हाइलाइट्स
- पत्नी-पत्नी के विवाद में सबूत को लेकर हाईकोर्ट का फैसला।
- कोर्ट में व्हाट्सएप चैट जैसे डिजिटल सबूत मान्य हो सकते हैं।
- हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट से पारित आदेश को रखा बरकरार।
Gwalior High Court WhatsApp chat evidence verdict: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ (Gwalior High Court) ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि व्हाट्सएप (WhatsApp) जैसी निजी चैट्स को पारिवारिक न्यायालय (Family court) में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, भले ही वे बिना सहमति के प्राप्त की गई हों। न्यायालय ने यह निर्णय पारिवारिक न्यायालय अधिनियम की धारा 14 के तहत लिया, जो पारिवारिक मामलों में साक्ष्य की स्वीकार्यता को विस्तारित करता है। अदालय ने यह फैसला एक महिला की याचिका पर सुनाया है जिसमें पारिवारिक न्यायालय के आदेश को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट से पारित आदेश को बरकरार रखा है।
जस्टिस आशीष श्रोती की टिप्पणी
जस्टिस आशीष श्रोती (Justice Ashish Shroti) ने अपने आदेश में कहा, “चूंकि हमारे संविधान के तहत कोई भी मौलिक अधिकार पूर्ण नहीं है, इसलिए जब दो मौलिक अधिकारों में टकराव हो-जैसे कि इस मामले में निजता का अधिकार और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार, जो दोनों अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आते हैं, तो निजता का अधिकार निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के सामने झुक सकता है।”
जस्टिस आशीष श्रोती आगे कहा कि विधायिका, साक्ष्य की स्वीकार्यता के सिद्धांतों से पूरी तरह अवगत रहते हुए, धारा 14 को इस उद्देश्य से लाई है कि विवाह और पारिवारिक मामलों से जुड़े विवादों में साक्ष्य के सिद्धांतों का विस्तार किया जा सके। परिवार न्यायालय को इस प्रकार साक्ष्य कानून की कड़ाई से मुक्त कर दिया गया है। धारा 14 के तहत केवल यही देखा जाता है कि प्रस्तुत किया गया साक्ष्य न्यायालय की दृष्टि में विवाद के समाधान में सहायक है या नहीं, चाहे वह साक्ष्य वैध रूप से प्राप्त किया गया हो या नहीं।”
जानें पूरा मामला….
दरअसर, पति और पत्नी के विवाद में पत्नी ने हाईकोर्ट में फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी, इस आदेश में पति को उसके (पत्नी) के मोबाइल के व्हाट्सएप चैट (WhatsApp chat) को बतौर सबूत के रूप में पेश करने की अनुमति दी गई थी, ताकि उस पर व्यभिचार (अवैध संबंध) के आरोप सिद्ध हो सके। इसके बाद महिला की याचिका पर अदालत ने फैसला सुनाया है।
पत्नी की व्हाट्सएप चैट्स को बनाया साक्ष्य
इस मामले में पति का कहना था कि उसने पत्नी के मोबाइल फोन में एक विशेष प्रकार का ऐप इंस्टॉल किया था, जिसके माध्यम से उसकी (पत्नी) की व्हाट्सएप चैट्स खुद भले ही पति के फोन पर फॉरवर्ड हो जाती थीं। उन चैट्स (WhatsApp evidence) से यह स्पष्ट होता है कि पत्नी के किसी अन्य व्यक्ति से शादी से पहले से ही संबंध थे।
पत्नी- साक्ष्य गैरकानूनी, यह स्वीकार नहीं
पत्नी की ओर से पेश एडवोकेट ने दलील दी कि पति ने पत्नी की परमिशन के बगैर उसके मोबाइल में एप्लिकेशन इंस्टॉल किया था, जो अवैध है और यह निजता के अधिकार का उल्लंघन है। महिला की ओर से आगे दलील में बताया कि यह साक्ष्य गैरकानूनी तरीके से प्राप्त किए गए हैं, इस स्थिति में ऐसा साक्ष्य स्वीकार्य नहीं है। साथ ही पति को इस पर भरोसा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
डिजिटल चैट बन सकते हैं सबूत
पति की ओर से पेश वकील ने अदालत को बताया कि प्रस्तुत व्हाट्सएप चैट पत्नी पर अवैध संबंध (व्यभिचार) का आरोप सिद्ध करने के लिए प्रासंगिक (Relevance) हैं। उन्होंने परिवार न्यायालय अधिनियम की धारा 14 का हवाला देते हुए कहा कि परिवार न्यायालय उस सामग्री को सबूत के रूप में स्वीकार कर सकती है, जो मामले के निपटारे के लिए प्रासंगिक हो, चाहे वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत स्वीकार्य न हो।
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कोर्ट का क्या कहना है?
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद, कोर्ट ने उस आदेश की वैधता को परखा जिसमें पत्नी की व्हाट्सएप चैट को सबूत के रूप में पेश करने की अनुमति दी गई थी। यह जांच मुख्य रूप से इस आधार पर की गई कि यह साक्ष्य कितना स्वीकार्य है, और इसमें परिवार न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 14 और 20 को विशेष रूप से ध्यान में रखा गया।
- परिवार न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 14
- (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का प्रयोग)
- धारा 20 (अधिनियम का सर्वोच्च प्रभाव)
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इन धाराओं के तहत डिजिटल या डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य को सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि वे भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत मान्य नहीं हैं। परिवार न्यायालय के लिए सबसे अहम बात यह है कि वह साक्ष्य विवाद सुलझाने में मददगार है या नहीं। यदि कोर्ट को लगता है कि यह साक्ष्य मामले के हल में सहायक है, तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।
कोर्ट ने यह भी कहा…
- सिर्फ साक्ष्य को रिकॉर्ड में लेना, किसी विवादास्पद तथ्य या प्रासंगिक तथ्य के सिद्ध होने का प्रमाण नहीं होता।
- ‘प्रासंगिकता’ की कसौटी यह सुनिश्चित करती है कि किसी पक्ष को साक्ष्य प्रस्तुत करने और इस प्रकार निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार छीना न जाए।
- सिर्फ इसलिए कि न्यायालय किसी साक्ष्य को स्वीकार कर रही है, इसका अर्थ यह नहीं कि जिसने वह साक्ष्य अवैध रूप से प्राप्त किया है, वह नागरिक या आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है।
- ऐसे साक्ष्य को सावधानी और सतर्कता के साथ स्वीकार और मूल्यांकित किया जाना चाहिए, और किसी भी तरह की छेड़छाड़ की संभावना को समाप्त करना आवश्यक है।
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