Bhopal Gaurav Divas: 1 जून – भोपाल विलीनीकरण दिवस उर्फ़ “भोपाल गौरव दिवस” पर भोपाल विलीनीकरण की 76वीं वर्षगांठ पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। पूर्व रियासत भोपाल की युवा शक्ति द्वारा “नई राह” के बिगुल से अभूतपूर्व विलीनीकरण आन्दोलन और तिरंगा फहराने पर शहादत के द्वारा देश को एक और विभाजन से बचाने के बाद, बाकि देश की आजादी से लगभग 2 बरस बाद भोपाल को आजादी नसीब हो सकी थी। परन्तु इस गौरव गाथा के स्वर्णिम इतिहास को विस्मृत कर दिया गया। भोपाल गौरव दिवस हमारे बलिदानियों का श्रद्धापूर्वक स्मरण का दिवस है।
तालाबों-सूकून के शहर भोपाल 1 जून 1949 को बना था भारत का हिस्सा, भोपाल है “इतिहास से भविष्य तक की राजधानी” देखिए ‘कमाल का भोपाल’ डॉक्यूमेंट्री का ट्रेलर#AIcapital #BhopalGauravDiwas #GauravDiwas #CREDAI #Bhopal #कमाल_का_भोपाल @CREDAINational pic.twitter.com/lfJ3gHs1KE
— Bansal News Digital (@BansalNews_) June 1, 2025
भोपाल को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे नवाब
हम सभी जानते हैं कि हमारा देश 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ, लेकिन इस अनोखे ऐतिहासिक तथ्य से आज की पीढ़ी अनभिज्ञ है कि तत्कालीन पूरे भोपाल राज्य में राष्ट्रीय तिरंगा लगभग 2 साल बाद 1 जून 1949 को फहराया जा सका था, वह भी राज्यव्यापी विलीनीकरण जन-आंदोलन और अनेकों शहीदों की कुर्बानियों के बाद ऐसा संभव हुआ था। स्वतंत्रता की पूर्व बेला में ही सारे देश में बिखरी 584 रियासतों में से अधिकांश सरदार पटेल के भागीरथ प्रयास से स्वतंत्र भारत का हिस्सा बन चुकी थीं, पर निजी स्वार्थ और जिन्ना के बहकावे में जूनागढ़, भोपाल, हैदराबाद, त्रावणकोर आदि कुछ रियासतों को मिलाते हुये हमारे देश का महत्वपूर्ण मध्य-पश्चिमी भाग पूरी फांक की शक्ल में आजाद भारत का अंग बनने की बजाय अलग रहते हुए पाकिस्तान की थाली में परोसे जाने को आतुर था।
इस पृथकतावादी साजिश की अगुवाई कर रहे थे पाकिस्तान के जनक जिन्ना के परम मित्र भोपाल नवाब हमीदुल्ला खां – जिन्हें जिन्ना पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बना दिए जाने का भी लालच दे चुके थे। अंग्रेजों के चाटुकार और स्वतंत्रता आंदोलनों के विरोधी देसी रियासतों के संगठन चेम्बर ऑफ प्रिंसेस के दो बार चांसलर रहे भोपाल नवाब का बाकी राजे-राजवाड़ों पर भी प्रभाव था। देश के शीर्षस्थ नेताओं गांधी, पंडित नेहरू आदि सहित माउंटबैटन से भी उनके संबंध मधुर होने के कारण सरदार पटेल भी इस मसले की गंभीरता के बावजूद लाचार थे।
भोपाल रियासत के कई आजन्म विरोधी रहे वरिष्ठ नेताओं तक को नवाब अपने प्रभावाधीन कर चुके थे। ऐसे में सरदार पटेल की प्रेरणा और आशीर्वाद से भोपाल रियासत के ही शिक्षित देशभक्त नवयुवकों ने भोपाल को तीसरा पाकिस्तान बनाये रखने की साजिश को नाकाम कर आजाद भारत का अंग बनाने का प्रण किया।
भोपाल रियासत के अब तक के सर्वाधिक प्रबल आंदोलन, जिसे ‘विलीनीकरण आंदोलन’ (मर्जर मूवमेंट) के नाम से जाना जाता है- का नेतृत्व साहित्य, पत्रकारिता, शिक्षा और विलीनीकरण के संदर्भ में विलीनीकरण के प्रणेता और जिंदा शहीद के रूप में जाने वाले भाई रतनकुमार ने किया।
‘‘ खींचों न कमानों को न तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो “
अकबर इलाहाबादी के इस मशहूर शेर की तर्ज पर उन्होंने अखबार “नई राह” को इस आंदोलन का मुखपत्र बनाकर पूरी रियासत के कोने-कोने में जन-जागृति की चिंगारी को ऐसा पहुंचाया कि पूरी रियासत सदियों की गुलामी की जंजीरें राख कर देने को धधक उठी।
अधिकांश आंदोलनकारियों को बन्दी बना लिये जाने के बावजूद समर्पित आंदोलनकारियों ने भूमिगत रहते हुए तथा महिला संगठनों और बाल संगठनों की गतिविधियों द्वारा आंदोलन को पूर्णतया जीवन्त और गतिमान बनाये रखा।
आंदोलन के केंद्र जुमेराती भोपाल स्थित “रतन कुटी”, जो कि ‘‘नई राह” का कार्यालय भी था, को नवाबी कुशासन द्वारा सील कर दिये जाने के बावजूद होशंगाबाद से प्रवासी और भूमिगत आंदोलन केंद्र संचालित होता रहा और ‘‘नई राह” पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के खण्डवा स्थित कर्मवीर प्रेस से प्रकाशित होकर प्रसारित होता रहा।
पूरी रियासत में व्यापारियों द्वारा लगभग एक माह अभूतपूर्व हड़ताल रखकर प्रत्येक प्रकार की व्यावसायिक गतिविधियां पूर्ण रूप से ठप्प कर दी गईं।
नवाबी रियासत में तिरंगा फहराना था अपराध
भोपाल रियासत में ही नर्मदा किनारे बोरास घाट पर मकर संक्रांति के परंपरागत मेले में तिरंगा झण्डा फहराते हुए 6 नवयुवकों को नवाबी पुलिस ने सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया। रियासत में अन्य स्थानों पर भी शहादतें हुईं। नवाबी रियासत में राष्ट्रीय तिरंगा फहराना इतना बड़ा, दुर्दान्त अपराध हुआ करता था। स्वतंत्रता के वैधानिक अधिकार को कुचलने के इस बर्बरतापूर्ण खूनी कारनामे के विरूद्ध व्यापक आक्रोश की गूंज उठी। सरदार पटेल को आखिरकार हस्तक्षेप करने का अवसर मिला, तब जाकर सदियों से दोहरी गुलामी में दबी, दासानुदास भोपाल रियासत स्वतंत्र भारत में विलीन होकर देश की मुख्यधारा का अंग बन सकी।
1 जून 1949 को फहराया तिरंगा
30 अप्रैल 1949 के दिन विलय समझौता हुआ। स्वतंत्र भारत में विलीन होने वाली इस आखिरी रियासत में अंततः 1 जून 1949 को पहली बार आजाद भारत का आजाद तिरंगा फहराया गया। इस ऐतिहासिक दिन सुबह आन्दोलन के केन्द्र “रतन कुटी” के सामने विलीनीकरण के प्रणेता भाई रतनकुमार द्वारा राष्ट्रीय तिरंगा फहराया गया।
शाम के समय भोपाल के बेनजीर मैदान में शासकीय आयोजन भी हुआ, जहां भोपाल पार्ट-सी स्टेट के प्रथम कमिश्नर नील बोनार्जी द्वारा भी झंडा वंदन किया गया, उसी ऐतिहासिक बेनजीर मैदान में जहां 20 साल पहले सन 1929 में महात्मा गांधी की जनसभा हुई थी।
देश के चप्पे-चप्पे की जनता के देश की आजादी के लिए किए गए जनसंघर्ष को सामने लाने का दायित्व मूलतः शासकीय विभागों का है। हमारे प्रदेश में तो एक विशिष्ट संस्थान की स्थापना ही इस पुनीत उद्देश्य के लिए की गयी है, परन्तु अभी तक भारत की आजादी के इस महत्वपूर्ण अध्याय को अपेक्षित महत्त्व के साथ प्रसारित एवं प्रकाशित नहीं किया गया है। यह भी कहा जा सकता है कि उसे षड्यंत्रपूर्वक छिपाकर रखा गया है। यह सब ऐतिहासिक तथा प्रेरणादायक तथ्य भोपाल के निवासियों को बताना आवश्यक है।
शासकीय विभागों की इस ओर उदासीनता के कारण विगत दो दशकों से “भोपाल स्वातंत्र्य आन्दोलन स्मारक समिति” इस दिशा में अग्रसर है। बिना किसी शासकीय सहायता के, केवल स्वयम के प्रयासों से भोपाल विलीनीकरण आन्दोलन दिवस पर बेनजीर मैदान पर झण्डा वन्दन, महत्वपूर्ण दुर्लभ अभिलेख, पत्र एवम् चित्रों की प्रदर्शनी, स्लाइड शो तथा विचार गोष्ठियों का आयोजन किया जाता रहा है। जिसका मीडिया द्वारा भी उत्साहवर्धक कवरेज किया जाता रहा है। परिणाम स्वरूप एक विभाग ने तो अपने प्रकाशन में इस आन्दोलन को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। परन्तु अन्य समिति के निरंतर अनुरोध के बावजूद अभी तक इस दिशा में निष्क्रिय रहे हैं। समिति द्वारा इन विभागों से सूचना के अधिकार के तहत भी जानकारी मांगी गयी है, जिससे उनकी उदासीनता को रेखांकित कर शासन के सम्मुख प्रस्तुत किया जा सके।

विलीनीकरण भोपाल के इतिहास का तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिंदु है ही, प्रदेश के उत्तरोत्तर विकास की भी पहली सीढ़ी है तथा एक और विभाजन को तत्पर राष्ट्र की एकता बनाये रखने में भी इस आन्दोलन की अहम भूमिका रही है। भोपाल की संवेदनशील व भौगोलिक स्थिति के इस आन्दोलन से उपजे तत्कालीन स्थानीय नेतृत्व द्वारा प्रभावशाली पैरवी के दृष्टिगत 1956 में नवगठित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को बनाया गया। आज का सुन्दर, खुशनुमा और महानगर का स्वरूप ले चुका भोपाल और प्रदेश हमारे उन रणबांकुरों की बेमिसाल कुर्बानियों का नतीजा है जिन्होंने अपने जीवन का सब कुछ लुटा कर हमें यह सौगात इस उम्मीद से सौंपी है कि एक जिम्मेदार नागरिक के बतौर हम इसे कायम रखेंगे। “आजादी 75 साल : जरा याद करो कुरबानी” में तिरंगे को अपने खून से सींचने वाले भोपाल रियासत के इन शहीदों को शासकीय तंत्र द्वारा याद तक नहीं किया गया। इस गौरवशाली प्रसंग के साक्षी स्थलों के चिन्ह तक मिटा दिए गए हैं।
“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले ; वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा” का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। यह “चिराग तले अंधेरा” की एक ज्वलंत मिसाल है। हम और कुछ तो कर सकें या नहीं – कम से कम इस दिन उनके संघर्ष एवम कुर्बानियों के गौरवशाली इतिहास को तो याद कर लें।
लेखक भोपाल स्वातंत्र्य आन्दोलन स्मारक समिति के संस्थापक सचिव हैं
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