जगदलपुर से रजत वाजपेयी की रिपोर्ट। बस्तर का दशहरा पर्व देश भर में प्रशिद्ध है। जिसे देखने के लिए भारी संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं। 75 दिनों तक चलने वाले इस पर्व के दौरान लोगों विभिन्न रस्में निभातें हैं। साथ ही इसमें एक विशाल रथ का निर्माण करने की परंपरा है।
बता दें कि रथ निर्माण का बेड़ाउमरगांव और झारउमरगांव के ग्रामीण करते हैं। जिसकी कला किसी तकनीकी विश्वविद्यालय के प्रमाण पत्र की मोहताज नहीं है। हर साल नया रथ बनाया जाता है।
8 चक्कों का होता है विजय रथ
एक साल 4 चक्कों वाला तो दूसरे साल 8 चक्कों वाले रथ का निर्माण होता है। 4 चक्कों वाला फूलरथ कहलाता है, तो 8 चक्कों वाला विजय रथ कहलाता है।
रथ निर्माण में लगे ग्रामीणों को नाममात्र का पारिश्रमिक दिया जाता है। वे रथ बनाने का काम पारिश्रमिक के लिए नहीं, बल्कि बस्तर की आराध्या मां दंतेश्वरी के प्रति समर्पित भक्ति भावना से करते हैं।
सहयोग, श्रम, सहकार और सामाजिक सरोकार की अनुभूति से ओत-प्रोत बस्तर दशहरा रथ का निर्माण वास्तव में एक कर्मयज्ञ है। गीता का यह श्लोक वस्तुतः यही दर्शाता है: कर्मण्यवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन।
ये लाते हैं लकडियां
रथ निर्माण के लिए जंगल से लकड़ी लाने से लेकर रथ में चढ़ने के लिए सीढ़ी बनाने तक की जिम्मेदारी विभिन्न ग्रामों के ग्रामीणों व्दारा समयावधि के भीतर हर स्थिति में पूरी कर ली जाती है।
रथ के विशालकाय चक्कों के निर्माण के लिए पाटा लकड़ी ग्राम उलनार, टलनार, चितालूर, नानगूर, बिलोरी, पदमूर, साड़गुड़ और नगरनार के ग्रामीण लाते हैं। मंगरमुंही लंबी और मोटी लकड़ी, जिसे रथ का चेसिस भी कहा जा सकता है।
क्या है नार फोड़नी रस्म?
लकड़ी को लाने की जिम्मेदारी अलग-अलग गांव के लोगों होती है। रथ के चक्के जब बन जाते हैं, तब उनके बीचोंबीच छेद करने की प्रक्रिया को नार फोड़नी रस्म कहा जाता है।
रथ निर्माण की विभिन्न प्रक्रियाओं की शुरूआत पूजा-आराधना और विधान के साथ की जाती है। निर्माण के पूर्व बारसी उतारनी यानी रथ बनाने के औजारों की पूजा होती है।
मंगरमुंही और नारफोड़नी रस्म के पहले भी पूजा-अर्चना कर बकरे और मोंगरी मछली की बलि दी जाती है। लोग वर्षों से रथ निर्माण के कार्य में निःस्वार्थ भावना से लगे हैं। वहीं रथ निर्माण के दौरान बचने बचने वाली लकडियां होम- हवन के काम उपयोग की जाती हैं।
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