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Ram Navami: जब व्यक्ति संघर्ष की आंच में तपकर लोक कल्याण के विचार को पुष्ट करता हुआ राम बनता है, तब आता है रामराज्य

भारत के पर्याय हैं राम, राम हैं तो भारत है, राम नहीं तो भारत नहीं। राम यथार्थ और आदर्श की समन्वित-सन्तुलित प्रकृत भूमि पर अवस्थित हैं।

Rahul Garhwal by Rahul Garhwal
April 6, 2025
in विचार मंथन
Ram Navami 2025 dr Krishnagopal Mishra vichar manthan
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इस भारत वसुन्धरा पर सहस्रों वर्ष पूर्व आदिकवि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में राम को मानवीय भावभूमि पर प्रतिष्ठित कर विश्वसाहित्य में एक अविस्मरणीय चरित्र की अद्भुत सृष्टि की। यह चरित्र-सृष्टि इतनी मोहक, आकर्षक और प्रेरक थी कि परवर्ती साहित्य में पुनः-पुनः प्रकट होकर, यत्किंचित अंतर युक्त होकर भी समाज को प्रभावित करती रही, लुभाती रही। विक्रम संवत् 1631 में गोस्वामी तुलसीदास ने अब से 450 वर्ष पूर्व आदिकवि की मानवीय चरित्र-सृष्टि को पौराणिक अवतारवादी धरातल पर विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित कर रामकथा को नया आयाम प्रदान किया। राम के महामानव आदर्श के अंकन ने समाज को उनके आचरण का अनुकरण करने की शुभ प्रदायिनी प्रेरणा दी तो गोस्वामी तुलसीदास के नरलीला परक अवतारवाद ने इस्लामिक सत्ता की विस्तारवादी क्रूरता के विरूद्ध संघर्ष करने का साहस, शौर्य और आस्थापुष्ट संबल दिया।

रामायण और रामचरितमानस

‘रामायण’ और रामचरितमानस’ में अंकित राम के ये दोनों ही- मानवीय और नारायणीय रूप लोक जीवन में दूर तक स्वीकृत और समादृत हैं। राम दोनों ही रूपों में आज व्याख्येय हैं। जहां दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से लेकर नगरों, महानगरों और राजधानियों तक फैले छोटे-बड़े असंख्य मंदिरों में प्रतिष्ठित-पूजित राम प्रतिमाएं उनके नारायणत्व ईश्वरत्व की साक्षी हैं। वहीं विश्व की विविध भाषाओं में रचित रामकथा परक साहित्य की अगणित प्राचीन, अर्वाचीन और नवीन कृतियां उनके ईश्वरत्व के साथ नरत्व का प्रेरक प्रत्याख्यान करती हैं।

Ram Navami 2025

रामराज्य सुशासन का प्रतीक

‘रामराज्य’ सुशासन का प्रतीक-पर्याय बनकर भारतवर्ष में सर्वत्र स्वीकृत हुआ है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से लेकर महात्मा गांधी तक रामराज्य की अवधारणा निरंतर हमारी संस्कृति का आदर्श मानक रही है और आज भी है किन्तु रामराज्य के लिए जिस राजनीतिक व्यक्तित्व विकास एवं पारिस्थितिक परिवेश परिवर्तन की प्रक्रिया अपेक्षित है, उसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। व्यक्ति में ‘रामत्व’ की प्रतिष्ठिा किए बिना और समाज-उपवन के कष्ट कंटकों का समूल उच्छेदन किए बिना रामराज्य का पुनर्संस्थापन कैसे संभव है? जब तक कोई साधन विहीन राम अपने पुरुषार्थ, साहस, शौर्य और संगठन-कौशल के बल पर उत्पीड़क राक्षसी मानसिकता का सर्वनाश नहीं कर देता तब तक समाज में रामराज्य कैसे आ सकता है? रामराज्य की स्थापना के लिए राम की आवश्यकता है और राम की; रामत्व की प्राप्ति के निमित्त व्यक्तित्व विकास एवं चरित निर्माण की उस लम्बी साधना-सुलभ प्रक्रिया की आवश्यकता है जो साधारण मनुष्य में देवत्व का, व्यक्ति के व्यक्तित्व में ‘रामत्व’ का सचेत सन्निधान करती है।

रामत्व की प्राप्ति

कोई व्यक्ति एक दिन में राम नहीं बन सकता। रामत्व प्राप्त नहीं कर सकता। राम में रामत्व का विकास उनके वात्सल्य-प्रेम पुष्ट बाल्यकाल से प्रौढ़ावस्था तक के सुदीर्घ अनुभव, शास्त्रज्ञान एवं सतत जाग्रत विवेकयुक्त शक्ति का सम्मिलित परिणाम है। जब व्यक्ति संघर्ष की आंच में तपकर लोक-कल्याण के विचार को उत्तरोत्तर पुष्ट करता हुआ राम बनता है, तब रामराज्य आता है। राजगृह में जन्म लेकर, गुरुकुल में अनुशासन -संयम की छांह में अध्ययन कर और चौदह वर्ष की दीर्घ अवधि तक वन-प्रान्तर में अनेक वनजातियों एवं तपस्वियों के मध्य निवास करते हुए प्रबलतम शत्रुशक्ति पर विजय प्राप्त कर राम ने अद्भुत सामर्थ्य अर्जित की और राजपद पर अभिषिक्त होकर स्वयं को जनता जनार्दन की कल्याण-साधना के प्रति सहर्ष अर्पित कर दिया। लोक-पथ पर लोक-हित के दिव्य रथ का संचालन सीखने के लिए राम के व्यक्तित्व विकास, उनके शील-सौन्दर्य एवं शक्ति-संयुक्त स्वरूप को समझना होगा।

ram

मनुष्य के बाहर और भीतर संघर्ष

दार्शनिक मान्यताओं के अनुसार संसार में ‘सत्’ और ‘असत्’ का संघर्ष सनातन है; शाश्वत है। यह संघर्ष मनुष्य के बाहर भी है और भीतर भी। मन में सद् इच्छाओं और दुरभिलाषाओं के मध्य होने वाला द्वन्द्व कर्म के स्तर पर बाह्य जगत में प्रकट है। यही द्वन्द समाज में विविध रूपों में संघर्ष का कारण बनता है। सबको सुख पहुंचाना, सबके हित की चिंता करना और सबके हर्ष का कारण बनना सत है; स्वयं जीना तथा सबको जीने देना और कभी-कभी सबके जीवन के लिए अपने जीवन को भी सहर्ष उत्सर्गित कर देना सत् है। इसके विपरीत सबसे सबका सब कुछ छीनकर अपना पोषण करना असत् है; अपने मत, मान्यता, कर्म को मानने के लिए अन्य को उसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक अथवा लोभ देकर विवश करना असत् है। ‘राम’ और ‘रावण’ भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और समाज में ‘इसी सत’ और ‘असत’ का प्रतीकार्थ प्रकट करते हैं। इस प्रकार राम और रावण इस भौतिक जगत के ऐतिहासिक-पौराणिक पात्र होने के साथ-साथ प्रतीक पात्र भी हैं जिनकी प्रतीकात्मक प्रस्तुति समाज और साहित्य में अपरिवर्तनीय है।

सत् के प्रतीकार्थ में श्रीराम

भारतीय समाज के विस्तृत पटल पर और देश-विदेश में बसे एक अरब से अधिक सनातनी हिन्दुओं की दृष्टि में आज भी राम ही सत् के प्रतीक हैं और रावण असत् का प्रतीक है। इसीलिए प्रतिवर्ष आश्विन सुदी दशमी को दशहरे पर सत् की असत् पर विजय दर्शाते हुए रावण-दहन किया जाता है, किया जाता रहेगा क्योंकि मनुष्य की सहज वृत्ति सत्पथगामिनी है। निहित स्वार्थों के लिए कोई समूह भले ही असत के पोषण मे, रावण के महिमा मण्डन में व्यस्त हो जाए किन्तु अन्ततः उसे राम के रूप में ही सत् का वन्दन-अभिनंदन करने को बाध्य होना होगा, क्योंकि असत् के प्रसार की रावणी-चित्तवृत्ति व्यक्ति और समाज-दोनों को ही अन्ततः नष्ट कर देगी। मनुष्य-विवेकशील मनुष्य इस सत्य को जानता है, समझता है इसलिए सत् के प्रतीकार्थ में श्रीराम को स्वीकार करता है, करता रहेगा।

राम यथार्थ और आदर्श

राम यथार्थ और आदर्श की समन्वित-सन्तुलित प्रकृत भूमि पर अवस्थित हैं। वे भगवान बुद्ध और भगवान महावीर की भांति कोमलता के एक ध्रुव पर प्रतिष्ठित नहीं हैं। वे कोमलता के साथ-साथ आवश्यक कठोरता से भी समृद्ध हैं क्योंकि कोमलता की रक्षा कठोरता के अभाव में असंभव है। श्रीराम शस्त्र और शास्त्र दोनों के विवेकपूर्ण उपयोग के पक्षघर हैं। इसलिए अधिक व्यावहारिक और अधिक अनुकरणीय हैं। भगवान बुद्ध और महावीर के एकान्त अहिंसा-पथ को ग्रहण कर हम इस्लामिक कट्टरता की क्रूरता के समक्ष स्वयं को बलिपशुवत अर्पित कर सकते हैं- स्वैच्छिक आत्मघात कर स्वयं को धन्य मान सकते हैं किन्तु अपनी मानवीय गरिमा, स्वाभिमान, स्वधर्मानुरूप विश्वास और जीवन की रक्षा नहीं कर सकते। आत्मगौरव, स्वधर्म और स्वाभिमानपूर्ण तेजस्वी-यशस्वी जीवन की रक्षा श्रीराम के कर्मपथ का अनुसरण करके ही संभव है क्योंकि रावण जैसी दुर्दान्त राक्षसी ताकतों को राम की शस्त्रधारी सामरिक शक्ति ही उचित उत्तर दे सकती है। याचना के बल पर रावण से सीता को वापस नहीं लिया जा सकता। इसलिए लोक में राम का धनुर्धारी रूप सर्वत्र वंदित है।

कण-कण में बसे श्रीराम

shri ram

श्रीराम भारतवर्ष की अस्मिता हैं, सांस्कृतिक पहचान हैं। यहां के जन-जन में, कण-कण में बसे हैं; भक्तों के राम-रोम में रमे हैं। वे लोक की निधि हैं। लोकगीतों का प्रिय विषय हैं। अवधी ही नहीं ब्रज, मालवी, निमाड़ी, बुन्देली, पहाड़ी भारतवर्ष की कोई भाषा बोली ऐसी नहीं जिसके लोकगीतों में राम न हों और तो और आज के ‘बॉलीवुड’ का अभिजात्य संसार भी राम का आश्रय लेकर अपार लोकप्रियता और अर्थ अर्जित कर लेता है।

राम के नाम पर बालकों का नामकरण

भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत में हजारों वर्षों से राम के नाम पर बालकों का नामकरण हो रहा है। हिमालय के पहाड़ हों, उत्तर भारत के मैदान हों, बिहार-बंगाल के क्षेत्र हों, राजस्थान का रेगिस्तान हो, मध्यभारत का विंध्य-सतपुड़ा का पठार हो, अथवा महाराष्ट्र-तमिलनाडु का दूर तक फैला समुद्र तट हो, हिन्दुओं के हर वर्ण, जाति, सम्प्रदाय में राम और रामकथा के रामभक्त पात्रों पर केन्द्रित नामधारी व्यक्ति अवश्य मिल जाएंगे। राम की व्यापकता भाषाओं, क्षेत्रों, जाति-समूहों और समय की असीम अवधियों को पारकर भारतीय समाज के सबसे बड़े अंश को प्रभावित कर रही है। अभिवादन पद के रूप में ‘राम-राम’, ‘जय रामजी की’, ‘सीताराम’, ‘जय श्रीराम’ का उच्चारण भारत में हजारों वर्षों से हो रहा है। एक हजार वर्ष से अधिक की इस्लामिक-ईसाई दासता अभिवादन पदों और नामकरणों की इस पुरातन विरासत को क्षतिग्रस्त नहीं कर सकी; छीन नहीं सकी। इस्लाम की विस्तारवादी आंधी ने अत्यंत क्रूरता और निर्ममता पूर्वक लाखों मंदिर धराशायी कर दिए किन्तु भारतीयों के मन पर अंकित ‘राम’ नाम के दो अक्षरों को जरा भी धूमिल नहीं कर सकी। शपथ-सौगन्ध के लिए राम काम में आते हैं। कोई दुःखद सूचना पाकर मुख से ‘राम’ शब्द स्वतः निकल जाता है। किसी कारूणिक वर्णन को सुनकर अथवा किसी पर हुए अत्याचार को जानकर पीड़ित के पक्ष में व्यक्त सहानुभूति के रूप में हम ‘अरे राम-राम!’ कह उठते हैं। शव-यात्रा राम का नाम लिए बिना आगे नहीं बढ़ती। अर्थी कंधे पर आते ही राम बरबस याद आ जाते हैं और राम के नाम की सत्यता अन्तर्मन में अनुभूत होकर स्वर बनकर वातावरण को गुंजायमान कर देती है।

रोम-रोम में राम

ram navami 2025 ram

उत्तरभारत एवं देश के अनेक क्षेत्रों में तराजू पर अनाज आदि तौलते समय तौलने वाला व्यक्ति पहली तोल में ‘एक’ के स्थान पर ‘राम’ शब्द का उच्चारण करता है। हिन्दी की बहुत सी लोकोक्तियां- ‘राम कहो’, ‘राम की माया कहीं धूप कहीं छाया’, ‘मुंह में राम बगल में छुरी’, ‘राम की चिरैय्या रामहिं को खेत, खाउ री चिरइयों भर-भर पेट’, ‘रामजी का सहारा’, ‘राम करै सो होय’, ‘जाही विधि राखै राम ताही विधि रहिए’, राम पर आधारित हैं और लोकजीवन में राम की गहरी स्वीकृति प्रमाणित करती हैं। राम की यह विस्तृत व्याप्ति और लोक-स्वीकृति उन्हें भारत का पर्याय सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। इसी आधार पर राम भारत की अस्मिता है, वे स्वयं भारत हैं और इसलिए भारत-विरोधी शक्तियां राम का विरोध करती हैं। राम को शक्तिहीन सिद्ध करने के लिए इस्लाम ने रामजन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर ध्वस्त कर भारत के मन पर गहरी चोट की, भारत ने उस व्रण की पीड़ा शताब्दियों तक सही किन्तु उसे भरने-सूखने नहीं दिया, विस्मृत नहीं किया। उसे रक्त से सींचकर हरा रखा और अब राम की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठा दी।

राम हैं तो भारत है, राम नहीं तो भारत नहीं

राम से भारत का मन छिन्न करने के लिए ईसाई बौद्धिक धरातल पर भारतीय हिन्दू कम्युनिस्टों के सहयोग से निरंतर राम के विरुद्ध लेखन के स्तर पर भयंकर विष-वमन कर रहे हैं तथापि भारत में, भारतीयों के मन-मंदिर में राम की प्रतिष्ठा यथावत संरक्षित है। इसका संरक्षण हमारी जातीयता अस्मिता और सांस्कृतिक जीवन धारा का संवर्धन है; भारत की भावी पीढ़ियों के लिए उनकी वास्तविक पहचान का परिचय है, अतः सर्वथा करणीय है। ‘राम हैं तो भारत है, राम नहीं तो भारत नहीं’ इस सांस्कृतिक सूत्र को समझकर हमें राम और भारत के विरुद्ध हर कुचक्र को विफल करना होगा। यह हमारा कर्तव्य भी है और दायित्व भी। आधुनिक भारत की अनेक जटिल समस्याओं की जड़ें राम और रामकथा के सही अर्थ से भटकने में है। रामकथा सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय और समरसता की महागाथा है जो व्यक्ति और समाज, राष्ट्र और विश्व सबके लिए कल्याणकारी है। अतः सर्वथा प्रासंगिक भी है।

( लेखक नर्मदापुरम के नर्मदा कॉलेज में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं )

Rahul Garhwal

Rahul Garhwal

करीब 5 साल से पत्रकारिता जगत में सक्रिय। नवभारत से शुरुआत की, स्वराज एक्सप्रेस, न्यूज वर्ल्ड और द सूत्र में भी काम किया। खबर को बेहतर से बेहतर तरीके से पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश रहती है। खेल की खबरों में विशेष रुचि है। जो सीखा है उसे निखारना और कुछ नया सीखने का क्रम जारी है।

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