MP High Court Verdict: ग्वालियर से सामने आया एक ऐसा मामला, जिसने न सिर्फ कानूनी बहस को जन्म दिया, बल्कि दांपत्य जीवन की सीमाओं और सहमति की परिभाषा को भी उजागर किया। ग्वालियर जिले के सिरोल निवासी एक महिला ने अपने पति पर गंभीर आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई थी- जिसमें धारा 377 (अप्राकृतिक यौन संबंध), धारा 498ए (दहेज प्रताड़ना), और धारा 323 (मारपीट) शामिल थे।
पत्नी का आरोप था कि उसका पति शराब के नशे में अक्सर अप्राकृतिक यौन संबंध बनाता था और जब वह इसका विरोध करती, तो उसके साथ मारपीट करता और लगातार दहेज की मांग करता। यह शिकायत सिरोल थाने में दर्ज कराई गई थी।
पति ने कोर्ट में दायर की थी याचिका
आरोपों को खारिज करते हुए पति ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट (MP High Court) में याचिका दाखिल की और भारतीय दंड संहिता की धारा 377 और 498ए के तहत दर्ज मामले को खारिज करने की मांग की। उसका तर्क था कि वह और उसकी पत्नी वैध रूप से विवाहित हैं, इसलिए पत्नी के साथ किए गए यौन संबंध को अप्राकृतिक सेक्स की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
हाई कोर्ट की बड़ी टिप्पणी: पत्नी की इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध क्रूरता है, पर बलात्कार नहीं
कोर्ट (MP High Court) ने सुनवाई के दौरान कहा कि बालिग पत्नी के साथ किया गया यौन संबंध बलात्कार या अप्राकृतिक सेक्स नहीं माना जा सकता, जब तक कि इसमें उसकी सहमति का अभाव न हो और यह क्रूरता की सीमा तक न पहुंच जाए। कोर्ट ने इस आधार पर पति पर दर्ज धारा 377 को निरस्त कर दिया, लेकिन दहेज प्रताड़ना और मारपीट के मामले को यथावत रखा।
हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर पत्नी की इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती की गई हो और उसमें शारीरिक हिंसा शामिल हो, तो यह मामला क्रूरता (Cruelty) के तहत आएगा, न कि बलात्कार के तहत।
क्या है IPC की धारा 377 और इसका कानूनी मतलब?
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति द्वारा किए गए ‘प्रकृति के विरुद्ध यौन संबंध’ को दंडनीय अपराध माना गया है। इसमें पुरुष, महिला या जानवर के साथ जबरन या अनैतिक यौन क्रिया को 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा और अर्थदंड का प्रावधान है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले के बाद इस धारा को काफी हद तक समलैंगिक संबंधों में सहमति के आधार पर वैध करार दिया गया है। लेकिन पति-पत्नी के बीच इस धारा के उपयोग पर अदालतों की राय अक्सर मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
इस केस से जुड़ा सामाजिक संदेश: सहमति हर रिश्ते में जरूरी है
इस फैसले ने एक बार फिर साबित किया है कि सहमति (Consent) न सिर्फ प्रेम संबंधों में, बल्कि वैवाहिक जीवन में भी उतनी ही जरूरी है। कोर्ट का यह फैसला उन लोगों के लिए एक मिसाल है जो सोचते हैं कि विवाह के बाद अधिकारों की सीमाएं खत्म हो जाती हैं।
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