रिपोर्ट : अनुराग श्रीवास्तव – कानपुर
हाइलाइट्स
- देश के कई राज्यों से दर्शन करने आते हैं भक्त
- पिता के प्रकोप से बचने के लिए 12 बहने बन गयी थी पत्थर की मूरत
- आस्था में डूबे भक्त माँ को जुबान काटकर करते थे अर्पण
KANPUR FAMOUS BARAHDEVI MANDIR STORY : चैत्र नवरात्र की शुरवात हो चुकी है, ऐसे में देशभर के प्राचीन मंदिरों में प्रथम दिन माँ शैल पुत्री की उपासना के साथ मां के दर्शन पाने वाले भक्तों की लंबी लंबी कतार देखने को मिली । इन्हीं मंदिरों में से एक कानपुर का प्रसिद्ध बारादेवी मंदिर भी है, इस मंदिर की कई विशेष कहावतें है, कहा जाता है कि माँ बारादेवी का यह मंदिर सैकड़ो साल पुराना है, शहर और आस-पास के जिलों में मां बारादेवी मंदिर को लेकर लोगों में विशेष आस्था है।
देश के कई राज्यों से दर्शन करने आते हैं भक्त, चैत्र के नवरात्र में लाखों भक्त लेकर आते हैं जवारे, सजता है भव्य मेला
कानपुर के दक्षिण क्षेत्र में स्थित मां बारादेवी मंदिर में साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है। नवरात्र में यहां विशालकाय मेला लगता है, जहाँ आसपास के राज्यों के साथ कई जनपदों से भक्त माता के दर्शन को आते हैं। मान्यता है कि मंदिर में माता के दर्शन कर लाल चुनरी बांधने से हर मनोकामना पूर्ण होती है। चैत्र नवरात्र में यहां भक्त दूर-दूर से जवारे लेकर पहुंचते हैं। कोई मुंह में सांगा लगाकर, कोई पूरे शरीर में सुईयां चुभोकर तो कोई दंडवत लेटकर दरबार में आकर मनोकामना मांगता है। लेकिन बात अगर करें इस मंदिर के इतिहास की तो यहां इस मंदिर का इतिहास बेहद ख़ास है ।
पिता के प्रकोप से बचने के लिए 12 बहने बन गयी थी पत्थर की मूरत
नवरात्रि के प्रथम दिन आज हम आपको कानपुर के सुप्रसिद्ध माँ बारादेवी मंदिर के बारे में बताते हैं। बारादेवी मंदिर कानपुर शहर के प्रमुख मंदिरों में से एक है, इस मंदिर के बारे में बताया जाता है कि ये करीब 500 से अधिक वर्ष पुराना मंदिर है। इस मंदिर की कहानी के बारे में अगर हम बात करें तो कुछ खास है यहां की कहानी, यहाँ के पुजारी और प्रबंधन समिति के लोग बताते हैं कि कानपुर के बर्रा इलाके में रहने वाली कन्या की पिता से हुई अनबन के कारण उनके गुस्से के प्रकोप से बचने के लिए एक साथ 12 बहनें घर से भागकर यहां स्वत स्फूर्त मूर्ति के रुप में स्थापित हो गईं। सालों बाद यही 12 बहनें बारादेवी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। कहा जाता है कि 12 बहनों के श्राप देने से पिता भी पत्थर रुप में हो गए थे। बताया जाता है कि महामाई बर्रा इलाके के ठाकुर परिवार की रहने वाली थीं। उनके पिता का नाम लखुवा वीर सिंह था।
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आज भी नवरात्र की अष्टमी पर रात 12 बजे बर्रा निवासी माँ के घरवाले ही करते है प्रथम पूजा अर्चना बर्रा में रहने के कारण उनके नाम से बारादेवी मंदिर स्थापित हुआ, जहां लोग चुनरी व ईंट रख कर मन्नत मांगते है। नवरात्र पर मां के इस भव्य मंदिर में लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए दूर दराज वाले इलाकों से आते हैं। समिति पदाधिकारियों के मुताबिक नवरात्र में अष्टमी के दिन बर्रा निवासी घरवाले ही मां की प्रथम पूजा अर्चना करने रात 12 बजे आते हैं, घरवालों की पूजा के बाद ही मां के पट अन्य भक्तों के लिए खोले जाते है। बताया जाता है कि आज भी इलाके के लोग अष्टमी पर महामाई की पूजा के लिए श्रंगार समेत अन्य सामाानों का दान करते है।
आस्था में डूबे भक्त माँ को जुबान काटकर करते थे अर्पण, 8वें दिन फ़िर निकल आती थी जुबान
मंदिर प्रबंधन द्वारा बताया जाता है कि इस सुप्रसिद्ध बारादेवी मंदिर में मनोकामना पूरी होने पर भक्त मां को जबान काट कर अर्पण करते थे, इसके बाद भक्त को मंदिर परिसर में लगे टेंट में लिटाकर 7 दिनों तक मां को चढ़ाया जाने वाला जल दिया जाता था। 8वें दिन पुजारी भक्त को मां की आरती में शामिल करते थे, जहां जयकारे लगाने के दौरान भक्त भी जयकारें लगाने लगता है, बताया जाता है कि 8 दिनों में भक्त की जीभ दोबारा आ जाती थी। करीब 15 से 20 साल पहले इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया। अब बलि के स्वरूप में नारियल का चढ़ाने का चलन है।
12 से 17 सौ साल पुरानी हैं मंदिर प्राँगण में रखी हुई मूर्तियां
यूं तो मंदिर के बारे में अनेकों किस्से और कहानियां प्रचलित है, इन्हें में से एक है मंदिर के कई सौ वर्ष पुराने होने की कहानी, फ़िलहाल अबतक कोई सटीक जानकारी तो किसी के पास नही मौजूद है, लेकिन मां बारादेवी मंदिर की प्रबंधन समिति के अनुसार ये जानने के लिए के आखिर इस मंदिर में स्थापित मूर्तियां आख़िर कितनी पुरानी है कुछ वर्ष पूर्व पुरातत्व विभाग की टीम ने मंदिर का सर्वेक्षण किया गया था। जिसके बाद जांच करने के उपरांत पुरातत्व विभाग की टीम ने बताया था कि मंदिर में स्थापित मूर्तियां लगभग 12 से 17 सौ साल तक पुरानी होने की आशंका हैं।
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