा है. चर्चा में पीएम मोदी और सीएम साय हैं.
बस्तर सीट पर अन्य 9 और उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे
बस्तर में बहुजन समाज पार्टी के आयतू राम मंडावी, हमरराज पार्टी के नरेंद्र बुरका, राष्ट्रीय जनसभा पार्टी के कवल सिंह बघेल, सीपीआई के फूलसिंग कचलाम, सर्व आदि दल के शिवराम नाग, गोड़वाना गणतंत्र पार्टी के टीकम नागवंशी, आजाद जनता पार्टी के जगदीश प्रसाद नाग, स्वंतत्र दल के प्रकाश कुमार गोटा और निर्दलीय से सुंदर बघेल भी चुनाव लड़ रहे हैं.
बस्तर का जातीय समीकरण
बस्तर में भतरा और गोंड समुदायों का खासा प्रभाव रहा है. इसके साथ ही हल्बा और अन्य आदिवासी जातियों की भी यहां मौजूदगी है. लेकिन पूरी राजनीति मुख्य रूप से भतरा आदिवासियों के इर्द गिर्द ही घूमती रहती है. बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर और आसपास के क्षेत्र में भतरा जनजाति के लोग रहते हैं. भानपुरी के बलीराम कश्यप का परिवार भी भतरा समुदाय से हैं.
लेकिन आदिवासियों के बीच राजनीतिक विभाजन नहीं है. बस्तर में भतरी, गोंडी, हल्बी, दोरली, धुरवी, परजी आदि बोलियां बोली जाती हैं. सुकमा, बीजापुर, दंतेवाड़ा और अबूझमाड़ चारों जगह की गोंडी में अंतर है. आंध्र या तेलंगाना से सटे बीजापुर और सुकमा के इलाकों में दोरली बोली जाती है. यहां से इन जातियों के साधने पर ही जीत संभव हो पाता है.
बस्तर में महिलाओं की आबादी पुरुषों से ज्यादा
बस्तर लोकसभा में टोटल 8 विधानसभा की सीटें हैं. जिनमें जगदलपुर, बस्तर, चित्रकोट, कोंडागांव, नारायणपुर, बीजापुर, कोंटा और दंतेवाड़ा शामिल हैं. इन सभी विधानसभा सीटों में कुल 14 लाख 66 हजार 337 मतदाता हैं. जिनमें महिला मतदाता- 7 लाख 68 हजार 88 व पुरूष मतदाता- 6 लाख 98 हजार 197, तो वहीं थर्ड जेंडर के 50 से अधिक मतदाता हैं. बता दें कि बस्तर में महिलाओं की आबादी पुरुषों से ज्यादा है. मतदान में महिलाओं की भागीदारी भी ज्यादा रहती है. इसके बावजूद यहां की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम रही है. लोकसभा में राष्ट्रीय पार्टियों ने भी महिलाओं को आगे नहीं किया. लोकसभा के 18 चुनाव अब तक हो चुके हैं. लेकिन अभी तक एक भी महिला बस्तर से सांसद नहीं बन पाई हैं.
4 जून को आएंगे परिणाम
गर्मी के साथ लगातार चुनावी तापमान भी बढ़ रहा है. जिसका असर कहीं जुबान फिसलने तो कहीं हाथों से नोट निकलने के रूप में दिख रहा है. इन गलतियों को दोनों तरफ से लपका जा रहा है. बस्तर में बीजेपी विकास के एजेंडे के साथ मैदान में है. तो कांग्रेस मोदी की गारंटी के फेल हो जाने को मुद्दा बना रही है. 19 अप्रैल को मतदाता कवासी लखमा और महेश कश्यप के भाग्य का फैसला कर देंगे. 4 जून को पता चल जाएगा कि अगले 5 साल के लिए बस्तर का बॉस कौन होगा.
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